चंबा के सुप्रसिद्ध दिवंगत साहित्यकार

By: Apr 24th, 2022 12:05 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -11

विमर्श के बिंदु

  1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
  2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
  3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
  4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
  5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
  6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
  7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
  8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
  9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
  10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
  11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

अशोक दर्द, मो.-8219575721

जो रचेगा, वही बचेगा…। यह एक कहावत नहीं, यथार्थ है। शब्द को ब्रह्म कहा गया है, शब्द कभी मरता नहीं है। रचे हुए शब्द पीढि़यों को आलोकित करते रहते हैं और उनका मार्गदर्शन करते रहते हैं। जी हां…मैं ऐसे ही शब्द साधकों की बात कर रहा हूं जिन्होंने जिला चंबा के साहित्यिक परिदृश्य में अपने शब्दों के आलोक से पीढि़यों को आलोकित करने का प्रयास किया है। बेशक वे अब इस दुनिया में नहीं हैं, परंतु उनके द्वारा रचे गए शब्द सदैव दैदीप्यमान रहेंगे और पीढि़यों को आलोकित करते रहेंगे। उनका अमूल्य मार्गदर्शन पीढि़यों को मिलता रहेगा। जिला चंबा के इन सभी दिवंगत शब्द साधकों की बात करें तो कुछ शब्द साधक उभर कर सामने आते हैं जिनका साहित्यिक अवदान साहित्यिक जगत के लिए अमूल्य एवं अविस्मरणीय हैः

रामपाल अवस्थी

सबसे पहले हम भटियात क्षेत्र से संबंध रखने वाले स्वर्गीय रामपाल अवस्थी जी का जिक्र करते हैं। इनका नाम साहित्य जगत में सदैव अविस्मरणीय रहेगा। इनका जन्म भटियात के छोटे से गांव डूंगरु में  25 मई सन् 1952 को हुआ। इनकी माता जी का नाम श्रीमती कमला देवी और पिता जी का नाम लक्ष्मी चंद शर्मा था। अवस्थी जी का घर का नाम रमेश अवस्थी था, परंतु अपनी बुद्धि प्रवीणता के कारण वे रामपाल अवस्थी के नाम से साहित्य जगत में विख्यात हुए। स्वर्गीय श्री रामपाल अवस्थी जी की अनेक पहाड़ी-हिमाचली व हिंदी कविताएं प्रसिद्ध हुई, जिनमें से हिमाचली व हिंदी कविताएं ‘मधाणी’ और ‘जीणा था पर कियां जीणा’, ‘बस्ते का बोझ’ इत्यादि अनेक कविताएं उस जमाने के पाठकों द्वारा सराही गई। उन्होंने लगभग 32 वर्ष की आयु से लिखना प्रारंभ किया और जीवन के अंतिम पड़ाव तक निरंतर लिखते रहे। 5 दिसंबर 2010 को इनका देहावसान हो गया। रामपाल अवस्थी एक विख्यात पत्रकार भी रहे। सामाजिक सरोकार हों या रूढि़यों के विरुद्ध अपनी पक्षधरता, इनकी बेबाकी इनकी कविताओं की धार में सदैव  तीक्ष्ण रही।

जयकरण मस्ताना

स्वर्गीय जयकरण मस्ताना जी भी चंबा के भटियात क्षेत्र से संबंधित हैं। इनका जन्म गांव के एक साधारण से परिवार में 29 नवंबर 1947 को हुआ। इनके पिता का नाम श्री खजाना राम था जो मिस्त्री का काम करते थे। इनका गांव ठुकराला डाकघर गरनोटा तहसील सियुंता जिला चंबा है। यह एक भूतपूर्व सैनिक रहे हैं। उन्होंने 1962 में सेना में ज्वाइन किया और 1970 में बोर्ड पेंशन द्वारा वापस आ गए। उसके बाद इन्होंने इंडियन पोस्टल सर्विस में बतौर ब्रांच पोस्ट मास्टर गांव गरनोटा में कई वर्षों तक अपनी सेवाएं दीं तथा वहीं से सेवानिवृत्त हुए। इनके दो पुत्र तथा दो पुत्रियां हैं। एक बेटा कॉलेज में प्रोफेसर है तथा दूसरा अर्धसैनिक बल में डिप्टी कमांडेंट है। एक अगस्त 2019 को यह परलोक चले गए। जयकरण मस्ताना एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार रहे हैं। यह कविता के साथ-साथ नाटक, नृत्य और अन्य कई मंचीय कार्यक्रमों में विभिन्न मंचों पर अपनी सक्रिय भागीदारी निभाते रहे हैं। इनकी कविताओं की तासीर की बात करें तो सामाजिक सरोकार इनकी रचनात्मक विशेषता रही है। जहां तक किसी पुस्तक प्रकाशन की बात है, वह तो नहीं है परंतु कई पत्र-पत्रिकाओं में इनका साहित्य विशेषकर कविताएं बिखरी पड़ी हैं।

