हिमाचल की समकालीन कविता

By: Jan 16th, 2022 12:07 am

कविता एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इस अर्थ में कि कवि जाने-अनजाने, अपने हृदय में संचित, स्थिति, स्थान और समय की क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त भाव-संवेदनाओं के साथ-साथ जीवन मूल्य भी प्रकट कर रहा होता है। और इस अर्थ में भी कि प्रतिभा व परंपरा के बोध से परिष्कृत भावों को अपनी सोच के धरातल से ऊपर उठाते हुए सर्वसामान्य की ज़मीन पर स्थापित कर रहा होता है। पाठक को अधिक मानवीय बनाते हुए और एक बेहतर समाज की अवधारणा देते हुए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचनात्मकता का विश्लेषण और मूल्यांकन जरूरी है। यथार्थ के समग्र रूपों का आकलन आधारभूत प्राथमिकता है। यदि यह आधार खिसक गया तो कवि कर्म पर प्रश्न उठेंगे।…हिमाचल प्रदेश में कविता व ग़ज़ल की सार्थक तथा प्रभावी परंपरा रही है। उसी को प्रत्यक्ष-परोक्ष, हर दृष्टि और हर कोण से खंगालने की चेष्टा यह संवाद है।… कुछ विचार बिंदुओं पर सम्मानित कवियों व समालोचकों की ज़िरह, कुम्हार का चाक/छीलते काटते/जो घड़ दे एक आकार। ‘हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में’ शीर्षक के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विचार आप पढ़ेंगे। जिन साहित्यकारों ने आग्रह का मान रखा, उनके प्रति आभार। रचनाकारों के रचना-संग्रहों की अनुपलब्धता हमारी सीमा हो सकती है। कुछ नाम यदि छूटे हों तो अन्यथा न लें। यह एक प्रयास है, जो पूर्ण व अंतिम कदापि नहीं है। – अतिथि संपादक

अतिथि संपादक : चंद्ररेखा ढडवाल, मो.: 9418111108

हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -18

विमर्श के बिंदु

  1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
  2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
  3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
  4. हिमाचली कविता में स्त्री
  5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
  6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
  7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
  8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
  9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
  10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
  11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
  12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
  13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
  14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
  15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
  16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
  17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी

डा. हेमराज कौशिक, मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)

नवें दशक में कुछ अन्य संग्रह सतीश धर का ‘सलमा खातून नदी बन गई’ और अशोक हंस के ‘प्रभु की मौत’ और ‘घघ्घे घाघ’ और कौशल्या का ‘धवल घास’, कर्म सिंह का ‘परंपरा’ प्रकाशित हुए। सतीश धर के ‘सलमा खातून नदी बन गई’ की कविताएं समसामयिक परिस्थितियों के यथार्थ को परत दर परत अनावृत करती हैं। कंचन शर्मा का ‘रवितनया’ (2004) शीर्षक से एक संग्रह प्रकाशित है। प्रस्तुत संग्रह की कविताएं रचनाकार की घनीभूत संवेदना भूमि की  अभिव्यंजना है। निर्मला चंदेल ने ‘मां के लिए’ (2007) में  जीवन के विविध पक्षों के अत्यंत संवेदनशील क्षणों को शब्दों में पिरो कर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का प्रयास किया है। उनकी कविताओं में नैतिकता, मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं के क्षरण की चिंता निहित है। निर्मला चंदेल ने ‘पहचान’ (2013) शीर्षक से हिमाचल प्रदेश के कवियों की कविताओं का संपादन भी किया है।  ‘तलाश’ (2011) अनंत आलोक का प्रथम काव्य संग्रह है।

