आंदोलन खत्म, सियासत शुरू

By: Jan 19th, 2022 12:05 am

भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने किसानों की चुनावी सोच स्पष्ट की है। यह जरूरी भी नहीं है कि सभी किसान एक ही लीक पीटें और एक ही पक्ष में मतदान करें, लेकिन किसानों का मानस प्रभावित जरूर होता है। नरेश टिकैत ने सपा-रालोद गठबंधन को वोट देने की इच्छा जताई है। फिर छोटे भाई एवं भाकियू के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने उस पर स्पष्टीकरण जारी कर उसे ‘शुभकामनाएं’ और ‘शिष्टाचार’ करार दिया है। बात आई-गई हुई, लेकिन राकेश ने यह भी बयान दिया है कि विधानसभा में मजबूत विपक्ष के लिए योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर से चुनाव जीतना जरूरी है। क्या टिकैत ने अभी से तय कर लिया है कि उप्र चुनाव के बाद भाजपा विपक्ष में बैठेगी? क्या वह सपा गठबंधन की जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हैं? क्या किसान नेता आज भी अंशतः आंदोलित हैं और साथ-साथ परोक्ष राजनीति भी कर रहे हैं? किसानों के वोट पाने के लिए सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने, कुछ नेताओं के साथ, मुट्ठी में अन्न लेकर संकल्प किया है कि उनकी सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सुनिश्चित करेगी।

 किसानों को बीमा-पेंशन मुहैया कराए जाएंगे।  गन्ने का भुगतान 15 दिनों के भीतर ही कराया जाएगा। उन्होंने निःशुल्क बिजली, पानी देने का आश्वासन भी दिया है। उप्र चुनाव का फोकस किसानों पर भी केंद्रित किया जा रहा है। फिलहाल प्रयागराज में किसान-कुंभ का आयोजन जारी है। किसान लखीमपुर खीरी भी जाएंगे और अंततः 31 जनवरी को ‘वादाखिलाफी दिवस’ मनाते हुए आंदोलन की भावी रूपरेखा तय करेंगे। उप्र ही नहीं, पंजाब में तो खुद किसान नेताओं ने अपने राजनीतिक मोर्चे तैयार कर चुनावी लड़ाई की भी घोषणा की थी। अब वे भी चुनावी मैदान में मौजूद और सक्रिय हैं। आंदोलन के दौरान किसानों को वाममोर्चे ने स्पष्ट समर्थन दिया था। उनके पार्टी झंडे लहराते हुए देखे गए थे। वामपंथी सांसद रहे नेता भी आंदोलन के दौरान प्रमुख रूप से सक्रिय थे। किसान आंदोलन कभी भी अराजनीतिक नहीं था, लेकिन टिकैत सरीखे नेता लगातार दावा करते रहे कि यह सिर्फ किसानों का आंदोलन है। राजनीति से इसका कोई सरोकार नहीं है। उस दौर में सपा-रालोद के साथ-साथ कांग्रेस-बसपा ने भी किसानों के पक्ष में प्रलाप किए थे। आज चुनाव में भी यह मुद्दा बनाने की कोशिश जारी है।

 हालांकि सभी पार्टियों का यथार्थपरक अतीत सवालिया और दागी रहा है। एमएसपी का मुद्दा ही लें। इस व्यवस्था की घोषणा तब की गई थी, जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। एमएसपी आज तक एक सांकेतिक व्यवस्था है, जिसका लाभ 8-10 फीसदी किसानों को ही मिल पाता है। शेष किसान बाज़ार के हवाले हैं, नतीजतन गरीब और कर्ज़दार हैं। भारत सरकार में पहली बार यह लिखित आश्वासन दिया गया है कि विशेषज्ञों और किसानों की एक कमेटी एमएसपी की कानूनी गारंटी पर विमर्श करेगी। प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर कृषि के तीनों विवादास्पद कानून खारिज किए गए। किसान आंदोलन को समाप्त हुए अभी एक ही माह गुज़रा है। पहले संसद सत्र जारी था। फिर पांच राज्यों के चुनाव आ गए। यह वक़्त वादाखिलाफी का नहीं माना जा सकता। सरकार को कई स्तरों पर सोचना और प्रारूप तय करना होता है। संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधि असहिष्णु होकर वादाखिलाफी का आंदोलन शुरू करने के बजाय भारत सरकार के साथ बातचीत करें। सैद्धांतिक तौर पर सरकार के साथ सहमति बन चुकी है, राज्य सरकारों को आपराधिक केस खारिज करने की हिदायतें दी जा चुकी हैं, मृतक किसानों के परिजनों के लिए मुआवजा राशि तय की जा चुकी है, तो फिर भी वादाखिलाफी की बात करना सियासत के अलावा कुछ भी नहीं है। एमएसपी भी भारत सरकार की एजेंसी तय करती है। राज्य सरकार के स्तर पर फसलों की खरीद बेहद सीमित होती है। फिर कोई भी राज्य सरकार एमएसपी कैसे सुनिश्चित कर सकती है?


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