नंदेश कुमार

नंदेश कुमार को हिमाचल प्रदेश की हिंदी कविता के प्रस्थान एवं उत्थान बिंदुओं में से एक बिंदु माना जा सकता है। इसकी पुष्टि भाषा एवं संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी स्मारिका’ करती है। नंदेश कुमार सन् 1960 के बाद के कवियों में बहुत ही सक्रिय कवि रहे हैं जो सन् 1980 तक निरंतर कविता लेखन में सक्रिय रहे हैं। इनकी कविता में कस्बाई जज्बात हैं, प्रकृति चित्रण है, पात्रों के माध्यम से की गई सामाजिक बेचैनियों पर बातचीत है, अलग हटकर बिम्बों की रचना इनकी कविताओं में देखने को मिलती है। यह अपने समय के ऐसे रचनाकार रहे हैं जिनकी कविताएं हिमाचल की पत्रिकाओं के अलावा दिनमान, साप्ताहिक हिंदोस्तान जैसी राष्ट्रीय पत्रिकाओं में छपती रही हैं।

चंबा में रहते हुए नंदेश कुमार के साथ चंबा में ही बहुत से रचनाकार सक्रिय रहे हैं जिनके नाम हैं अरविंद रंचन, अवतार सिंह एनगिल, देवेन्द्र बड़ौत्रा, अजीत सिंह, विजय रंचन, हरिप्रसाद सुमन, हरीश शर्मा आदि। यह ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने अपने लेखन से पंजाब विश्वविद्यालय में कई बार अपने लेखन का परचम लहराया है। नंदेश कुमार की रचनाएं अभी तक पुस्तक का रूप नहीं ले पाई हैं। उनका लेखन इधर-उधर पत्र-पत्रिकाओं में बिखरा फैला है या फिर संपादित पुस्तक में संग्रहित है। इसी तरह अपना लिखित साहित्य व लेख इधर-उधर फैला हुआ छोड़ कर 68 वर्ष की आयु में वर्ष 2008 में हम सबसे विदा लेकर साहित्य जगत में एक शून्य छोड़ गए।

भगत राम शास्त्री

भगत राम शास्त्री जी का जन्म ग्राम मिल्हा परगना उदयपुर डाकघर सिंगी जिला चंबा हिमाचल प्रदेश में 13 जून 1924 को हुआ। इन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर से शास्त्री की परीक्षा पास की तथा 28 वर्षों तक शास्त्री के पद पर चंबा के विभिन्न स्कूलों में अध्यापन करते रहे। तत्पश्चात ग्राम पंचायत सिंगी के 5 वर्षों तक प्रधान पद पर भी उन्होंने कार्य किया।

15 वर्षों तक चंबा की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था लोक कला मंच के अध्यक्ष पद पर भी आसीन रहे। साहित्य की विभिन्न विधाओं में शास्त्री जी का लेखन निरंतर चलता रहा। इनकी पहाड़ी तथा हिंदी की कई रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं।  इनकी रचनाओं का संग्रह उपलब्ध नहीं है। 11 सितंबर 2007 को यह अपनी सांसारिक यात्रा पूरी कर परलोक चले गए। इनका साहित्यिक एवं सांस्कृतिक योगदान सदैव अमूल्य रहा है।

-(शेष अगले अंक में)

मौलूराम ठाकुर ने भी साहित्य सृजन किया

शेर सिंह, मो.-8447037777

-(पिछले अंक का शेष भाग)

