सियासी पहेलियां गुनगुनाईं

By: Jan 19th, 2022 12:05 am

सियासी पहेलियां फिर गुनगुनाने लगी हैं, चुनाव की तारीख पास आने लगी है। कुछ सत्ता की, तो कुछ विपक्ष की गरमाने लगी हैं। राजनीतिक एकता के प्रश्न पर इतराते स्वार्थ की एक बानगी मंडी में पंडित परिवार की पृष्ठभूमि को खंगाल रही है, तो कमोबेश हर विधानसभा क्षेत्र में टिकटार्थियों की नई पौध, नए समीकरणों की नींव खोद रही है। खानदान के तमगे लिए अनिल शर्मा जब भाजपा में आए, तो किसी को मालूम नहीं था कि गड्ढे ही गड्ढे परवान चढ़ेंगे और उसी जमीन को मापने की कोशिश में आशियाना फिर से समेटा जा रहा है। पूर्व मंत्री अनिल शर्मा के जनसंपर्क अभियान में उनके बेटे आश्रय शर्मा का आगमन, न तो अनहोनी घटना है और न ही किसी नए मुद्दे को जन्म दे रहा है। मंडी के शौर्य में जिस मंच पर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर विराजमान हैं, वहां पंडित सुखराम परिवार का रंग फीका होता रहा है और अंततः अनिल शर्मा को भाजपा में रहना न निगलते बनता है और न ही उगलते। जिस कर्णधार के रूप में कभी आश्रय शर्मा को भी कांग्रेस की उम्मीदवारी मिली, वह भी अब समेटी जा चुकी है, तो अब मसला केवल दादा-पोते की खुद्दारी का नहीं, बल्कि अनिल शर्मा की टोपी का भी है और इसके बदलने के अभिप्राय से जनसंपर्क का रास्ता अख्तियार हो रहा है। राजनीति की ऐसी ही पहेली में फंसे कांगड़ा-चंबा के सांसद किशन कपूर भी कुछ अनिश्चय की स्थिति में हैं।

 वर्तमान सरकार के अवतरण में जो शख्स वरिष्ठता के आधार पर एक वजनदार मंत्री था, उसे संसद में क्यों धकेला गया और फिर उसकी विरासत को छिन्न-भिन्न करने की वजह किसे वरदान देती रही, यह पहेली भी कम रोचक नहीं। ऐसे में आगामी विधानसभा चुनाव से पहले किशन कपूर को बतौर गद्दी नेता, खोया हुआ सम्मान लौटा दिया जाएगा या उनकी इच्छा या राजनीतिक संधि के तौर पर बेटे के सिर पर पार्टी हाथ रख देगी। बात यहां खत्म नहीं होती क्योंकि गद्दी राजनीति की सबसे बड़ी पहेली बने भाजपा के महामंत्री त्रिलोक कपूर की सियासी गणना इस वक्त उच्च शिखर पर है। किशन कपूर को पिछला संसदीय चुनाव न लड़ाया होता तो बतौर गद्दी नेता त्रिलोक कपूर अपनी क्षमता का सर्वोच्च प्रदर्शन कर रहे होते। इससे पहले त्रिलोक कपूर के हाथ में पालमपुर की कुंजी होते हुए भी सारी राजनीतिक पहेलियां इंदु गोस्वामी को मंच प्रदान करके भी हराती रहीं। पहेलियां यहां भी नहीं रुकीं और राजनीतिक प्रयास भी, लेकिन पालमपुर के सिर पर नगर निगम का ताज पहनाने वाले तमाम नेता नगर निकाय के चुनाव में धराशायी हो गए। यही पहेली मंडी संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में पार्टी की विजय पताका (?) को उखाड़ते रहे, तो यह किसके कर्म का फल माना जाए। पहेलियां सिर्फ भाजपा में नहीं, कांग्रेस के कुनबे में भी हैं।

 पार्टी के राज्याध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर का कार्यकाल पूरा होने के बाद कांग्रेस की बागडोर खुद में एक पहेली है, जबकि दूसरी ओर वीरभद्र की यादों का समागम पार्टी के एक छोर पर खड़ा है तो दूसरी ओर नए समीकरणों का गठजोड़ फिर से एक नई पहेली को गूंथ रहा है। चुनाव हारने के बाद कई बड़े कांग्रेसी नेता अपनी शिथिलता मिटा चुके हैं, तो अपनी-अपनी लकीर लंबी करने की फिराक में दूसरों की छोटी कर रहे हैं। हिमाचल में कांग्रेस के वजूद में आनंद शर्मा की पहेली शायद इस बार नहीं पूछी जाएगी, लेकिन पहेलियों के बाजार में सुखविंद्र सुक्खू का मूल्यांकन फिर से करवट ले रहा है। उधर भाजपा में टिकट कटने की खबरों ने नई पहेलियां रच दी हैं तो कई मंत्री सांस रोक कर अपने-अपने अर्थ निकाल रहे होंगे। बावजूद इसके रमेश धवाला सरीखे विधायकों ने खुद को पहेली न बनाने की सौगंध खा रखी है, इसलिए उनकी बेबाक टिप्पणियां कभी भी अपाहिज नहीं हुईं। हिमाचल में भाजपा का परिदृश्य अपने सफर की कहानी में कितना भी गोलबंद नजर आए, मगर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा जब तक अपनी पहेली को नहीं बूझ पाएंगे, आगे का सफर सिर्फ इशारे करता रहेगा। ऐसे में राज्य के प्रश्नों को केवल नई पहेलियों के मार्फत सुलझाया जाएगा या नई पहेलियां खड़ी की जाएंगी। मसलन नए जिलों का गठन करने की कवायद शुरू करके रहस्यवाद पैदा किया जाएगा या पूरे प्रदेश में सुशासन की रिक्तियां मुकम्मल की जाएंगी। जो भी हो, चुनाव से पूर्व पिछले सालों का हिसाब अगर सत्ता को देना है, तो विपक्ष को अगले पांच साल की महत्त्वाकांक्षा का खुलासा करते हुए सारी पहेलियों के कवच से बाहर आना ही श्रेयस्कर होगा।


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