चंबा के सुप्रसिद्ध दिवंगत साहित्यकार

By: May 1st, 2022 12:08 am

अशोक दर्द

मो.-8219575721

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

-(पिछले अंक का शेष भाग)

डी. एस. देवल

डी. एस. देवल जी का जन्म 19 अगस्त 1951 को पिता श्री चंदू राम तथा माता श्रीमती ब्रह्मी के घर गांव डौंरी तहसील चुराह जिला चंबा हिमाचल प्रदेश में हुआ। इन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ाई की थी तथा संगीत के क्षेत्र में भी संगीत विशारद की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। डाकपाल के पद से सेवानिवृत्त देवल का साहित्य में अमूल्य योगदान है। लगभग 15 पुस्तकों में इनका साहित्य संकलित है जिसमें चंबा अचंभा, विवाह संदर्भ गीत सचित्र, चंबा के प्रसिद्ध लोकगीत भावार्थ सहित, चुराह घाटी एक परिचय, डलहौजी इतिहास के झरोखे से, इत्यादि कई पुस्तकें उल्लेखनीय हैं। इन पुस्तकों के अलावा साहित्य की विभिन्न विधाओं में देश की नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में इनका साहित्य प्रकाशित-प्रसारित होता रहा। इनकी कई पांडुलिपियां जो प्रकाशित नहीं हो पाई हैं, परिवार द्वारा संभाल कर रखी गई हैं। कई शोध पत्र भी इन्होंने लिखे हैं जिनमें चंबा जनपद की दस बोलियां इत्यादि कई ऐतिहासिक शोध पत्र इनके नाम दर्ज हैं। कई  साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा इन्हें सम्मानित किया गया। 2 मार्च 2017 को इनको निधन हो गया।

अमर सिंह रणपतिया

स्वर्गीय अमर सिंह रणपतिया जी का जन्म 15 मार्च 1930 को पिता हरदयाल के घर मैहला गांव के पास गांव प्रीणा में हुआ। इन्होंने पांचवीं की परीक्षा गांव क लिल्ह स्कूल से पास की तथा उसके बाद स्टेट हाई स्कूल चंबा में दाखिला लिया। चंबा रियासत के राजा लक्ष्मण सिंह के नाम पर मिलने वाले वजीफे के लिए परीक्षा पास की तथा यहीं से दसवीं फर्स्ट क्लास से पास की । घरेलू हालात अच्छे न होने के कारण पढ़ाई जारी रखने के लिए इन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इन्होंने प्राइवेट परीक्षाएं देकर स्नातक पास की तथा जालंधर से बीटी करने के पश्चात उदयपुर स्कूल में अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। अध्यापन के साथ-साथ अपनी पढ़ाई भी इन्होंने जारी रखी और पंजाब विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र तथा इतिहास में एम. ए. किया। फिर बेसिक ट्रेनिंग स्कूल राजपुरा में प्रशिक्षक बने और बाद में बतौर मुख्य अध्यापक  अपनी सेवाएं देते रहे और 31 मई 1988 को सेवानिवृत्त हुए। चंबा की लोक संस्कृति, रीति-रिवाज, सामाजिक व्यवस्था, रहन-सहन इत्यादि कई विषयों पर इन्होंने बखूबी कलम चलाई और लोकजीवन के कई अनछुए पहलुओं पर शोधात्मक लेखन किया। इनकी प्रकाशित हुई  पुस्तकों में ‘हिमाचली इतिहास और संस्कृति के अंश’, ‘गुज्जर जनजातीय लोक संस्कृति’, ‘हिमाचली लोकसाहित्य’, ‘गाद्दी हिंदी प्रयोगात्मक शब्दावली’, ‘किन्नौर से किलाड़ यात्रा वृत्तांत’ व ‘भरमौरी बोली च संस्कृत दे शब्द’ उल्लेखनीय हैं। इन्हें हिमाचली लोकसाहित्य के लिए हिमाचल प्रदेश कला संस्कृति भाषा अकादमी का पुरस्कार भी मिला। 10 जनवरी 2012 को रणपतिया जी अपनी सांसारिक यात्रा पूरी करके परलोक चले गए।