कुल्लू जिले से कुछ और लेखकों, इतिहासकारों, ग्रंथ लेखकों, पहाड़ी भाषा-बोली के विद्वानों का नाम लोग आदर से लेते हैं। ऐसे विद्वान लेखकों में स्व. मौलूराम ठाकुर जी प्रमुख हैं। स्व. मौलूराम ठाकुर कुल्लू जिले की लग घाटी के गांव भल्याणी से थे। उनका जन्म 18 जून 1928 को हुआ था। उन्होंने भी लेखन के क्षेत्र में कुल्लू का नाम रोशन किया है। मौलूराम ठाकुर पहाड़ी विशेषकर कुल्लू लोक संस्कृति के पुरोधा थे। वे पहाड़ी भाषा के प्रबल समर्थक थे। हिंदी-अंग्रेजी-पहाड़ी शब्दकोश से लेकर उन्हें पहाड़ की संस्कृति-संस्कार, रीति-रिवाज, भाषा-बोली का गहरा ज्ञान था। लेखन में उनका पसंदीदा विषय इतिहास, लोक जीवन, लोककथाएं, ग्रंथ, पहाड़ी भाषा में व्याकरण आदि रहा। उनके द्वारा लिखी पुस्तकों की सूची बहुत लंबी है। उनकी विद्वता का प्रमाण उनकी लगभग 15 विभिन्न विषयों पर हिंदी व अंग्रेजी में लिखी पुस्तकें हैं।

उन्होंने कुल्लू दशहरा और इसकी संस्कृति, परंपराएं, प्रचलन, मान्यता पर अधिकारपूर्ण तथा तथ्यात्मक रूप में वर्णन किया है। इनकी लिखी और सराही गई पुस्तकों के नाम हैं ः ‘हिमाचली’, ‘मिथ्स, रिचुअल्स एंड बिलीफ्स इन हिमाचल प्रदेश’, ‘कुल्लू के सरोवर’, ‘पहाड़ी भाषा’, ‘मनोरंजक पहाड़ी लोककथाए’ं, ‘कुल्लू दशहरा और देव परंपराएं’, ‘हिमाचल के लोक नाट्य और लोकानुरंजन’, ‘हिमाचल में पूजित देवी-देवता’ इत्यादि। वे भाषाविद् थे। उन्होंने चीनी और तिब्बती भाषा में डिप्लोमा किया हुआ था। 13 जुलाई 2019 को 91 वर्ष की आयु में वे हमारे बीच में नहीं रहे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कुल्लू की  संस्कृति-संस्कार उनकी आत्मा में बसते थे। बल्कि यूं कहना चहिए कि उनकी आत्मा में पहाड़ी संस्कार और संस्कृति वास करती थी। उनके बेटे बालकृष्ण ठाकुर जी से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि उनके पिता अक्सर पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में ही खोए रहते थे। लिखने के लिए उनका कोई विशेष समय अथवा दिनचर्या नहीं थी। जब भी उनको कुछ सूझता था, तो वे लिखने बैठ जाते थे। लेकिन उनका अधिक समय लिखने-पढ़ने में ही बीतता था। शारीरिक रूप से अस्वस्थता के बावजूद वे 2016 तक लगातार लेखन कार्य में लगे रहे। 2016 के बाद लिखना लगभग छूट गया था। वे पुस्तकों को पढ़ने के लिए लोगों को प्रेरित भी करते थे। पुस्तकालय स्थापित करने हेतु वे बहुत गंभीर थे। उन्होंने ‘देवप्रस्थ कला संगम’ संस्था भी स्थापित की थी। वे हिमाचल प्रदेश भाषा विभाग में कार्यरत थे।