प्रस्तुत संग्रह की कविताएं मानवीय संवेदना के पक्षों को नितांत गहराई से आलोकित करती हैं और जीवन के छोटे-छोटे अनुभव कवि की सृजनात्मकता के आधार हैं। शंकरलाल वशिष्ठ के ‘दो टूक’ (2014) और ‘स्पंदन’ (2015) संग्रह की  कविताओं में समाज में व्याप्त विद्रूपताओं, विषमताओं, अंधश्रद्धाओं और जड़ परंपराओं के प्रति विद्रोह का स्वर है जो कभी अभिधात्मक तो कभी व्यंग्य के धरातल पर मुखरित हुआ है। पवन चौहान के ‘किनारे की चट्टान’ (2015) की कविताएं पहाड़ी जीवन के संघर्ष, जिजीविषा, प्रकृति और पर्यावरण से संबद्ध हैं।  सोहनलाल गौतम के ‘जब मां नहीं होती’ (2015) की कविताओं में संवेदना भूमि का वैविध्य,  संघर्ष चेतना और कवि कर्म का दायित्व बोध है। गुप्तेश्वर नाथ उपाध्याय के दो काव्य संग्रह ‘पगडंडी’ (2016) व ‘बसंत अभी नहीं आया’ (2021) प्रकाशित हुए हैं। कविताओं में जीवन और जगत के अनुभूत सत्य को कवि ने अपने निकट परिवेश के संदर्भ में  कलात्मक वैभव से मूर्तिमान करते हुए समाज, प्रकृति, जीव, जगत, गगन, अभावग्रस्त जन की पीड़ा संबंधी अनेक सवाल कविताओं में विद्यमान हैं। अजय पराशर के ‘मौन की अभिव्यक्ति’ ( 2017) की कविताओं की संवेदना जहां एक ओर अध्यात्म की सौरभ बिखेरती है, वहीं राष्ट्र, राजनीति और प्रशासन से संपृक्त समकालीन प्रश्नों को उठाती है। अजय  पराशर का ‘कस्तूरी’ शीर्षक से दोहा संग्रह है।

