कांगड़ा के सुप्रसिद्ध दिवंगत साहित्यकार

By: May 15th, 2022 12:06 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -14

विमर्श के बिंदु

  1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
  2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
  3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
  4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
  5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
  6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
  7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
  8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
  9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
  10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
  11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

 डा. विजय कुमार पुरी, मो.-7018516119

-(पिछले अंक का शेष भाग)

हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा के नलेटी गांव में 28 अगस्त 1917 के दिन जन्मे आचार्य दुर्गादत्त शास्त्री जी संस्कृत भाषा के मूर्धन्य विद्वानों में अग्रगण्य हैं।  ‘राष्ट्रपथ प्रदर्शनम्’, ‘तर्जनी-काव्य’, ‘मधुवर्षणम् काव्यरचना’, ‘संस्कृतकाव्यकुञ्जम्’, ‘श्रीसत्यसांईचरितम्’ इनकी काव्य रचनाएं हैं। नाटकों में वत्सला-तृणजात्तकम्, एकांकी नाटक, वियोगवल्लरी, महाकवि कालिदास की कृति ‘स्वप्न वासवदत्ता’ और ‘इकरमोवशियम्’ का पहाड़ी अनुवाद प्रमुख हैं। लेखन हेतु इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। हिमाचली साहित्य में रिड़कू राम  ओंकार लाल भारद्वाज की बात न हो, यह हो ही नहीं सकता। लंबागांव के पास के एक छोटे से गांव कोटलू में 13 जुलाई 1931 को जन्मे ओंकार लाल भारद्वाज ने आकाशवाणी में रिड़कू राम के नाम से बहुत काम किया। प्रेम सभा, कांगड़ा युवक मंडल, अखिल भारतीय सामाजिक संस्था सहित वे बहुत सी संस्थाओं के साथ जुड़े रहे। ‘प्रीत पित्तळ’ तथा ‘गोरी छैल़ लगदी’ इनकी प्रमुख कृतियां हैं।

20 दिसंबर 2008 को उनका स्वर्गवास हो गया। जिला कांगड़ा के ही एक ऐसे साहित्यकार जिनकी कलम की धमक पूरे देश में सुनाई दी, वह नाम है तहसील एवं जिला कांगड़ा के गांव सेराथाना के प्रसिद्ध अंक ज्योतिष आचार्य पंडित बद्री दत्त अवस्थी के घर 16 जून 1929 को जन्मे डॉक्टर शमी शर्मा का। यह भी डॉक्टर शमी शर्मा की विद्वता का ही परिणाम था कि नागरी प्रचारिणी सभा का कार्य करते महापंडित राहुल सांकृत्यायन जब हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा आए तो डॉक्टर शमी शर्मा उनके साथ ही बने रहे। उन्होंने कांगड़ा लोक साहित्य लिखा। सेराथाना में ही पोथी घर प्रकाशन की स्थापना की। लोक साहित्य, बाल साहित्य, लोक संस्कृति तथा नाटक इनके प्रमुख विषय रहे हैं। बिखरे कण, पंजाब के पर्वतीय प्रदेश, पर्वती हिमालय, हिमजा, स्वरिता, पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, अध्यापन के तीस वर्ष, कुंतली, अस्मिता,  भ्यागा दा परगड़ा, मिंजरां, सहज कहानियां, माता बज्रेश्वरी देवी का मंदिर और इतिहास, श्री चामुंडा नंदीकेश्वर मंदिर और इतिहास, युग युगीन त्रिगर्त, पुरुष सूक्त एक विवेचन, संस्कार कौमुदी, श्रृंखला इनकी रचित प्रमुख पुस्तकें हैं। उनका देहांत सत्रह अक्तूबर 2011 को हुआ। शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी साहित्यकार, यारों के यार, दिलदार इनसान एवं इससे भी बढ़कर उस्ताद शायर, नई और पुरानी पीढ़ी को एक साथ लेकर चलने का माद्दा रखने वाले डॉक्टर प्रेम भारद्वाज जितने कड़क शिक्षक एवं प्रशासनिक अधिकारी रहे, उतने ही ऊंचे दर्जे के साहित्यकार भी।

