भविष्य की हिमाचली भाषा में ‘तूर’ की शायरी

By: Jan 2nd, 2022 12:07 am

‘अक्खरां दे दीये’ नाम से ही किताब की प्रतिबद्धता अपने आचरण की समीक्षा कर देती है। हिमाचली भाषा के उद्गम पर अनुवाद की वैतरणी पार करते कई संगम व स्रोत दिखाई देते हैं। यहां कोई भाषायी नाका नहीं, बल्कि उर्दू शायरी की समीक्षा उस बोली में हो रही है, जो हिमाचली भाषा को समृद्ध करती ऊर्जा के मानिंद भविष्य को रेखांकित करती है। उर्दू के चर्चित शायर कृष्ण कुमार तूर यों तो अपनी रचनाओं के धनी हैं, लेकिन यहां उनके ही शे’र जब पहाड़ी बोली या यहां ‘कांगड़ी’ में अवतरित होते हैं, तो भाव की भाषा मुक्कमल हो जाती है। यह कमाल और यह श्रेय हिंदी की श्रेष्ठ कवयित्री, कहानीकार व शायर चंद्र्ररेखा डढवाल को जाता है कि उन्होंने ‘तूर’ साहब की बेहतरीन 63गज़लों को भविष्य की हिमाचली भाषा के रूप, स्वरूप, शिल्प, कोमलता, बौद्धिकता, काव्यात्मकता, नवीनता और रूह से जोड़ दिया है।

‘अक्खरां दे दीये’ दरअसल भाषायी संगम पर एक बोली को भाषा में निरूपित कर रही है और पुस्तक के अंतिम पड़ाव तक आते-आते यह प्रमाणित हो जाता है कि ‘हिमाचली भाषा’ को अगर अभिव्यक्ति की सहजता से संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने तक पहुंचाना है, तो शब्दार्थों की व्यापकता, शिल्प व्यवस्था तथा कथ्य की विविधता को अन्य भाषाओं के मुकाबले खड़ा करना होगा और चंद्ररेखा डढवाल सरीखे हिमाचली लेखकों को अपनी-अपनी विधाओं व सरोकारों से जमीन की बोलियों की प्रांजलता, सरलता व तरलता को नए संदर्भों में उंडेलना होगा। ‘मैं जाह्लू भी दिक्खेया उसदे पासे ते, इन्हां अक्खीं जो इक इक मंजर याद रेहा’ को पढ़कर भाव अगर उर्दू की जमात से कहीं आगे हमारे दिल के करीब आ जाए, तो इस अनुवाद की रूह से रूबरू मंजर में कहीं मूल रचयिता ‘तूर’ भी धन्य हो जाते हैं। पहाड़ी ़गज़ल को ‘इत्थू ते निकला दियां हन हुण दिसां चौईं पासैं, एह् कुस छपरे दा लंगीणा पेया फिरी उसते बाद’ जैसी छान्दित विधा में सशक्त होते देखना सुखद लगता है। ़गज़ल के निर्माण में ‘चौईं बक्खैं जमाने च खबरां तुहाडियां हन (23), खुशबुआं जो लोड़ी था दरवाजा कदेया (27) या खिड़दियां प्रीता दियां कलियां हस्दे मूंहों पर, एह् मौसम तां कुछ कुछ अंदर लगदा है’ जैसे शब्दों से पिरो कर एक नई दिशा मिलती है। उर्दू ़गज़ल की रूह का रूपांतरण जिस करीने से सजाया गया है, उससे एक नया शब्द सौष्ठव उभरता है तथा भाव अपनी मौलिकता में पाठक के नजदीक आ जाते हैं।