उनके सात सौ नौ दोहे जीवन के लौकिक एवं लोकोत्तर दोनों पक्षों की सहज सरल शैली में अभिव्यक्त है। हरिप्रिया सदी के अंतिम दशक से निरंतर सृजनरत हैं। ‘प्रतिध्वनि’ (1993), ‘वे औरतें’ (2015), ‘कैलैंग्व बीच  की सुनहरी रेत पर’ (2016) व ‘अंतस का मुखरित मौन’ (2020) उनके कविता संग्रह  हैं। उनकी कविताएं प्रेम के विभिन्न पक्षों और संबंधों के यथार्थ के साथ नारी के बदलते  स्वरूप, पर्वतीय क्षेत्र की नारी नियति को रेखांकित करती हैं।   शांता कुमार और संतोष शैलजा का प्रथम काव्य संग्रह सन 1985 में ‘ओ प्रवासी मीत मेरे’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। ‘तुम्हारे प्यार की पाती’ (1999)  शांता कुमार का स्वतंत्र काव्य संग्रह है। सरोज परमार के तीन काव्य संग्रह ‘घर सुख और आदमी’ (1994), ‘समय से भिड़ने के लिए’ और ‘मैं नदी होना चाहती हूं’ (2015) हैं। उनकी कविताएं घर, परिवार के सुख-दुख से लेकर सामाजिक-राजनीतिक परिवेश की विद्रूपताओं और नारी विमर्श के आधारभूत प्रश्नों से टकराती हैं।  ‘मैं नदी होना चाहती हूं’ की कविताएं समकालीन समय में नारी नियति को नदी आदि अनेक बिंबों से मुखरित करती हैं। प्रेम लाल गौतम के ‘शिखरों से’ (1988), ‘मन के दीप’ (1990), ‘विवक्षा’ (1998) ‘क्षितिज’ (2013) और ‘तितिक्षा’ (2021) प्रकाशित हंै। उनकी कविताओं में प्रकृति की मनोरम छवि के साथ समाज की विसंगतियों, आधुनिकता और भौतिकतावाद से मूल्यों के क्षरण की चिंता है। श्याम लाल शर्मा ने ‘भक्ति अंकुर’ (1998) शीर्षक से सतसई का सृजन किया है। इसमें उनके समाज, गुरु,  विरह,  कर्म,  ज्ञान तथा भक्ति विषयक 757 दोहे संग्रहीत हैं। इस क्रम में ‘परमार्थ सतसई’ (2011) उनकी  दूसरी सतसई है। ‘भाव तरंगिणी’ (2009) उनकी एक अन्य काव्य कृति है। इक्कीसवीं शताब्दी के इन दो दशकों में सर्वाधिक काव्य सृजन हुआ है। बहुत से कवियों ने काव्य सृजन के माध्यम से राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान कायम की है और देश की विभिन्न स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में अपने काव्य सृजन को दर्ज किया है। अनूप सेठी के दो काव्य संग्रह ‘जगत मेला’ (2002) और ‘चौबारे पर एकालाप’ (2018) प्रकाशित हंै। ‘जगत मेला’ में अनूप सेठी की नवें दशक और  सदी के अंतिम दशक में रचित कविताएं हैं जिनमें प्रमुख रूप में महानगरीय और पर्वतीय परिवेश विद्यमान है। स्मृतियों और अनुभवों में कवि पहाड़ की दुनिया में विचरण करता है। पहाड़ी जीवन के साथ कवि ने महानगरीय जीवन का यथार्थ सामने लाया है। ‘चौबारे पर एकालाप’ में समसामयिक यथार्थ बोध और विडंबनात्मक स्थितियों का निरूपण है। मूर्त और अमूर्त स्थितियों के निरूपण में कवि ने आधुनिकता की चकाचौंध और छद्म को अनावृत किया है। रूपेश्वरी  शर्मा के तीन काव्य संग्रह ‘कोख से कब्र तक’ (2006), ‘धुंध’ और ‘अनुत्तरित प्रश्न’ प्रकाशित हैं। बंदना राणा  के ‘पीड़ा’ (2007) में उनकी छोटी-छोटी 81 कविताएं हैं जिनमें देश प्रेम, वीरों की भूमिका तथा नारी जीवन से जुड़ी कविताएं हैं। दीप्ति सारस्वत के चार काव्य संग्रह ‘सोचती हूं’ (2018), ‘चलती फिरती खिड़की’ (2019), ‘धुंधली धूप’ (2020) और ‘प्रेम एक स्लेटी आसमान’ हैं। दीप्ति सारस्वत ने जीवन के और निकट परिवेश के अनुभवों को जहां एक ओर कविता की संवेदना भूमि बनाया है, वहीं उनकी बहुत सी कविताएं दार्शनिक चिंतन, विमर्श के बिंदुओं और सामाजिक सरोकारों से संबद्ध हैं।    कमलेश सूद के ‘आखिर कब तक’, ‘बसंत सा खिलखिलाते रहना’ दो संग्रह प्रकाशित हैं। ‘हवाओं के रुख मोड़ दो’, ‘छू लेने दो आकाश को’, ‘रिश्तों की डोरी’ आदि उनके क्षणिकाओं के संग्रह हैं। विक्रम गथानिया नई सदी के दो दशकों में निरंतर सृजनरत हैं। उनके अब तक पांच काव्य संग्रह ‘मैं एक इतिहास हूं’ (1996), ‘तुम्हारे होने का पता’ (2010), ‘इस नए वक्त में’ (2018), ‘मैं उन्हें देखता हूं’ (2019) और  ‘एटीएम के अंदर औरत’ हैं। उनकी कविताओं में समसामयिक जीवन की विसंगतियां, मानव जीवन के प्रति सदाशयता, अभावग्रस्त जन और नारी जीवन से संपृक्त विषयों की अभिव्यंजना है।

कुंवर दिनेश हिंदी और अंग्रेजी में समान रूप में लिखते हैं। उनके ‘पुट भेद’ (2003), ‘कोहरा धनुष’ (2005), ‘उदयाचल’ (2009), ‘धूप दोपहरी’ (2010) आदि संग्रह प्रकाशित हैं। उनकी कविताओं की संवेदना भूमि व्यक्तिगत अनुभवों से लेकर सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों, आध्यात्मिकता और दर्शन तक व्याप्त है। चिर आनंद के ‘त्रिवेणी’ (2005) और ‘अपनों के हाथों न खाऊंगा खिचड़ी’ (2007)  की कविताएं निर्धनता, शोषण, भ्रष्टाचार, नारी दुर्दशा, पर्यावरण, राष्ट्रभाषा की अवहेलना,  जातिवाद आदि सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित हैं। अरविंद ठाकुर के दो काव्य संग्रह ‘प्रतिबिंब’ (2001) और ‘प्रतिध्वनि’ (2007) की  कविताओं में व्यक्ति मन की अनुभूतियों और अंतर्द्वंद्वों, संबंधों की रागात्मकता तथा सामाजिक विसंगतियों की अभिव्यंजना है। हिमेंद्र बाली ‘हिम’ के ‘प्रभाष’ (2006) की कविताएं समाज में व्याप्त विषमता, व्यवस्थागत अंतर्विरोधों  के साथ जीवन जगत के दार्शनिक प्रश्न से जूझती हैं।