मौसम खराब है, कई रूप रंग, मौसम-मौसम, अपनी जमीन से, लोककथा मानस इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं। 13 मई 2009 को इनका देहांत हो गया। इनके एक अधूरे खंडकाव्य को इनके मित्र  पवनेंद्र पवन पूरा कर रहे हैं जो कि शीघ्र ही प्रकाशित होगा। समाजसेवी, शिक्षक, संगीतकार, गायक, चित्रकार, नाटककार एवं साहित्यकार, इन सभी श्रेष्ठ गुणों से सुसज्जित व्यक्तित्व का नाम है मुल्ख राज शांतलवी। जिला कांगड़ा के शांतल गांव में 13 दिसंबर 1947 को जन्मे मुल्ख राज शांतलवी की झंझोटियां सभी को पसंद थीं। ‘रुण-झुण’ तथा ‘कलेजा’ इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं। 2002 को दिल का दौरा पड़ने के कारण उनका देहांत हो गया। जिला कांगड़ा के साहित्य साधकों में पृथु राम शास्त्री का नाम भी स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। गांव बसदी, तहसील ज्वालामुखी, जिला कांगड़ा में नवंबर 1923 को एक साधारण ब्राह्मण परिवार में जन्मे पृथु राम शास्त्री ने अपनी पढ़ाई पूर्ण करने के बाद साधु आश्रम होशियारपुर में अध्यापन कार्य किया। जालंधर पुराण, जालंधर माहात्म्य, जालंधर पीठ दीपिका, वाग्भूषणम्, दुर्गा दत्त शास्त्री के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पुस्तक (पुस्तक अभी उपलब्ध नहीं) आदि उनकी कुछ प्रकाशित पुस्तकें हैं। अगस्त 2006 में उनका देहांत हो गया। जिला कांगड़ा के गांव जयंती विहार में 12 अप्रैल 1942 को जन्मे मेहरचंद दर्दी स्वभाव से बेहद साधारण व्यक्तित्व के स्वामी रहे हैं। हिमाचली भाषा उनका पहला प्रेम रही। पहाड़ां दी गूंज (पहाड़ी काव्य), हिमदर्शन लघु एकांकी/नाटक (पहाड़ी), बुढ़ापा आश्रम समाज सुधार पर पहाड़ी में उनकी कुछ प्रकाशित पुस्तकें हैं। 1-10-2021 के दिन उनका देहांत हो गया। जिला कांगड़ा के गांव सुलह, तहसील पालमपुर में 16 जून 1929 को जन्मे बलदेव ठाकुर बेहद मिलनसार व्यक्तित्व के स्वामी थे। पंजाब में पढ़ाई पूरी करने एवं वहीं अपने जीवन की शुरुआत करने वाले बलदेव ठाकुर को सन् 1955 में पालमपुर निवासी कुंजलाल बुटेल हिमाचल ले आए और अपने कॉलेज के संस्थापक प्रिंसिपल नियुक्त किए। अगर लेखन की बात की जाए तो सन् 1984 में प्रकाशित ‘हवा दक्खणी’ को हिमाचल अकादमी पुरस्कार मिला। इसके अतिरिक्त सन् 1986 में हिंदी काव्य पुस्तक ‘कचोटती कसक’ और 1989 में ‘इस ओर उस पार’ नामक हिंदी काव्य पुस्तक प्रकाशित हुई। उनका देहांत 27-6-2004 को पालमपुर में हुआ। अपनी अनूठी शैली में लेखन एवं कविता पाठ के लिए विख्यात उर्दू हिंदी एवं हिमाचली भाषा के लेखक ओंकार फलक का जन्म गांव बगली, जिला कांगड़ा में 9-9-1933 को हुआ। लेखन का शौक उनको बचपन से ही था, फिर भी ज्ञात तौर पर उनकी लिखी कविताएं सन् 1946 से मिलती हैं। वे अपने जीवन की सांझ तक अपनी पुस्तक प्रकाशित नहीं करवा सके।