हरीश चंद्र शर्मा

दिवंगत साहित्यकारों में श्री हरीश चंद्र शर्मा जी का नाम भी साहित्य जगत में बड़े अदब के साथ लिया जाता है। इनका जन्म चंबा में 3 दिसंबर 1925 को हुआ। इन्होंने लाहौर के हिंदू कॉलेज से स्नातक शास्त्री तथा आचार्य की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात इलाहाबाद से बी. टी. करके अध्यापन के क्षेत्र में आए। कई वर्षों तक अध्यापन करने के पश्चात प्रधानाचार्य के पद से गवर्नमेंट सीनियर सेकेंडरी स्कूल चंबा से सन् 1983 में सेवानिवृत्त हुए। इन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपनी कलम चलाई। सेवानिवृत्ति के पश्चात यह दैनिक ट्रिब्यून में संवाददाता के पद पर रहे। इनके आलेख व कविताएं धर्म युग व गिरिराज इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। इनकी कोई व्यक्तिगत पुस्तक प्राप्त नहीं हुई है। परंतु इनका साहित्य कई पत्र-पत्रिकाओं में बिखरा पड़ा है। सन् 2010 में यह अपनी सांसारिक यात्रा पूरी करके इस धरती से विदा हो गए।

दीपक वर्मा

दीपक वर्मा का जन्म 10 अक्तूबर 1954 को चंबा कस्बे में माता श्रीमती कृष्णा वर्मा और पिता श्री मंगतराम वर्मा के घर हुआ। इन्होंने हॉर्टिकल्चर में बीएससी की थी। चंबा जनपद में कविता की बात करें तो दीपक वर्मा का नाम कविता में बड़े अदब के साथ लिया जाता है। 2012 में उद्यान विभाग  से डिप्टी डायरेक्टर के पद से सेवानिवृत्त हुए दीपक वर्मा को साहित्यिक समझ पैतृक मिली थी। उनके पिता मंगतराम वर्मा भी साहित्यकार रहे हैं जिनका जिला चंबा के इतिहास पर किया कार्य सदैव अविस्मरणीय है। दीपक वर्मा की कविताओं में आम जन की पीड़ा, अभाव और दुख-दर्द का जिक्र है। वर्मा की कविताएं सामाजिक शुचिता की पक्षधर हैं। इनका एक कविता संग्रह उद्गार शीर्षक से प्रकाशित है। कई कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हैं। दीपक वर्मा 18 दिसंबर 2015 को हमसे विदा हो गए।

हरिप्रसाद सुमन

स्वर्गीय श्री हरिप्रसाद सुमन जी का जन्म पिता राजपुरोहित स्वर्गीय बलराम जी व माता सुनीति देवी के घर 8 अक्तूबर 1928 को हिमाचल प्रदेश के चंबा जिला के हट नाला मोहल्ला में हुआ। इन्होंने हिंदी ऑनर्स प्रभाकर पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से उत्तीर्ण की तथा 16 वर्ष की आयु में बाल अभ्युदय नामक हस्तलिखित पत्रिका का संपादन किया। प्रजा मित्र हिंदी पाक्षिक पत्रिका का भी इन्होंने संपादन किया। 1950 में किरण नामक पत्रिका का स्वयं स्वतंत्र रूप से प्रकाशन शुरू किया। 1953 में सरकारी सेवा में अध्यापक के रूप में प्रवेश किया और 1954 में पंडित राहुल सांकृत्यायन जब चंबा आए तो उनसे मिले। तब लोकसाहित्य का संकलन शोध लेख लिखा।

हिमाचल सरकार द्वारा 1955 से 1957 तक जिला योजना तथा विकास समिति के सदस्य मनोनीत हुए। युवक नाटक मंडल की स्थापना कर कई नाटकों का सफल निर्देशन व मंचन किया। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में गला हुई बेटियां तथा मंजरी महोत्सव उल्लेखनीय हैं। 1956 से आकाशवाणी शिमला द्वारा इनकी कविताओं का प्रसारण हुआ। हिमाचल लोक संस्कृति एवं भाषा अकादमी के 1970 से 1982 तक मनोनीत सदस्य भी रहे। इनकी दोनों पुस्तकों के लिए हिमाचल प्रदेश कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी द्वारा पुरस्कार दिया गया। 1958 में अखिल भारतीय लोक संस्कृति सम्मेलन इलाहाबाद में हिमाचल के लोक साहित्य पर शोध पत्र का वाचन किया। इनकी कृति संग राहों में चंबा के लोक गीतों का संकलन चंबा की लोकोक्तियां एवं मुहावरे का संकलन तथा चंबा की पहेलियों का संकलन उल्लेखनीय है। 19 अप्रैल 1999 को हृदयघात के कारण पीजीआई चंडीगढ़ में इनका देहावसान हो गया।

-(शेष भाग निचले कॉलम में)