उर्दू के ‘दहलीज पे’, ‘दुआ’ या ‘आंसू निकल जाने’ जब मातृ बोली में आकर ‘देह्ली पर’, ‘अरजां’ या ‘अथरू बगी जाणे हन’ बन जाते हैं, तो भाषायी स्पंदन पैदा होता है। इस किताब में कई डुबकियां हैं, तो धाराओं में बहते समंदर भी हैं। ़गज़ल के समीप ़गज़ल को पहुंचाते हुए चंद्ररेखा डढवाल भाषा की समानांतर रेखाओं में कलिष्टता को मिटा देती हैं, इसलिए कहीं-कहीं उर्दू का ‘रंक’, पहाड़ी के ‘रंक’ का जुड़वां हो जाता है, तो कहीं तकाज़ा, तकाजा हो जाता है। उर्दू के समकक्ष पहाड़ी भाषा का टिक पाना इस पुस्तक की प्रासंगिकता बढ़ा देता है, तो हिमाचली भाषा के आरोहण में क्षुद्रता अपनाने का बहरूपियापन भी खंडित होता है। एक बानगी, ‘सामने आता है न दिखाई देता है, दूर से बस एक शोर सुनाई देता है’ को हिमाचली प्रस्तुति, ‘सामणे औंदा है न दिखाई दिन्दा है, दूरे ते बस इक शोर सुणाई दिन्दा है’ या ‘हमने कुछ दिया मिला कुछ नहीं, मैं बिछड़ कर भी उससे जिंदा हूं’ के सामने ‘असां तां कुछ दित्ता मिलेया कुछ नैईं, मैं बिछड़ी कैं भी उसते ज्यून्दा हां’ कितना प्रभावशाली हो जाता है, यह इस किताब का सुकून है। किताब में अनुवाद की पराकाष्ठा, ‘जान हल्कान कर रहे हैं क्यों’ (पृष्ठ 117) का ‘जान फाइया च पा कर दे हन कैसजो’ या ‘मेरी जाती की गिरह खुलती जाती हैं’ का, ‘मेरी मैं दियां गट्ठीं खुलदियां जांदियां हन’ जैसे प्रयोग से निकलना परिमार्जित करता है। पुस्तक के माध्यम से उर्दू सीखते हुए पहाड़ी भाषा भी परिमार्जित हो रही है। कभी-कभी लगता है कि पुस्तक में उर्दू का शे’र पहले आया या यह भी पहाड़ी बोली का पीछा कर रहा है। ‘भेद ही कुछ देया था कोई बोलेया नीं, उसजो दिक्खदेया होयां भी मैं दिक्खया नीं’ (पृष्ठ 51 पर)।

जमीनी भाषा की व्युतपत्ति, भाषा की पवित्रता, मर्यादा, सहजता-सरलता चुनते हुए चंद्ररेखा डढवाल मूल रचना के साथ एक अलग हिमाचली भाषा का ऐसा संसार रचने में कामयाब हो जाती हैं, जहां हर शे’र पर मुकर्रर-मुकर्रर कहना पड़ेगा। अनुवाद की वज्रता में चंद्ररेखा सहजता से ‘किसी के हिज्र’ को ‘किसी के बजोगे’ या ‘है तारी खुद फरामोशी कुछ ऐसी’ को ‘हण है छाइयो अप्पु पर बेख्याली अदेही’ में बदल कर समरूप बना देती हैं तो पृष्ठ 77 पर अंकित कृष्ण कुमार तूर की गज़ल को पहाड़ी बोली का सबसे समानुपातिक प्रतिनिधित्व सौंप देती हैं। इसगज़ल के हर शे’र में हिमाचली भाषा की ऊंचाई कुछ यूं मिल रही है, ‘सुकी गया कैं दिले दा समुन्दर कुछ तां लिख, कियां टुट्टेया है मेरा अन्दर कुछ तां लिख।’

‘अक्खरां दे दीये’ पढ़ते-पढ़ते पाठक को दोहरा लाभ होता है। वह उर्दू के शे‘र पढ़ता-पढ़ता अपनी मातृ बोली या हिमाचली भाषा के नूर पर खुद को बराबरी पर देखता है। शायरी के उत्थान में योगदान करते हुए यह किताब बेशकीमती हो जाती है, लेकिन इसकी प्रक्रिया तथा संदर्भों में हिमाचलीगज़ल कैसे अपना शृंगार करती है, इसको लेकर एक विस्तृत विवरण भी संलग्न होता तो भाषा के सफर के संबोधन भी मिलते।

-निर्मल असो

पुस्तक का नाम : अक्खरां दे दीये

मूल लेखक : कृष्ण कुमार तूर

अनुवाद : चंद्ररेखा डढवाल

प्रकाशक : देस राग प्रकाशन, धर्मशाला

मूल्य : 170 रुपए


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