उसी विभाग से उप निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें साहित्य अकादमी दिल्ली का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा भाषा-संस्कृति विभाग का पुरस्कार, भाषा अकादमी का पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कार व सम्मान उन्हें प्राप्त हुए हैं। उनके परिवार में छोटे पुत्र बालकृष्ण ठाकुर यूको बैंक से प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं जबकि बड़ा बेटा डा. बलदेव ठाकुर हिमाचल प्रदेश स्वास्थ्य विभाग से निदेशक के पद से रिटायर हुए हैं। इनकी बेटी श्यामा वर्मा हिमाचल भाषा एवं संस्कृति-कला विभाग में रिसर्च स्कॉलर रही हैं। मेरा अपना मानना है कि लेखक और साहित्यकार में अधिक अंतर नहीं होता है। साहित्यकार नए साहित्य का सृजन करता है। अपनी कल्पना शक्ति अथवा यथार्थ का जिस सूक्ष्म मनोभावों सहित किसी स्थिति, परिस्थिति का चित्रण, सृजन करता है, उससे पाठक अभिभूत हो उठता है। इतिहासकार पुराने किस्सों, लोककथाओं, घटनाओं का वर्णन करते हुए किसी साहित्यकार, कलाकार, कोई वीर पुरुष, किसी नारी के जीवन संघर्षों का वर्णन करता है। साहित्यकार इतिहास बन जाता है। जबकि इतिहासकार साहित्यकार को अपनी कलम के माध्यम से जिंदा बनाए रखता है। साहित्यकार को हर कोई पढ़ता है। उसका साहित्य पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से सर्वत्र सुलभ रहता है। इतिहासकार, ग्रंथ लेखक अकादमिक, शिक्षण संस्थाओं तक ही सीमित रह जाता है। साहित्यकार की तुलना में उसका पाठक वर्ग उतना व्यापक नहीं होता है।

स्व. मौलूराम ठाकुर जी हिमाचल प्रदेश विशेषकर कुल्लू जिले के एक विशिष्ट लेखक एवं पहाड़ी भाषा, संस्कृति, इतिहास के विशेषज्ञ और भाषाविद रहे हैं। अपने अवसान के समय तक वे विद्यार्थियों, शोधकर्ताओं, इतिहासकारों के लिए उत्सुकता, जिज्ञासा तथा प्रेरणापुंज बने रहे हैं। डा. विद्या चंद ठाकुर भी कुल्लू के पास बदाह गांव से थे। वे हिमाचल भाषा एवं संस्कृति विभाग से उप निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। उन्होंने पत्रिका का संपादन कार्य भी किया था। लेकिन साहित्य सृजन अथवा इतिहास इत्यादि लेखन की दिशा में अधिक नहीं लिखा है। उनकी लिखी केवल तीन पुस्तकें हैं : सुनयना के जनपथ, मंडाव्य प्रभा एवं हिमाचल प्रदेश के स्थानिक नामों की व्युत्पत्ति। नवंबर 2017 में वे नहीं रहे।

नवल ठाकुर भी कुल्लू जिले के दिवंगत साहित्यकारों में शामिल किए जा सकते हैं। उनकी कुछ कविताएं बहुत लोकप्रिय हई हैं। उन्होंने साहित्य का सृजन अधिक नहीं किया है। लेकिन जो भी लिखा है, उनका अपना एक पाठक वर्ग है। हालांकि वे राजनीति में ही अधिक सक्रिय रहे हैं। कुल्लू से कुछ कवि ऐसे भी रहे हैं जो दिवंगत हो चुके हैं। पुस्तक रूप में इनका कोई योगदान नहीं रहा। वे स्थानीय स्तर पर कवि मंचों तक ही सीमित रहे।

पुस्तक समीक्षा : हिमाचल की नवीनतम जानकारी देती पुस्तक

हिमाचल के इतिहास, भूगोल, राजनीति, संस्कृति व आर्थिकी की नवीनतम जानकारी चाहिए तो रचना गुप्ता की किताब ‘देवधरा हिमाचल प्रदेश’ प्रस्तुत है। रचना गुप्ता दैनिक जागरण की पूर्व संपादक (हिमाचल) हैं तथा आजकल हिमाचल प्रदेश लोक सेवा आयोग की सदस्य हैं। इस किताब में प्रदेश के सभी विषयों पर अद्यतन जानकारी दी गई है। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों तथा हिमाचल में रुचि रखने वाले लोगों के लिए यह किताब बेशकीमती है। हिमाचल एक नवजात से सफल राज्य की परिभाषित अर्हताओं के मानकों पर किन-किन क्षेत्रों में खरा उतरा है, इसकी क्या-क्या उपलब्धियां हैं, जो आमजन को लुभाती हैं और आगे भी सही दिशा में मजबूत इरादों से यात्रा शुरू करने के लिए वह आत्मविश्वास से कहां तक लबरेज है, इसको वस्तुपरकता के साथ परखना ही प्रस्तुत पुस्तक का लक्ष्य है। इसमें हिमाचल की पचासवीं वर्षगांठ की महत्ता को रेखांकित करते हुए उसकी नैसर्गिक, अर्जित विशेषताओं और उपलब्धियों का एक तटस्थ विश्लेषण किया गया है। दस अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में हिमाचल के अतीत, राज्य की रचना, समृद्धि, पर्यटन के विकास, ज्ञान और प्रगति के सोपान, सड़कों के सफर, प्रमुख संस्थाओं, ऊर्जा और प्रकृति के उपहार वनों का विस्तृत विश्लेषण है। अतीत के पन्नों को खंगालती पुस्तक कहती है, हिमाचल प्रदेश की अधि-संरचना में ही हिंदू धर्म और देवी-देवता की परिकल्पनाएं वास्तविक अर्थ में समाहित हैं। एक तो उसका आकार-प्रकार और दूसरे, उसकी तमाम भू-संरचनाओं का नामकरण हिंदू धर्म के किसी न किसी देवी-देवता के नाम पर किया जाना, यहां के भोले-भाले निवासियों को अपने समस्त क्रियाकलापों में एक या अनेक नामधारी ईश्वर की विद्यमानता के दर्शन की तरफ ले जा सकता है।