‘पगडंडियां गवाह हैं’ (2011) आत्मा रंजन का चर्चित संग्रह है। उनकी लोकधर्मी कविताएं गहन संवेदना और निजी वैशिष्ट्य और मुहावरे के कारण आकर्षित करती हैं।  उनकी कविताओं में सामाजिक अंतर्विरोधस पहाड़ी जीवन का संघर्ष, पर्यावरण,  प्रकृति, पशु-पक्षियों के प्रति अनन्य अनुराग और करुणा मुखरित हुई है।  सुरेश सेन निशांत के  तीन कविता संग्रह ‘वे जो लकड़हारे नहीं हैं’ (2010), ‘कुछ जो कवि थे’ और ‘मैं यहीं रहना चाहता हूं’ (2020) प्रकाशित हैं। प्रशासन तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, पर्यावरण, बाजारवाद, पर्वतीय क्षेत्र में संघर्षरत नारी,  नारी शिक्षा आदि अनेक समसामयिक विषयों पर उनकी जनोन्मुखी सामाजिक और राजनीतिक चेतना परिलक्षित होती है। उनकी संवेदनात्मक गहराई, व्यापक फलक, जीवन की दुश्वारियों से  संघर्षरत आमजन की व्यापक पीड़ा और संबंधों का यथार्थ उनकी कविताओं में मुखरित हुआ है। ‘समय के स्वर’ (2014) गौतम व्यथित का 58 कविताओं का संग्रह है जिसमें कवि ने निकट परिवेश, धौलाधार का विस्तृत अंचल, लोकजीवन, प्राकृतिक संपदा, अपने  समय के साथ जिये क्षणों की अभिव्यंजना है। ओम भारद्वाज के ‘बर्फ हुआ आदमी’ (2014) की कविताएं मनुष्य की जिजीविषा और संघर्ष को रूपायित करती हैं। जयदेव विद्रोही के ‘बेताबियां’ संग्रह में उनके निकट परिवेश से लेकर व्यापक फलक, धार्मिक आडंबर, राजनीतिक दांव पेच और समसामयिक समस्याओं को समेटे हुए हैं। कविता और ग़ज़लों का यह काव्य पुंज उनके काव्यात्मक विकास को रेखांकित करता है। चंद्र रेखा ढडवाल सुदीर्घ काल से कविताएं लिख रही हैं और चर्चित भी हैं। उनका ‘जरूरत भर सुविधा’ (2016) शीर्षक से काव्य संग्रह आया है जिसमें घनीभूत संवेदना के साथ स्त्री संघर्ष, जिजीविषा और समाज में उसकी अस्मिता को मूर्तिमान किया है। नारी नियति और विमर्श से संपृक्त अनेक प्रश्न कविताओं में उभरे हैं। प्रकृति सौंदर्य, संस्कृति और समाज के गहरे सरोकार अनेक बिंबों और  प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यंजित हुए हैं। उनकी कविताएं गहरे सरोकारों से संपृक्त होकर पाठक को उद्वेलित और अभिभूत करती हैं और ठहर कर सोचने के लिए विवश करती हैं। ‘पत्थर तोड़ती औरतें’ (2017) मनोज चौहान का प्रथम काव्य संग्रह है। इससे पूर्व अनेक काव्य संग्रहों में उनकी कविताएं संग्रहीत हैं। उनकी कविताओं में शोषित-वंचित श्रमिक वर्ग और कृषक वर्ग की पीड़ा अभिव्यंजित है और राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त मूल्यहीनता को रेखांकित करती हंै। इंद्र सिंह ठाकुर निरंतर सृजनरत हैं। उनके अब तक ‘कागज में एक कलम रहती है’, ‘शिखर में आवाज’, ‘तुम ही तो थे’, ‘जज्बात’, ‘अंतर्मन की आवाज’ और ‘बात जिंदगी की’ संग्रह प्रकाशित हैं। ‘बात जिंदगी की’ कवि का गीत और गजलों का संग्रह है। ‘लकीरें बोलती हैं’ (2018) भारती कुठियाला का प्रथम काव्य संग्रह है जिसमें उनकी कविताएं प्रकृति, पर्यावरण और संबंधों के ताप को मूर्तिमान करती हैं। गणेश गनी के ‘वह सांप सीढ़ी नहीं खेलता’ (2019) की कविताएं लोकजीवन, प्रकृति, पर्यावरण, आदिवासी जीवन की दुश्वारियों आदि विविध विषयों पर केंद्रित हंै। उनकी कविताओं का फलक स्थानिकता से लेकर वैश्विकता तक व्याप्त है। सत्यनारायण स्नेही के ‘इंटरनेट पर मेरा गांव’ (2020) में  कवि की चिंता है कि भौतिक विकास से जीवन किस तरह यांत्रिक हो गया है और  बाजारवाद और उदारीकरण ने संबंधों की उष्मा निष्प्राण  कर दी है। युवा पीढ़ी पर नगरबोध और आधुनिकता के प्रभावों को मूर्तिमान करते हुए कवि ने पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों के साथ पहाड़ पर बाजारवाद के आक्रमण को अंकित किया है। ‘कल्प सृजन’ (2019) कल्पना  गांगट की प्रथम काव्य कृति में स्त्री जाति की विडंबना और संघर्ष के साथ राष्ट्रीय चेतना, ग्रामीण जीवन का यथार्थ और अंतर्द्वंद्वों को सरल शैली में अभिव्यंजित किया है।