हिमाचल रचित साहित्य -१२

विमर्श के बिंदु

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल

मो.-9418080088

  1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
  2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
  3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
  4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
  5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
  6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
  7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
  8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
  9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
  10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
  11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

 साहित्य लेखन करने वाली विभूतियों को नमन

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)

कमल प्रसाद शर्मा

स्वर्गीय श्री कमल प्रसाद शर्मा जी का जन्म चंबा कस्बे में 1934 में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनके पिता पंडित हरि कृष्ण स्टेट हाई स्कूल चंबा में ड्रिल मास्टर थे। श्री कमल प्रसाद शर्मा की इतिहास, कला तथा संस्कृति में विशेष रुचि थी। अतः उन्होंने इस क्षेत्र में भरपूर कार्य किया। इसके साथ-साथ इन्होंने थिएटर भी किया और लोक नृत्य और दूसरे परफॉर्मेंस पर इन्होंने फिल्म भी बनाई, जो टीवी पर प्रसारित भी हुई। श्री कमल प्रसाद शर्मा सनातन धर्म नाटक मंडल चंबा के साथ जुड़े हुए थे और इनके नाटक मंडल ने कुल्लूृ, शिमला, चंडीगढ़ इत्यादि स्थानों पर अपनी प्रस्तुतियां भी दीं। इन्होंने नाटक और ओपेरा में भी अपनी भूमिका निभाई तथा प्रसिद्धि हासिल की। उस जमाने में इनका ओपेरा सुनयना (सुई माता) बहुत प्रसिद्ध हुआ जिसे शिमला समर फेस्टिवल में सन् 1978 में मंचित किया गया। कमल प्रसाद शर्मा ने निम्नलिखित पुस्तकें लिखीं ः ए बुक ऑन द फोक म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ चंबा, फोक डांसेज ऑफ चंबा, कस्टम्स एंड आर्नामेंट्स ऑफ चंबा, मणिमहेश चंबा कैलाश व देवतास ऑफ चंबा हिमालय। उपर्युक्त सभी पुस्तकें अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। 2007 में श्री कमल प्रसाद शर्मा को उनके कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में योगदान के लिए हिमोत्कर्ष संस्था द्वारा सम्मानित किया गया। 7 अप्रैल 2018 को यह इस नश्वर संसार को छोड़कर देवलोक चले गए।

श्री देवेंद्र बड़ोत्रा

स्वर्गीय श्री देवेंद्र बड़ोत्रा का जन्म 14 अप्रैल 1942 को चंबा नगर में एक जागीरदार परिवार में हुआ। इनके दादा स्वर्गीय श्री कर्म सिंह फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट चंबा स्टेट थे। इनके पिता श्री चतर सिंह चंबा से सबसे पहले दो बार एमएलए और 1961 से 1966 तक चुनाव क्षेत्र चंबा-मंडी से पहले मेंबर ऑफ पार्लियामेंट थे। इनकी प्रारंभिक शिक्षा चंबा के सरकारी स्कूल से हुई। उसके बाद इन्होंने अपनी शिक्षा जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स मुंबई से प्राप्त की। चित्रकला एवं कविता लेखन में इनकी विशेष रुचि थी। समाज के प्रति जागरूकता व बौद्धिक ज्ञान इनके जीवन में बचपन से ही पलता रहा। वह हमेशा चंबा वासियों में अपनी सामाजिक समानता की सोच, लोगों को जागरूक करने व उनको हमेशा आगे बढ़ने के  प्रेरित करते रहे। चंबा के इतिहास, साहित्य, कला एवं संस्कृति  के प्रति जो इनकी  समझ थी, उसके लिए बड़ोत्रा जी हमेशा चंबा वासियों के दिलों में रहेंगे। इसी सोच और समझ के कारण श्री सत महाजन फॉर्मर रूरल डेवलपमेंट मिनिस्टर ऑफ हिमाचल प्रदेश ने इन्हें चंबा का इनसाइक्लोपीडिया बताया था। इनकी  कई रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। यह एक बहुत ही नेक दिल मिलनसार इंसान थे। इनकी साहित्यिक, सांस्कृतिक व कलात्मक समझ की सदैव पीढि़यां ऋणी रहेंगी। 25 जुलाई 2021 को वे संसारिक यात्रा पूरी कर अपने परम धाम चले गए।