इसके लिए साहित्यिक संस्था अखिल भारतीय सृजन सरिता परिषद द्वारा प्रयास किया गया, फलस्वरूप त्रिभाषी काव्य पुस्तक ‘काळियां धारां सूरज उग्गै’ सन् 2016 में प्रकाशित हुई। उच्च शिक्षा प्राप्त तथा देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा में तैनात रहे जिला कांगड़ा के गुगा सलोह में 2-8-1949 के दिन जन्मे रवि मंढोत्रा जितने पारंगत हिंदी एवं अंग्रेजी में थे, उतना ही प्रेम वे अपनी मातृभाषा से भी करते थे। उनके द्वारा हिमाचली भाषा में लिखित एवं सन् 2004 में प्रकाशित उपन्यास ‘जौण्ढा’ हिमाचली भाषा की अमूल्य कृति है। लंबे समय तक आकाशवाणी के निदेशक रहे अशोक जैरथ का जन्म जम्मू में हुआ। लगभग 18 वर्ष तक धर्मशाला, शिमला आकाशवाणी केंद्रों में स्टेशन डायरेक्टर के रूप में सेवाएं देने के उपरांत सेवानिवृत्त हुए। इनका देहांत दिल्ली में हुआ। इन्होंने कुल 44 पुस्तकें लिखीं जिनमें चैरी के फूल, हिंदू श्राइंज ऑफ वैस्ट्रन हिमालयाज, फोर्टस एंड पेलेस ऑफ वेस्टर्न हिमालयाज, शक्ति श्राइंज ऑफ वेस्टर्न हिमालयाज, डिग्गल सोच्चां दे इत्यादि प्रमुख हैं।                     

कांगड़ा के दिवंगत साहित्यकारों को नमन

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)

गग्गल नामक स्थान के पास गांव चैतड़ू में बेहद गरीब एवं साधारण परिवार में सन् 1932 को जन्मे अति साधारण व्यक्तित्व के स्वामी विधि चंद दरिद्र जीवन पर्यंत अपनी जड़ों से जुड़े रहे। लेखक होने के साथ-साथ वे एक कलाकार भी थे। वे बहुत अच्छी बांसुरी बजाते थे। बिखरे मोती, विपत काल (काव्य संग्रह) व अप्रकाशित साहित्य- जड़ी बूटियों से बनने वाली दवाओं पर आधारित पुस्तक स्वास्थ्य सिंधु तथा ‘पहाड़ी कहावतें’ आदि इनके पुस्तकें हैं। विधिचंद दरिद्र का देहांत 2-2-2012 के दिन हुआ। 23 मई 1933 में जन्मे डा. सत्यपाल शर्मा जी उच्च शिक्षा विभाग में संस्कृत भाषा के प्राध्यापक थे। उनके सात कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं जिनमें ‘दीदी का ढाबा’ बहुत चर्चित है। डा. सुशील कुमार फुल्ल द्वारा सम्पादित ‘हिमाचल की यादगार कहानियां’ में भी उनकी बड़ी प्रसिद्ध कहानी ‘अलकनंदा का बेटा’ संकलित है। अन्य रचनाओं में वाल्मीकि रामायण-एक विश्लेषण दो भाग, महाभारत-मणिमालिका-दो खंड प्रमुख हैं। 1991 में सेवानिवृत्त होने के बाद वे चीलगाड़ी धर्मशाला में रहकर साहित्य सृजन कर रहे थे कि 17 जनवरी 2022 को उन्होंने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया। श्री अमर चंद मेहरा का जन्म 1 फरवरी 1929 को जयसिंहपुर तहसील के गांव लाहड़-अप्पर लंबागांव में हुआ था। यहां-वहां कई जगहों में हाथ पांव मारने के पश्चात आयुध विभाग में कार्य करने लगे। 30 नवंबर 1997 को वे स्वर्ग सिधार गए। उनकी एकमात्र प्रकाशित पुस्तक ‘रंग बदलती दुनिया’ काव्य संग्रह है।