भारतीय वांग्मय में संपूर्ण हिमालय ही देवलोक है। इसलिए हिमाचल प्रदेश का धार्मिक इतिहास मुख्यतः हिंदू धर्म का इतिहास है। इसलिए कि यह प्रदेश बहुलांश में हिंदू धर्मावलंबी है। यहां 95.17 फीसदी लोग हिंदू धर्म को मानने वाले हैं। हिमाचल का इतिहास कितना पुराना है, इस विषय में लेखिका कहती हैं, आज का हिमाचल प्रदेश पश्चिमी हिमालय का अभिन्न और मनोरम विस्तार है। हिमालय आदिम स्पंदन का एक कालजयी पुंजीभूत स्वरूप है तो हिम से आच्छादित उसका अंचल, एक निरंतर विकासमान प्रदेश वर्तमान का हिमाचल है। इसी हिस्से में मानवीय अस्तित्व ने आकार लिया था और सभ्यता का उजास दिग्-दिगंत तक फैला था। इसीलिए जर्मन विद्वान वारेल ने सभी आदिम लोगों का मूल स्थान हिमालय को माना था। इसलिए हिमाचल का इतिहास और उसकी परंपराओं का उन्मेष पुरातन काल से ही है। वैदिक स्रोतों के आधार पर यहां 2000 ईसा पूर्व से आदिम जनजातियों के रहने के प्रमाण मिलते हैं। इतिहास अध्ययन की वैज्ञानिक दृष्टि से इसे प्रागैतिहासिक काल कहा जाता है। इस हिसाब से हिमाचल प्रदेश का इतिहास पुरापाषाण युग के उत्तरार्ध से प्रारंभ होता है। व्यास नदी घाटी, सिरसा-सतुलज घाटी और मार्कंडेय घाटी के विभिन्न क्षेत्रों में भारी संख्या में मिले पाषाण के औजारों-हथियारों से इसकी पुष्टि होती है, जो भारतीय प्रायद्वीप के अन्य हिस्सों में मिले इन्हीं उपकरणों की तुलना में 40 हजार वर्ष पुराने हैं।

इसी पुरापाषाण युग में कांगड़ा के ‘रोर’ में खेती और मवेशी पालन की शुरुआत से व्यवस्थित जीवन की भी बुनियाद पड़ी थी। पर्यटन क्षेत्र की नवीनतम जानकारी देती पुस्तक कहती है, देश और दुनिया के पर्यटक राज्य की संस्कृति से रूबरू होकर यहां से सुनहरी यादें लेकर जाएं, इसके लिए होम स्टे कल्चर को समृद्ध किया जा रहा है। इस योजना के तहत राज्य में 2000 से अधिक होम स्टे इकाइयां विकसित हो चुकी हैं। इनमें करीब 6000 कमरे उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इन होम स्टे इकाइयों में 12000 से अधिक बेड की क्षमता है। किन्नौर की विशेषताओं का बखान करती हुई किताब कहती है, शिमला से लगभग 235 किलोमीटर की दूरी पर स्थित किन्नौर को ‘लैंड ऑफ गॉड’ कहा जाता है। किन्नौर सतुलज, वास्पा और स्पीति नदी के बीच स्थित ऐसी जगह है जो अपने हरे-भरे और चट्टानी पहाड़ों की सुंदरता के लिए दुनियाभर में मशहूर है। किन्नौर हिंदू और बौद्ध धर्म के बीच भाईचारे का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यहां की अनूठी संस्कृति और लोकरंग अद्वितीय हैं। जो भी पर्यटक यहां आते हैं, वे प्रसिद्ध किन्नर कैलाश के दर्शन जरूर करते हैं। मान्यता है कि किन्नर कैलाश भगवान महादेव का शिवलिंग है।

