छतरी-टोपी और नशा निवारण शपथ

By: Jan 18th, 2022 12:05 am

मझोले बाबू, बड़े बाबू के लेपटॉप में पेनड्राईव फंसाते हुए बोले, ‘‘सर! सेंट परसेंट सक्सेस है। ऑनलाईन नशा निवारण शपथ समारोह में सभी प्रतिभागियों ने उसी तरह सच्चे मन से नशा न करने कसम खाई है, जैसे माननीय सदन में पद और गोपनीयता की सौगन्ध खाते हैं। हमारा लक्ष्य एक लाख लोगों को शपथ दिलाने का था; लेकिन ़करीब डेढ़ लाख ने नशा निवारण की शपथ ली है।’’बड़े बाबू अर्थात् सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग के निदेशक ने अभी उम्र के तीसवें साल में ़कदम रखा ही था। आईएएस थे, इसीलिए उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता थी कि वे उस किसी भी सरकारी महकमे में बड़े बाबू हो सकते थे, जहां सरकार उन्हें भेजती। पोस्टिंग चाहे प्राईज़ होती या पनिशमेंट। यूँ भी बड़े बाबुओं की पोस्टिंग उनकी परफॉर्मेंस पर नहीं, खादी भटकौंहों की कृपा पर निर्भर करती है। भले उन्हें नए महकमे की ़फारसी आती हो या नहीं। उन्हें आईएएस की परीक्षा पास करने के बाद जो एबीसी सिखाई जाती है, वे उसे तोते की तरह बोलते हुए पूरी नौकरी निकाल सकते हैं।

बड़े बाबू ने पूछा, ‘‘आपको कैसे पता कि सक्सेस सेंट परसेंट है? हो सकता है सौगन्ध खाने के बाद लोग चरस या चिट्टा पी रहे हों।’’ मझोले बाबू, जिन्होंने अपनी सारी नौकरी बड़े बाबुओं को चासनी में डुबोते और फाइलें इधर-उधर करते हुए निकाल दी थी, हँसते हुए बोले, ‘‘जनाब! आप तो ़खाम़खाह शक करते हैं। कुछ साल पहले तक जब ट्रांसपोर्ट सिस्टम इतना विकसित नहीं था, सैंकड़ों मील दूर नौकरी करने गए कुछ लोग साल में एकाध बार अपनी छतरी-टोपी घर भेज देते थे और बदले में उन्हें बाप बनने का तार मिलता था। अगर टोपी-छतरी भेजने से लोग बाप बन सकते थे तो क्या ऑनलाईन शपथ लेने वाले नशा करना नहीं छोड़ सकते?’’बड़े बाबू बोले, ‘‘कहते तो आप ठीक हैं। अब वैसे भी विज्ञान का युग है। कई चीज़ें तो सोचने से ही हो जाती हैं। हाँ, ज़रा यह तो बताएं हमारी नशा निवारण की मुहिम कैसी चल रही है।’’ मझोले बाबू अपना चश्मा ठीक करते हुए बोले, ‘‘जनाब! पता नहीं हमारी तमाम कोशिशों के बाद भी अभी तक उन एनजीओ ने काम करना क्यों बंद नहीं किया, जिन्हें हम केन्द्र सरकार से आने वाली ग्रांट के लिए भी साल भर से कोई चिट्ठी इशू नहीं कर रहे। राज्य सरकार ़खुद तो कोई ग्रांट देती नहीं। पता नहीं कैसे सरवाइव कर रही हैं? बेव़कू़फों ने हमारा दस परसेंट भी अड़ा रखा है।’’ बड़े बाबू फुसफुसाते हुए बोले, ‘‘ज़रा धीमे बोलिए। आप उन्हें बबुआनी अखाड़े में पेलते रहिए। फिर देखिए कैसे आपके पीछे भागते हैं। उन्हें शायद अन्दाज़ा नहीं कि पहलवानी अखाड़े में जो दंड पेलता है, पसीना केवल उसे ही आता है।

 जबकि बबुआनी अखाड़े में दंड बाबू पेलता है और पसीना किसी और को आता है। आप यहाँ शिमला में दंड पेलिए और देखिए ये लोग छः ज़िलों में भरी ठंड में कैसे पसीना-पसीना होते हैं। पिछली वन-टू-वन मीटिंग में चार बार पूछा था उनसे कि तुृम्हारे इन पुनर्वास केन्द्रों का बजट कितना है? लेकिन स्साले! इतने हरामी हैं कि एक बार भी नहीं बताया।’’ मझोले बाबू खीसें निपोरते हुए बोले, ‘‘हें, हें, हें……जनाब बजा ़फरमाते हैं। वैसे यह पता तो हम यहाँ अपनी ़फाइलें खोलकर भी लगा सकते हैं। पर हमें सि़र्फ ़फाइलों से खेलना अच्छा लगता है। पता नहीं सरकार क्यों नशे की प्रिवेंशन स्कीमें चला रही हैं। जबकि ध्यान केवल ट्रीटमेंट पर होना चाहिए। प्रिवेंशन में कुछ ही लोगों को रोज़गार मिलता है। जबकि उपचार निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। पूरी तरह रोकथाम लागू होने पर नशा नहीं बिकेगा तो ट्रीटमेंट किसका होगा? बार-बार रिलेप्सेज़ होंगे तभी पुनर्वास केन्द्रों और अस्पतालों के बेड भरे रहेंगे। दवाइयाँ लगेंगी, बिकेंगी। बेचारे डॉक्टर, नर्स, काऊँसिलर, अटेंड व़गैरह को रोज़गार मिलेगा। स्कीमें चलेंगी तभी हमारा कमीशन भी चलेगा।’’ कमीशन की बात सुनते ही बड़े बाबू प्रदेश में चल रहे अभियान से हो सकने वाली संभावित परसेंटेज की गणना में उलझ गए।

पी. ए. सिद्धार्थ

लेखक ऋषिकेश से हैं


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