कांगड़ा के साहित्य और साहित्यकारों की बात हो और विख्यात लेखिका संतोष शैलजा की बात न हो, ऐसा हो नहीं सकता। संतोष शैलजा का जन्म 14 अप्रैल 1937 को अमृतसर में हुआ। कनकछड़ी, अंगारों में फूल, तिन्नी-पिन्नी-चिन्नी, जौहर के अक्षर, ज्योतिर्मयी, पहाड़ बेगाने नहीं होंगे, ओ प्रवासी मीत मेरे, कुहुक कोयलिया की, सुन मुटियारे के अतिरिक्त धौलाधार और हिमाचल की लोककथाएं ‘पर्वतीय लोककथाएं’ नाम से  प्रकाशित हुईं। गलिम्पस ऑफ ग्लोरी नामक अंग्रेजी में बच्चों के लिए उनका कहानी संग्रह है। साहित्यकार पति शांता कुमार के साथ ‘सपनों को छोड़ना मत’, ‘बेतवा की लहरें’ आदि भी प्रमुख हैं। कोरोना के कारण 29-4-2020 को उनका देहांत हो गया। बंसी लाल भी लंबे समय तक साहित्य की सेवा करते रहे। उनका जन्म 10 मार्च 1937 को शक्तिपीठ मां ज्वालामुखी के चरणों में बसे ज्वालामुखी कस्बे में हुआ। हिमाचली भाषा में ‘नोखियां गल्लां’ नामक काव्य पुस्तक प्रकाशित हुई। डॉ. मस्तराम कपूर का जन्म 22-12-1926 को सकरी जिला कांगड़ा में हुआ। विपथगामी, एक अटूट सिलसिला, तीसरी आंख का दर्द, नाक का डाक्टर (उपन्यास), एक अदद औरत, ग्यारह पत्ते (कहानी संग्रह), नीरु और हीरु, भूतनाथ, सपेरे की लड़की (बाल उपन्यास), किशोर जीवन की कहानियां-भाग एक/दो, दंड का पुरस्कार, निर्भयता का वरदान, सहेली आजा-होजा, चोर की तलाश, ऐंगा-बैंगा (बाल कहानी संग्रह), क्रिटिकल स्टडी इन चिल्ड्रेन लिटरेचर इन हिंदी  विषय पर पीएचडी भी हुई है। जीवन पर्यंत मां बोली के संरक्षण एवं संवर्धन में जुटे रहे। पेशे से शिक्षक एवं तबीयत से लेखक, हिमाचली पहाड़ी भाषा के कबीर के नाम से विख्यात नवीन हल्दूणवी का जन्म 16 अप्रैल 1949 को पौंग डैम में जलमग्न हो चुकी कांगड़ा की सबसे उपजाऊ (वर्तमान में महाराणा प्रताप सागर में जलमग्न) हल्दूण घाटी के पंजराल गांव में श्रीमती गायत्री देवी और श्री रत्न लाल शर्मा के घर हुआ तथा विशम्भर शर्मा नामकरण किया गया। इनकी सत्रह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

1985 में उनका ‘पलौ खट्टे मिट्ठे’ कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। इसके बाद भारते ने प्यार, बोला करदे पहाड़, प्हौंच चढ़ी जा गास, काल्हू निखरगा रंग, मैंझर, लोक गलांदे सारे, प्हौंचा वाळे, सुथरी सोच, म्हौल बगाड़ीता और कुड़मां दे नखरे, टप्परू बाब्बे दा, नौंए गीत नवीने दे और चिह्ंडू हिमाचली भाषा में लिखित हैं। हिंदी में भी पुस्तकें-कलम चली है। 5 फरवरी 2022 को मातृभाषा के सच्चे साधक नवीन हल्दूणवी का देहांत हो गया। ज्वालामुखी के निकट डुहग देहरियां में जन्मे कमल हमीरपुरी बहुआयामी व्यक्तित्व के मालिक थे। सृजन, मंचन व अभिनय उनकी रगों में समाया हुआ था। ‘आंबल़ी दा बूटा’ उनका प्रसिद्ध काव्य संग्रह है। जिला कांगड़ा के साहित्यिक रूप से उर्वर गांव गुलेर के प्रतिष्ठित गुलेरी परिवार में राजपुरोहित श्री कीर्ति धर शर्मा गुलेरी जी के घर 14 अप्रैल 1949 को जन्मे महर्षि गिरिधर योगेश्वर अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत, हिमाचली तथा जर्मन आदि भाषाओं के ज्ञाता व योगाचार्य भी रहे और एक धार्मिक संस्थान के महंत भी। उनकी कृतियों में मधुपर्क, योगेश्वरी (काव्य संग्रह), कविता और मेरा बिंदु चिंतन, आदर्श कथाएं आदि हैं। इसके अतिरिक्त कवि सप्तक, पगडंडियां, पहचान, स्मृति, खुलते अमलतास, तेताला तथा  बाबा बालक नाथ जीवन चरित आदि हिंदी कहानी, काव्य कई साझा संकलनों में प्रकाशित हुई हैं। हिमाचली पहाड़ी भाषा की बात करें तो मने दी भड़ास, मिंजरां, काव्यधारा आदि साझा काव्य संकलन में भी रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। 27 मार्च 2022 को इनका देहांत हो गया। डा. गुरुमुख सिंह बेदी कांगड़ा के पंजबड़ निवासी गुरु नानक देव की चौदहवीं पीढ़ी के वंशज थे। सुग्घर पालमपुर निवासी अमर तनोत्रा के ‘तोहफा’, ‘बिंदो’ आदि उपन्यास बहुत चर्चित रहे हैं।

