एक पराजित लड़ाई

By: May 26th, 2022 12:02 am

उसे पता था वह हार जाएगा, लेकिन इसके बावजूद वह उम्र भर लड़ता रहा, एक हारती हुई लड़ाई। यह लड़ाई उसकी पेट भरने की लड़ाई थी। वह भीख मांग कर पेट नहीं भरना चाहता था, काम करके इज्जत की दो रोटी खाना चाहता था कि लेकिन ये सब बातें इतनी बार दुहरायी जा चुकी हैं कि अब किसी घिसी हुई देसी फिल्म के संवाद भी नहीं लगतीं। इन्हें सुन कर अब किसी का दिल नहीं पसीजता। सरकारी मशीनरी के कल पुर्जे नहीं हिलते। भूख प्यास का शोर तेज़ हो जाता है तो इस मशीनरी पर घोषणाओं और नारों की एक और वार्निश कर दी जाती है। महामारी का प्रकोप लंबा हो गया, लोगों को यह संदेश भी मिल गया कि यह जल्दी आपका पीछा नहीं छोड़ेगी। सबूत मिल गए। शुरू-शुरू में इन सडक़ों और चौराहों पर मौत के हरकारे दनदलाये थे, तो इन चौराहों से भिखारी ब्रिगेड गायब हो गये थे। कहा जा रहा था कि आसन्न मौत की शंका सबको डरा देती है। इन्हें भी डरा गयी। इसलिए इन गिरोहों के सरगना जलावतन हो गए लेकिन भीख मांगने वाले कांपते हुए हाथ तो अभी तक यहां वहां फैले हैं।

कोई और चारा न देख कर वे लोग फिर इन चौराहों पर नजऱ आने लगे हैं। कांपते हाथों, टूटते शब्दों के साथ आपकी कार के शीशे पर कपड़ा मारने का नाटक करते हुए। लेकिन आजकल इन गाडिय़ों के शीशे नहीं खुलते। इन शीशों के पीछे, कारों के बीच डरे हुए लोग बैठे हैं, आपने मुंहों को नकाब से ढके हुए। फर्क इतना है कि सडक़ पार जो खड़ा हो अपना अपना पेट भरने की विनय कर रहा है, उसका नकाब फटा पुराना है और अधमैला सा। उसकी प्रार्थना भी बहुत पुरानी है, उसका पेट भर देने की और अंदर जो मूल्यवान कपड़े से मुंह ढके बैठा है, उसकी उपेक्षा कर रहा है। मांग तो उसकी भी अब अपनी किस्मत के नियंताओं से पुरानी होने लगी, कि हमें सामान्य जि़ंदगी जीने की इजाज़त कब मिलेगी? नहीं मिलेगी अभी, बस इसके लिए एक लड़ाई चलती नजऱ आती है, एक हारती हुई लड़ाई, देखो लडऩे के लिए ऊंची आवाज़ चाहिए, अति नाटकीयता चाहिए, आंसुओं का सजता हुआ बाज़ार चाहिए।

घोषणाओं और नारों के तोरणद्वार चाहिएं और फिर उपलब्धियों के आंकड़ों का मायाजाल चाहिए। जो जीत गए, उनके पास सब कुछ था। अति नाटकीय भंगिमा के साथ मंच से उभरती हुई ऊंची आवाज़ थी, अनुसरण करते हज़ारों लोगों का बहते हुए आंसुओं का बाज़ार था। इसकी बढ़ती हुई टीआरपी उनका वोट बैंक बनती थी, जो जीतता है वह राज करने की पांच वर्षीय नहीं पच्चीस वर्षीय योजना के साथ जीतता है। जो हारता है उसे उपेक्षा के साजि़शी अंधेरे घेर लेते हैं। जो न कभी जीतता है और न कभी हारता है, वही तो है इस देश का आम आदमी जो नारों और घोषणाओं के त्रिशंकु पर लदा सदा हारने की लड़ाई लड़ता रहता है। वह कभी जीतता नहीं, जीतने के भ्रम में ही एक और लड़ाई हार जाता है। रोटी, कपड़े और मकान की लड़ाई, हर हाथ को काम मिलने की लड़ाई, बेघर के घर और अधनंगे जिस्मों को कपड़े की लड़ाई। उसने पहले गांवों में अपने खेतों से निवल आय और निवल निवेश की वृद्धि को शून्य होते देखा तो भर पेट जीने के लिए शहरों में चले आये। शहरों में तीन शिफ्ट की जगह एक शिफ्ट चलती हुई फैक्टरियां मिलीं, कांइयां महाजनों का बही खाता मिला और हर रोज़ भूखा पेट रहने की मजबूरी यहां भी उसका पीछा करती रही। कल कारखानों के पीछे मज़दूरों की अकेली और उदास बस्तियां खड़ी हैं, लेकिन इन बस्तियों के पीछे बंद गलियों के आखिरी मकान मिल जाते हैं, जहां अद्धे और पौने में उनके ज़ेहन का सुकून मिलता है।

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com


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