खेमराज गुप्त सागर

खेमराज गुप्त सागर का जन्म चंबा के सपड़ी मोहल्ले में पिता श्री दौलत राम गुप्ता और माता श्रीमती पार्वती गुप्ता के घर 9 दिसंबर सन् 1935 को हुआ। छह भाइयों व एक बहन में वह सबसे बड़े थे। इनके पिता श्री दौलत राम गुप्ता पांगी-चुराह के पहले एमएलए रहे। 1950 में इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और हायर सेकेंडरी करने के बाद यह कृषि विभाग में बालूगंज (शिमला) स्थित कार्यालय में एडिटर के पद पर नियुक्त हुए। नौकरी के कारण यह ज्यादातर शिमला में ही रहे। 9 दिसंबर 2001 को शोघी (शिमला) में ही इनका देहांत हो गया। इनके लिखे कई गीत रेडियो स्टेशन से गाए गए हैं। वर्षों तक इनकी कविताओं तथा कहानियों का प्रसारण रेडियो स्टेशन से होता रहा है तथा कुछ गीत चंबा के नामचीन गायक पीयूष राज जी ने भी 1988 में एच. एम. वी. कैसेट्स में गाए हैं। खेमराज गुप्त का साहित्यिक योगदान चंबा ही नहीं, हिमाचल के लिए भी अमूल्य रहा है। इनकी कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं हुई है। फिर भी जो कुछ इन्होंने लिखा है, वह यादगार है, अमूल्य है। अंत में चंबा जनपद की इन सभी दिवंगत विभूतियों, जो अपनी रचनात्मकता, अपनी कलात्मकता से साहित्यिक जगत में मशाल जला कर गई हैं, को नमन है। कई पीढि़यां इनके ऐतिहासिक कार्य को सदैव याद रखेंगी। इसी कामना के साथ एक बार पुनः इन सब साहित्यिक विभूतियों को लेखक का विनम्र नमन एवं पुण्य स्मरण…।   

-अशोक दर्द

जयंती विशेष

नोबेल तक टैगोर का साहित्यिक सफर

रबींद्रनाथ ठाकुर अथवा रबींद्रनाथ टैगोर एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे। भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ रूप से पश्चिमी देशों का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका रही तथा आमतौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है। उनका जन्म 7 मई 1861 को कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के पुत्र के रूप में एक संपन्न बांग्ला परिवार में हुआ था। बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री टैगोर सहज ही कला के कई स्वरूपों की ओर आकृष्ट हुए, जैसे साहित्य, कविता, नृत्य और संगीत। रबींद्रनाथ टैगोर की स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट ज़ेवियर स्कूल में हुई। टैगोर ने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन कॉलेज विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्ययन किया, लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। रबींद्रनाथ टैगोर को बचपन से ही कविताएं और कहानियां लिखने का शौक़ था। उनके पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर एक जाने-माने समाज सुधारक थे। वे चाहते थे कि रबींद्र बडे़ होकर बैरिस्टर बनें।

इसलिए उन्होंने रबींद्र को क़ानून की पढ़ाई के लिए लंदन भेजा। लेकिन रबींद्र का मन साहित्य में ही रमता था। उन्हें अपने मन के भावों को कागज पर उतारना पसंद था। आखिरकार, उनके पिता ने पढ़ाई के बीच में ही उन्हें वापस भारत बुला लिया और उन पर घर-परिवार की जि़म्मेदारियां डाल दीं। रबींद्रनाथ टैगोर को प्रकृति से बहुत प्यार था। वे गुरुदेव के नाम से लोकप्रिय थे। भारत आकर गुरुदेव ने फिर से लिखने का काम शुरू किया। जहां तक रचनाओं का सवाल है, उन्हें 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। टैगोर ने बांग्ला साहित्य में नए गद्य और छंद तथा लोकभाषा के उपयोग की शुरुआत की और इस प्रकार शास्त्रीय संस्कृत पर आधारित पारंपरिक प्रारूपों से उसे मुक्ति दिलाई। धर्म सुधारक देवेंद्रनाथ टैगोर के पुत्र रबींद्रनाथ ने बहुत कम आयु में काव्य लेखन प्रारंभ कर दिया था। 1870 के दशक के उत्तरार्ध में वह इंग्लैंड में अध्ययन अधूरा छोड़कर भारत वापस लौट आए। भारत में रबींद्रनाथ टैगोर ने 1880 के दशक में कविताओं की अनेक पुस्तकें प्रकाशित की तथा मानसी (1890) की रचना की। यह संग्रह उनकी प्रतिभा की परिपक्वता का परिचायक है। इसमें उनकी कुछ सर्वश्रेष्ठ कविताएं शामिल हैं जिनमें से कई बांग्ला भाषा में अपरिचित नई पद्य शैलियों में हैं। साथ ही इसमें समसामयिक बंगालियों पर कुछ सामाजिक और राजनीतिक व्यंग्य भी हैं। दो-दो राष्ट्रगानों के रचयिता रबींद्रनाथ टैगोर पारंपरिक ढांचे के लेखक नहीं थे।