‘आभास’ (2019) दयानंद शर्मा का प्रथम कविता संग्रह है। इस संग्रह  की कविताएं राष्ट्र चिंतन, लोक चिंतन और आत्मचिंतन से संबद्ध संवेदना भूमि से संपृक्त हैं। युगल किशोर डोगरा के ‘मेरे होने का सच’ (2020) की कविताएं प्रेमानुभूतियों, सामाजिक सरोकारों, श्रमिक वर्ग की पीड़ा और दुर्दशा को रेखांकित करती हैं। मनमोहन शर्मा का प्रथम काव्य संग्रह  ‘उद्गार’ (2020) में सहज, सरल, भावप्रवण शैली में प्रकृति, पर्यावरण, देश प्रेम के साथ कोरोना जैसी भीषण महामारी से उत्पन्न स्थितियों पर चिंतन है। मोहन साहिल के ‘एक दिन टूट जाएगा पहाड़’ काव्य संग्रह में पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों, समस्याओं और संघर्ष को रूपायित किया गया है। जगदीश शर्मा का ‘मां और द्वंद्व’ (2019) सुदीर्घ अंतराल के अनंतर दूसरा काव्य संग्रह आया है। उनकी कविताएं गांव और शहर के द्वंद्व के साथ नारी के विभिन्न रूपों की अभिव्यंजना करती हैं। उनकी कविताएं मानवता को संपूर्णता और अखंडता में रेखांकित करती हैं।

अजय का कविता संग्रह ‘इन सपनों में कौन गाएगा’ शीर्षक से प्रकाशित है। समकालीन कविता में अजय की कविताओं की अपनी पहचान है। अजय की कविताओं में पहाड़ी जीवन की दुश्वारियों की ही पीड़ा नहीं है, अपितु भौतिक और व्यक्तिगत प्रगति के साथ जीवन में जो सकारात्मक परिवर्तन अपेक्षित है, उसकी बेचैनी  भी उनकी कविताओं में मुखरित होती है। गुरमीत बेदी का ‘मेरी ही कोई आकृति’ (2017) की कविताओं में प्रकृति प्रेम और मानवता का समन्वित रूप परिलक्षित होता है।

-डा. हेमराज (अगले अंक में जारी)