23 दिसंबर 1940 को नूरपुर तहसील के कोटला में श्री दीनानाथ कायस्थ के घर इनका जन्म हुआ। उनकी प्रकाशित पुस्तकें ‘रींगदी पीड़’ (हिमाचली कहानी संग्रह), ‘घेराव’ (हिंदी कहानी संग्रह) हैं। ये उच्च शिक्षा विभाग में गणित के प्रोफेसर रहे हैं। आईमा (पालमपुर) के अर्जुन कन्नौजिया का जन्म यशोदा व गंगाराम के घर 23 मार्च 1941 को हुआ। वह सहायक मलेरिया अधिकारी रहे। ‘मोम का दरिया’, ‘शब्दों की लहरें’ ़गज़ल संग्रह व ‘परिक्रमा’ काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 25 अप्रैल 2022 को उनका निधन हो गया। इनके अतिरिक्त गंगथ के रामस्वरूप भारद्वाज उर्फ परवाज़ नूरपुरी ने ‘धौलाधार एक दुल्हन’ उर्दू तथा हिंदी और बजीर सिंह पठानियां, द्रमण के शशिधर कश्मीरी की काव्य पुस्तक भारत भ्रमण, मोलराम द्वारा संसार चंद का वर्णन, देवदत द्वारा कांगड़ा युद्ध का वर्णन के अतिरिक्त गुलेर के राजा बिक्रम की रानी के कृष्ण भजन, दत्तु की फुटकर रचनाएं, बृजकौशल नूरपुरी, कैलाश नूरपुरी, हरिचंद कौंडल पुष्कर डमाल, सोमनाथ सोम, प्रोफेसर चंद्रवर्कर, रोशन लाल संदेश आदि भी कांगड़ा के मुख्य साहित्यकार हैं।

-डा. विजय कुमार पुरी

‘मुठ भर अंबर’ में कुशल कविता का आकाश

‘मुठ भर अंबर’ में हिमाचली होने का कर्ज उतारता कवि अपने भीतर की कविता में ‘एह् चोरां दी दुनिया, हऊं ईमानदार बाकी सब चोर! कवियां लखारियां भी, दिहत्या रोणे जो जोर!!, कह कर पाठक के मन की घंटियां छू लेता है। अपनी 52 कविताओं के साथ कुशल कुमार न केवल एक हिमाचली कविता संग्रह ला रहे हैं, बल्कि पर्वतीय सरोकारों के हजारों दीप उस मुंबई में जगा देते हैं, जहां अनेक भारतीय भाषाओं का संगम है। इसलिए वह आरंभिक टिप्पणी में कहते हैं, ‘मैं अपणिया पहाड़ी भासा दी जात्रा ताईं मुंबई दी मराठी कनैं बहुभासी संस्कृति दा कर्जदार है। मैं ही नीं ऐत्थु मुंबई च कांगड़ा, हमीरपुर, मंडी, बिलासपुर, ऊना कनैं जम्मू दे लोग जिल्यां च बंडोणे बगैर इक्की पहाडि़या च ही गल करदे ओआ दे।’ मुंबई की दूसरी-तीसरी पीढ़ी के लोग जिलों से बाहर निकल कर जिस ‘हिमाचली’ को अंगीकार कर रहे हैं, क्या प्रदेश के भीतर ऐसी कल्पना करना भी दोषपूर्ण हो गया है।