वे एकमात्र कवि हैं जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं, भारत का राष्ट्रगान जन गण मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएं हैं। वे वैश्विक समानता और एकांतिकता के पक्षधर थे। ब्रह्मसमाजी होने के बावजूद उनका दर्शन एक अकेले व्यक्ति को समर्पित रहा। चाहे उनकी ज़्यादातर रचनाएं बांग्ला में लिखी हुई हों, वह एक ऐसे लोक कवि थे जिनका केन्द्रीय तत्त्व अंतिम आदमी की भावनाओं का परिष्कार करना था। वह मनुष्य मात्र के स्पंदन के कवि थे। एक ऐसे कलाकार जिनकी रगों में शाश्वत प्रेम की गहरी अनुभूति है, एक ऐसा नाटककार जिसके रंगमंच पर सिर्फ ट्रेजडी ही जि़ंदा नहीं है, मनुष्य की गहरी जिजीविषा भी है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आसपास से कथालोक चुनता है, बुनता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि घनीभूत पीड़ा की आवृत्ति करे या उसे ही अनावृत करे, बल्कि उस कथालोक में वह आदमी के अंतिम गंतव्य की तलाश भी करता है। टैगोर के गीतांजलि (1910) समेत बांग्ला काव्य संग्रहालयों से ली गई कविताओं के अंग्रेज़ी गद्यानुवाद की इस पुस्तक की डब्ल्यू. बी. यीट्स और आंद्रे जीद ने प्रशंसा की और इसके लिए टैगोर को 1913 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। 1912 में टैगोर ने लंबी अवधि भारत से बाहर बिताई। वह यूरोप, अमेरिका और पूर्वी एशिया के देशों में व्याख्यान देते व काव्य पाठ करते रहे और भारत की स्वतंत्रता के मुखर प्रवक्ता बन गए। भारत के राष्ट्रगान के प्रसिद्ध रचयिता रबींद्रनाथ ठाकुर की मृत्यु 7 अगस्त, 1941 को कलकत्ता में हुई थी। वह आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन साहित्य में वह आज भी जिंदा माने जाते हैं।

पुस्तक समीक्षा : लघु कविताओं का बहुरंगी संग्रह

होशियारपुर (पंजाब) निवासी प्रसिद्ध लेखक डा. धर्मपाल साहिल लघु कविताओं का बहुरंगी संग्रह लेकर आए हैं। ‘मुझमें कितना कौन’ नामक इस लघु कविता संग्रह में तीन सौ के करीब  कविताएं हैं, जहां विविध भावों की अभिव्यक्ति हुई है। अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित यह कविता संग्रह 148 पृष्ठों का है। इसकी कीमत 360 रुपए है। यह संग्रह कवि की मनोदशा का ऐसा कोलॉज है जिसमें वे तथाकथित शिल्प का अतिक्रमण कर जाते हैं। कविता में वे अपने अनुभवों को समाज, परिवार व व्यक्ति को केंद्र में रखकर उलीकते हैं, बिना भाषा के जाल-जंजाल बुने।

साहिल का इन कविताओं के बारे में कहना है कि ये लघु कविताएं सोच-समझ कर या मन बनाकर नहीं लिखी गईं। न ऐसा कर पाना मेरे लिए संभव है। कब, कहां, कैसे, क्यों कविता जैसा कुछ जे़हन में उतर जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता। ये लघु कविताएं मेरे भीतरी संसार की यात्रा है। अपने आपसे साक्षात्कार है। प्रकृति से जुड़ने का उपक्रम है। जीवन सरोकारों की व्याख्या है। शीर्षक कविता ‘मुझमें कितना कौन’ का भावार्थ यह है कि कवि में कितना कौन है, इसकी पहचान करने में वह असमर्थ है। यहां तो ‘रुह में उतरे/चेहरे कई अन्जान’ हैं। ‘मां’ नामक कविता में मां का महत्त्व बताते हुए कवि कहता है : ‘मां हो तो/अंधेरे में भी/साफ-साफ/दिखाई देता है/न हो तो/रोशनी में भी/कहां कुछ/सुझाई देता है’। इसी तरह अन्य लघु कविताएं भी अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति की तरह हैं। आशा है यह संग्रह पाठकों को अवश्य पसंद आएगा।

-फीचर डेस्क


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