इसका संबंध पांडवों से भी जुड़ा है। पूरे किन्नौर जिले में कई पुराने बौद्ध मठ और मंदिर भी हैं जो अपने आप में इतिहास को समेटे हुए हैं। बौद्ध धर्म के अनुयायियों द्वारा यहां आज भी पूजा की जाती है। इस तरह यह पुस्तक ज्ञान का विशाल भंडार है। पुस्तक का प्रकाशन राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने किया है। सरल हिंदी में लिखी गई इस किताब की कीमत 220 रुपए है, जो लेखिका के परिश्रम को देखते हुए अधिक नहीं है। आशा है यह पुस्तक विद्यार्थियों व अध्यापकों के साथ-साथ कई वर्गों को पसंद आएगी।

-फीचर डेस्क

बसंत की खुशबू बिखेरता अंक

साहित्यिक, सांस्कृतिक व सामाजिक पत्रिका ‘बाणेश्वरी’ का बसंत विशेषांक प्रकाशित हुआ है। डा. गौतम शर्मा ‘व्यथित’ इसके मुख्य संपादक, जबकि दुर्गेश नंदन संपादक हैं। अपने संपादकीय में ‘व्यथित’ जी ने ऋतुराज बसंत की खुशबू से पाठकों को परिचित करवाया है। चैत्र महीने में ढोलरू गायन परंपरा के सिमटते जाने से नाखुश व्यथित जी जहां इसके धार्मिक महत्त्व से परिचित करवाते हैं, वहीं ढोलरू गायन परंपरा के संरक्षण के लिए ढोलरू गायकों को सरकारी आर्थिक सहायता की पैरवी करते हैं। लोक विश्वासों की प्रवृत्ति का शास्त्रीयकरण विषय पर स्व. हरिचंद पराशर का आलेख पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। मनोज जोशी का आलेख ‘इल्म से शायरी नहीं होती’ कविता के स्तर में गिरावट की ओर संकेत करते हुए बताता है कि इसी कारण सुधी पाठक काव्य/साहित्य से विमुख होते जा रहे हैं।

स्व. डा. शम्मी शर्मा का निबंध ‘कांगड़ी लोकगीतों में लोरियां एवं बालगीत’  लोरियों की लुप्त होती परंपरा पर क्षोभ व्यक्त करता है। पत्रिका ने डा. सत्यपाल शर्मा को आदरांजलि देते हुए उनकी कहानी ‘सम्मान’ भी छापी है, जो काफी रोचक है। मंडी के अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव पर प्रत्यूष शर्मा का आलेख इस धार्मिक विरासत का महत्त्व बताता है। हाल ही में स्वर्गसिधार गए कमल हमीरपुरी को श्रद्धांजलि स्वरूप उनकी कहानी ‘पितल़ू दा हुक्का’ भी छापी गई है। नवीन हलदूणवी को भी पत्रिका ने आदरांजलि दी है और उनकी कहानी ‘भला आप ही बताएं’  छापी है। इसी अंक में दुर्गेश नंदन ने लोक साहित्य ‘राजा साल वाहन’ का हिंदी अनुवाद पेश किया है। बापू के बंदर भी पाठकों को जीवन मूल्यों से परिचित करवाते हैं। सिलाई मशीन के माध्यम से गृहिणी का कौशल भी इस अंक में उकेरा गया है। स्वास्थ्य और आयुर्वेद पर भी इस अंक में रोचक सामग्री प्रकाशित की गई है। इसके अलावा भी पत्रिका में साहित्य व संस्कृति से जुड़े लोगों के लिए काफी कुछ है।        -फीचर डेस्क


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