अपने सृजन से मुखातिब मुंबई निवासी कुशल कुमार कुछ ऐसी कविताएं रच देते हैं, जिन्हें इनके दार्शनिक स्वभाव, भविष्य के रेखांकन, चुटकीले संवाद, गूढ़ संदेश, सरल सारांश और हास्य पुट के स्पर्श में अनुभूत किया जा सकता है। कविताओं का ठेठ पहाड़ीपन दिल को कुछ यूं छूता है, ‘जीह्व हावी होंदी गई, खाणे पर भी गलाणे पर भी! नतीजा पेट कनैं पड़ेस, दोह्नो फुलदे गै!!’ कवि की भावुकता दुनियावी मोह से बाहर निकल कर ईश्वर से दो टूक सवाल करती है, ‘रुख मिल्ले-छाऊं नी मिल्ली, खूह् मिल्ले-पानी नी मिल्ला! भांडा मिल्ला-डोर नी मिल्ली, किश्ती मिल्ली-पतुआर नी मिल्ली!!’ कविता संग्रह की कई कविताओं का मंचन हो सकता है, लेकिन श्रेष्ठता की बानगी ‘जह्ड़ां ठीक मान्नू ही ढेरे हन’ के अंदर, ‘माह्नू घट टपरू जादा-गभरू घट जबरू जादा। कुआलां कनैं टयालयां दे, जमान्ने गुजरी गै।’ आश्चर्य यह कि कवि ठेठ मुंबई की महानगरीय संस्कृति में पला-बढ़ा अपनी पहाड़ी पृष्ठभूमि की महक भर से कुशल प्रयोग कर देता है। ‘मुठ भर अंबर’ के नीचे विरासत की साझी छत और कहीं मेहनत की गीली मिट्टी से निकलती वही बोली (भासा), जिसे प्रवासी हिमाचली अपने सीने और सरोकारों पर मरहम की तरह लपेट लेते हैं। यादों के झरोखों से जैसे बारिशनुमा कविता मुंबई के समुद्र से छेड़छाड़ कर रही हो या लेखक वहीं कहीं टटोलता है पहाड़ के आंसुओं को। ‘खड्ड’ ऐसी ही एक कविता है। ‘मेरा पड़दादा, टैम हत्थे ते निकली न जाए, टुकड़यैं-टुकड़यैं, अपने पैर, कुदरत बी सोचदी होणी, तरमैन्ना दी भासा, प्यार तथा न्हेरा है’ जैसी कविताओं के भीतर कुशल अपने रचना संसार का विस्तार करते हैं। उनकी लंबी कविताओं, तिन्नी सेर भी देणा है, मेरे भेज्जे दिया दराच्चा च तथा मोहरा वाली तस्वीर, में जमाने की शिकायतों के यथार्थ और हकीकत के तलबों की पीड़ा उभर आती है, तो दर्शन शास्त्र के दर्शन होते हैं। कुशल की कलम मुलायम सफों पर अपनी रोशनी में कहती है, ‘मरने च ब्याहे दे गीत बुरे लगदे- ब्याहे च सयाले दे गीत बुरे लगदे! सड़ी जाए तां डाठ बुरी लगदी- भुली जाए ता बाट बुरी लगदी।’