मीटू के आईने में पुरुष विमर्श

राजेंद्र राजन, मो.-8219158269

विमर्श-2 

पिछले अंक का शेष भाग- वर्तमान साहित्य के कहानी महाविशेषांक से खूब चर्चा में आए रवींद्र कालिया ने जब वागर्थ और नया ‘ज्ञानदेय’ का संपादन संभाला था तो ये पत्रिकाएं लोकप्रियता के शिखर पर थीं। कालियाजी पत्रिका को पापुलर बनाने की कला में सिद्धहस्थ थे। मगर विवादों के केंद्र में रहने वाली ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव इस कला को नहीं साध पाए। मगर वे अपने धारदार संपादकीयों के कारण बार-बार विवादों की सुर्खियां बटोरते रहे। पराग मांदले की कहानी पर लिखने के लिए जब मैं उत्तेजना से सराबोर हुआ तो सोचा क्यों न पराग से संपर्क साधा जाए। उनका मन टटोला जाए। दूरभाष पर बातचीत के बाद पराग ने कहा है कि मेरी इस कहानी ने पुरुषों की बजाय स्त्रियों को अधिक विचलित किया। उन्हें यह बात कतई गंवारा नहीं थी कि देह उत्सव के उत्कर्ष पर पहुंच कर पुरुष का दार्शनिक होकर उससे अलग हो जाना वास्तव में स्त्री का अपमान है। यह बात चकित करती है कि पुरुष समाज तो स्त्री का मनमाने ढंग से भोग करता रहे, लेकिन जब कोई पढ़ी-लिखी व जागरूक स्त्री, जो विवेकशील व बुद्धिजीवी है, अपने निर्णय लेने में सक्षम है तो उसे पुरुष कैसे सहवास के अनमोल नैसर्गिक सुख या प्रतीति से वंचित रख सकता है। शायद पराग ऐसी प्रश्नाकुल व व्याकुल महिलाओं को अपने उत्तर से संतुष्ट नहीं कर पाए। वे लंबे समय तक ऐसी सुधी व ज़हीन महिला पाठकों की आलोचना के रॉडर पर बने रहे। प्रश्न यह है कि पराग ने इस लंबी कहानी को स्त्री की दृष्टि से देखने की बजाय पुरुष की दृष्टि से क्यों देखा? क्या यह किसी पूर्वाग्रह का परिणाम है? वास्तविकता यह है कि पितृसत्ता व पुरुष वर्चस्व की मानसिकता में जीने वाली स्त्री यह कभी स्वीकार नहीं कर सकती कि पुरुष सदियों से बनी बनाई लकीर को भी ध्वस्त कर सकता है।

यह कहानी अस्वाभाविक व असहज अवश्य लगती है, पर अवास्तविक नहीं है। पराग की कहानी ने उस पारंपरिक नैरेटिव और मैटाफर को तोड़ा है जिसके धरातल पर स्त्री व पुरुष लेखकों ने असंख्य कहानियों की रचना की है। यानी पुरुष तो शोषक ही है और वह आगामी कई सदियों तक स्त्री का उत्पीड़न करता ही रहेगा। यह कहानी हमें एक और बिंदु पर सोचने के लिए बाध्य करती है कि अगर कानून और समाज में सेक्स के मामलों में पुरुष को ‘न’ कहने का अधिकार दिया है तो वह सेक्स की इच्छुक स्त्री को भी न कहने का अधिकार रखता है। आखिर पराग की कहानी है क्या? कहानी का नायक सागर एक अखबार में फीचर एडीटर है और नायिका काव्या उसकी सहयोगी। काव्या की दृष्टि में सागर एक ऐसा बुद्धिजीवी विचारशील व महिलाओं को मान-सम्मान देने वाला व्यक्ति है जो औरत को देह के पार की दुनिया को बारीकी से देखने, परखने की समझ-बूझ रखता है। सागर का समग्र व समूचा व्यक्तित्व काव्या के मन में रच बस जाता है और वह उसके मोहपाश की गिरफ्त में बंधी चली जाती है। यह अत्यंत स्वाभाविक, सहज क्रिया है जो किसी भी कुंवारी, संवेदशील स्त्री का गुण ही कहा जाएगा। काव्या के प्रति सागर का अनुराग अनुशासित है। व्यग्रता से कोसों दूर। स्त्री देह के मेनका रूपी आकर्षण से सर्वथा असंपृक्त। इसी कारण काव्या सागर के प्रति एक अलौकिक किंतु मन और शरीर से भी सागर के प्रति खिंची चली जाती है। एक परिस्थिति ऐसी भी आती है जब सागर की पत्नी दूसरे शहर में है और ये दोनों एक रात एक-दूसरे के करीब वर्जित फल चखने के करीब पहुंच जाते हैं, ‘जब मेरी छाती पर दुबके दो खरगोश आनावृत्त हुए तो सागर का स्तब्ध होकर बड़ी देर तक उन्हें देखते रहे। फिर बड़ी कोमलता से उनको अपनी हथेलियों से ढंककर आंखें बंद किए बहुत समय तक न जाने किस भाव में गुम रहे। सागर काव्य से संबोधित होते हैं, ‘तुम्हारा और मेरा यह जो रिश्ता है, वह इतना सुंदर, पवित्र और इतना मनोहारी है कि.. इससे आगे बढ़ना अनुचित होगा।’ काव्या विचलित हो उठती है।

