जिंदगी में अतुकान्त हो जाना…

By: May 19th, 2022 12:05 am

जिन्हें तुक भिड़ाना नहीं आया, वह कविता के अतुकान्त हो गए, लेकिन जो राजनीति में अतुकान्त होते हैं, वे महामारी का तुक भुखमरी से भिड़ता हुआ नहीं देख पाते। जबकि महामारी ने मारा, तभी तो लोग भूख से मरे। महाप्रभु कहेंगे, भई कैसी दूर की हांकते हो, महामारी से लोग पंजाब में मर रहे हैं और तुम उसका आंकड़ा भूख से करते हुए उड़ीसा के लोगों में तलाश करने के लिए चले जाओगे।  जी हां, ऐसा ही होता है। हम तो इस महामारी का असर अमरीका से लेकर तेल के कुओं वाले देश तक में देखने चले गए। आप बताते हो, भई अभी भी इस महामारी से इतने लोग नहीं मरे, जितने हर बरस टीबी से मर जाते हैं या अपने परिवार के लिए दो कौर न जुटाने की असमर्थता से मर जाते हैं। सही फरमाया आपने लेकिन चिकित्सा क्रांति से लेकर समतावाद के ऊंचे नारों के बावजूद वे मौतें तो हम कम न कर सके और इस अन्धकूप में से निकलता हुआ मौत की दहशत भरा यह पैगाम हमें झकझोरने लगा, जब तक न मिलेगी दवाई, तब तक न होगी ढिलाई। यहां रोज़ दवाई मिल जाने का शोर होता है। अभी अपने देश के आम लोगों की तो खुशी का अंत न रहा, जब खबर आई कि हमारे देश में निर्मित हो रही कोरोना की दवाई का प्रयोग जानवरों पर सफल रहा है।

 मियां चिम्पैंजी ने टीका लगवाया, उसमें इतनी रोग की प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई कि अब उसकी कुलांचों का अंत नहीं। जनाब, इस खबर का बहुत महत्व है। इस देश के समाज शास्त्रियों ने हमें बताया कि गरीबी रेखा से नीचे जीते हुए इस देश के तीन चौथाई लोग तो विकास उद्घोषणाओं के इन सब वर्षो में जानवरों से भी बदतर जीवन जीते रहे हैं। अब जांच परीक्षण में जानवर इस दवा से ठीक होने लगे तो देश की बहुसंख्या क्यों न ठीक हो जाएगी? लेकिन किस दवा से और कौन सा रोग बन्धु? आप महामारी के संक्रमण से ठीक होने की बात कह रहे हैं लेकिन इस महामारी ने एक दूसरा रोग भी लोगों को दे दिया, भुखमरी का। महामारी से तो ठीक भी हो जाओगे, लेकिन आतंक और तनाव के इस माहौल ने निष्क्रियता का जो कुठाराघात चलते काम पर कर दिया। दुकानें, कलकारखाने बंद हो गए। अब राम-राम करके कुछ खुले भी तो बाज़ार में ग्राहक नहीं और कल कारखानों में पूरी ताकत से काम नहीं होता।

आंकड़ा शास्त्री ने आंखों का चश्मा माथे पर चढ़ा कर कहा, ‘बन्धु, बेकारी की इतनी ऊंची दर, यह तो पिछले छह दशक में नहीं देखी।’ तिस पर आदमखोर महाबंदी के यह चार चरण कि अब इसे खोलने का साहस करने वाले चार चरण भी इनसे शर्मिदा हो गए। बाज़ार में बिकने का सामान नहीं, खरीददारों की भीड़ नहीं, लेकिन मंडी में कीमतों की त्योरी यूं चढ़ी कि पिछले दस बरस के वृद्धि ग्राफ शर्मिदा हो गए। जानते तो हो जो आंकड़ों में बयां होता है, उससे कहीं अधिक बुरी सूरत असल में है। महामारी के कारण जिनका काम छूटा, उनकी अभी गिनती नहीं लेकिन उनकी भूख तांडव नाचती रही। ‘खाली हाथ आए हो, खाली हाथ जाना है।’ पहले गांवों से उखड़ कर खाली हाथ किस्मत संवारने इन शहरों में आए थे। किस्मत तो क्या संवरनी थी, इस महामारी ने यहां जमे लोगों की दुकानों, कारखानों पर ताले लटका दिए। खाली हाथों को फैला कर यहां कब तक जीते, जैसे आए थे, उसी हालत में गांवों की ओर लौटे। लेकिन उनकी हालत तो इन बरसों में और भी बिगड़ गई। उनका जीर्णोद्वार हुआ, लेकिन सिर्फ कागज़ों, नारों और भाषणों में। क्या यहीं बैठकर ग्रामीण भारत के नवजन्म की प्रतीक्षा करें या शहर लौट कर खैराती राशन के लिए पांत लगाएं?

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App