अपने व्यंग्य के तीर छोड़ते हुए, ‘इक्क सरकार गई, दुई आई। इह्ना सरकारां पुट्टि ता छिक्का-राती होर ता भ्यागा होर! नौकर असां सरकारी-कमाणा नी कमाणा मरजी म्हारी!!’ लेखक अपने मर्म से निकले अर्थ को कुछ पेश करता है, ‘बणद्-बणदे रंग भरदा, लोई दा बपार करदा! लोई दे नाएं-न्हेरा ही बिकदा औआ दा!! माह्नू कल भी न्हेरे सौंदा था-आज भी न्हेरे सोआ दा!!!’ कुशल कुमार ने अपने काव्य संसार को हिमाचली और हिंदी के समकक्ष एक तहजीब की तरह सींचा है और जहां पृष्ठ 100-101, 154-155, 160-161 व 194-195 के आरपार कविताएं भासा या भाषा से कहीं ऊपर और अनुवाद की तहों से हटकर एक रूप में दिखाई देती हैं। विचारों के चक्षु खोलती रचनाएं प्रश्नों के गंुबद पर बैठकर निहारती हैं। खुले आकाश में झांकती कविताएं मजमून का अक्स कुछ यूं बड़ा कर देती हैं, ‘कुछ अग्गी च सुआह् होई गै, कइयां हत्थां सेक्की ठंड गुआई! कइयां अपणे चुल्हे बाली लै!! सच इह्यां ही मिटी-मुक्की गै-लुगदी बणी कागजां च बिछी गै।’ पुस्तक की भूमिका में ही अनूप सेठी ने मुंबई के हृदय में ‘हिमाचली भासा’ के उद्गार से विभूषित प्रस्तुति दी है, तो लेखक पूरे प्रदेश से अपने सरोकारों का मिलन करवाते हुए कहता है, ‘मिलणा होए ता अंबर-कुत्थी नी जांदा, घरे दिया छत्ती ने ही- सच्चया मिलदा।’                

-निर्मल असो

पुस्तक का नाम :  मुठ भर अंबर

लेखक :कुशल कुमार

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर

कीमत : 200 रुपए

 

पुस्तक समीक्षा : लघु निबंधों का रोचक पहाड़ी संग्रह

डा. गौतम शर्मा ‘व्यथित’ का हिमाचली-पहाड़ी हास्य-व्यंग्य लघु निबंध संग्रह ‘किरले दियां सरपटां’ प्रकाशित हुआ है। शीला प्रकाशन, नेरटी (कांगड़ा) से प्रकाशित इस निबंध संग्रह की कीमत 175 रुपए है। इसमें कुल 20 निबंध विभिन्न विषयों पर प्रकाशित हुए हैं। इस संग्रह के प्रकाशन के बारे में व्यथित जी स्वयं कहते हैं कि मैंने महसूस किया कि जो बात अपनी भाषा में कही जा सकती है, उसे उसी प्रभाव के साथ दूसरी भाषा में नहीं कहा जा सकता। इसी जोश में मन बन गया तथा पहले संग्रह के चार-पांच निबंध तथा पांच-सात नए जोड़कर ‘किरले दियां सरपटां’ हास्य-व्यंग्य संग्रह बन गया।

इससे दो जरूरतें पूरी हो गईं, एक, ‘गितल़ू’ संग्रह मिल नहीं रहा था, वो मिल गया तथा दो, इस खुमारी में कुछ और निबंध भी लिख लिए गए। संग्रह के बारे में डा. ओम प्रकाश सारस्वत लिखते हैं कि डा. गौतम शर्मा की यह नई किताब मन की मौज से निकले लोक व्यवहार की सच्चाई से भरे निबंधों का संग्रह है। ‘गितल़ू’ हास्य-व्यंग्य संग्रह के बाद यह इनका दूसरा हिमाचली-पहाड़ी निबंध संग्रह है। इसी तरह निबंध के भाषायी महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए प्रोफेसर (डा.) वेदप्रकाश अग्निहोत्री कहते हैं कि यह संग्रह भाषायी रूप-स्वरूप को सहेजने की दिशा में एक मॉडल है। ऐसे ही प्रयास अगर अन्य भाषा रूपों में भी हों, तो कोई शक नहीं हिमाचली का भाषायी रूप-स्वरूप निखरने, सिजंरने-संवरने में देर नहीं। साहित्यकार ‘व्यथित’ जी को इस संग्रह के प्रकाशन के लिए बधाई है। ऐसे ही प्रयासों से पहाड़ी भाषा का संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने का दावा मजबूत होगा।

-फीचर डेस्क


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