सागर की बाहों में सर्वथा नग्न स्त्री का अहम चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाता है, ‘जीवन के पहले सहवास के दूवार पर आकर इस तरह अचानक बाहर जाना। मेरे भीतर की आकाश गंगाओं में लगातार विस्फोट हो रहे थे… मेरा तन, मन, मेरी आंखें सब झुलस रहे थे।’ सागर ने काव्या को शांत करने का प्रयास किया, ‘इससे आगे सिर्फ स्खलन है। मैं हमेशा इस रिश्ते के शिखर को अनुभव करना चाहता हूं, इसके स्खलन को नहीं, शिखर को पार करने के बाद खालीपन उसके बाद स्त्री का शरीर एक ऐसे राज्य की तरह हो जाता है जिसे जीता जा चुका है..’। पराग की यह कहानी कई स्तरों पर पाठक को विचलित करती है। उसकी संवेदना सागर के साथ न होकर काव्या के प्रति बलवती होती जाती है। यह कहानी भाषा व शिल्प के स्तर पर चकित करती है। सहज व सादगी से संपन्न भाषा में मनोभावों को व्यक्त करने की अनूठी कला। आज हम जिस कृत्रिम, जटिल, उबाऊ और मीडियाई प्रभाव से युक्त भाषा कहानियों में देख रहे हैं उससे पराग की कहानी पूरी तरह मुक्त है।                                        (जारी है)

पुस्तक समीक्षा : निकोलाई रेरिख को समर्पित काव्यांजलि

हिमाचल प्रदेश पुलिस सेवा के अधिकारी खुशहाल शर्मा का कविता संग्रह ‘जाहन्वी’ प्रकाशित हुआ है। यह काव्य संग्रह महान चित्रकार निकोलाई रेरिख को समर्पित है। वर्ष 2006 से काव्य लेखन कर रहे खुशहाल शर्मा परिचय के मोहताज नहीं हैं। प्रस्तुत काव्य संकलन उनकी पहली रचना है। खुशहाल शर्मा कहते हैं कि हिमाचल प्रदेश के नैसर्गिक सौंदर्य में रहकर कविताओं का प्रवाह स्वतः स्फुटित होता है, परंतु मेरी प्रेरणा के स्रोत रूस के महान चित्रकार निकोलाई रेरिख बने जो हिमालय के सौंदर्य से वशीभूत होकर मनाली के छोटे से गांव नग्गर में बस गए। खुशहाल शर्मा ने अपनी कविताओं में सम-सामयिक सामाजिक समस्याओं व शाश्वत मूल्यों को उजागर करने का प्रयास किया है। महान चित्रकार निकोलाई रेरिख एक कवि भी थे। उनकी कविताओं से संबंधित विषयों को छूने का कवि ने प्रयास किया है।

खुशहाल शर्मा की पुस्तकों के विक्रय से होने वाली आय को रेरिख मेमोरियल ट्रस्ट नग्गर को समर्पित किया जाएगा। इस कविता संग्रह में संकलित कविताएं एक विचारशील प्रबुद्ध व्यक्ति की सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इन कविताओं से स्पष्ट होता है कि यहां भावनाओं का सहज सरल प्रवाह है जो समकालीन चिंताओं और शाश्वत मूल्यों के प्रति हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं। अस्सी पृष्ठों के इस संग्रह में करीब 70 कविताएं हैं। आकार में कविताएं छोटी हैं और पाठकों को उबाऊ नहीं लगती हैं। भाषा सरल है और भावों की अभिव्यक्ति सहज है। पारनासुस प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स नई दिल्ली से प्रकाशित इस कविता संग्रह का मूल्य 145 रुपए है। आशा है यह पाठकों को पसंद आएगा।                                                                              -फीचर डेस्क


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