कांगड़ा के सुप्रसिद्ध दिवंगत साहित्यकार

By: May 8th, 2022 12:05 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

डा. विजय कुमार पुरी

मो.-7018516119

समाज पर समय एवं युग की भाव-धाराओं का बहुत प्रभाव पड़ता है और साहित्य में न केवल उसका पूरा लेखा-जोखा रहता है, अपितु साहित्य नई प्रेरणा देकर समाज का नवनिर्माण भी करता है। समाज में परिवर्तन लाने की जो सामर्थ्यशक्ति साहित्य में छिपी है, वह तलवार, बंदूक, तोप तथा बम के गोलों में भी नहीं है। सदियां इस बात की साक्षी हैं कि साहित्य ने गिरे हुए राष्ट्रों का पुनरुत्थान किया है। काव्य, नाटक, एकांकी, उपन्यास, रिपोर्ताज़, यात्रा संस्मरण, आलोचना, जीवनी, कहानी, गीत आदि गद्य/पद्य साहित्य की सभी विधाएं इसमें सहायक सिद्ध होती आई हैं। साहित्यकार समाज का अभिन्न अंग होता है। वह जिस समाज में रहता है, उसके प्रति उनका विशेष दायित्व का बोध सदैव रहता है। इसलिए साहित्यकार अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से अपने विचारों की अभिव्यक्ति प्रदान करता है। जहां एक ओर वह अच्छे कार्यों की प्रशंसा करता है तो वहीं दूसरी ओर गलत कार्य पर अपने असंतोष के कारण को भी स्पष्ट करता है। यहां आकर उसका स्वरूप प्रजापति का हो जाता है। साहित्य कम समय में कम शब्दों के साथ भी प्रभावी सिद्ध होकर समाज के दिलो-दिमाग पर गहरी छाप छोड़ जाता है। रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों में उत्साह का संचार करता है, वह उनमें छिपे देवत्व को जगाता है और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। देवभूमि हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा में ऐसे ही कई मूर्धन्य साहित्यकार हुए हैं जो अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से अमर हो गए हैं।

 जिला कांगड़ा के गुलेर गांव के निवासी विख्यात ज्योतिर्विद महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री जो कि राजसम्मान पाकर जयपुर (राजस्थान) में बस गए थे, उनकी तीसरी पत्नी लक्ष्मीदेवी की कोख से सन् 1883 में चंद्रधर शर्मा का जन्म हुआ, जिन्होंने अपने गांव गुलेर को विश्वप्रसिद्ध बना दिया।  कुशाग्रबुद्धि चंद्रधर शर्मा गुलेरी पहाड़ी, हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, प्राकृत, बंगला, फ्रैंच आदि भाषाओं के प्रकांड विद्वान थे। 39 वर्ष की छोटी सी जीवन-अवधि में ही उन्होंने कालजयी कहानियां, लघुकथाएं, आख्यान, ललित निबंध, गंभीर विषयों पर विवेचनात्मक निबंध, शोधपत्र, समीक्षाएं, संपादकीय टिप्पणियां, पत्र-विधा में लिखी टिप्पणियां, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक/पौराणिक साहित्य, पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबंध, लेख तथा टिप्पणियां लिखीं। कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने ‘द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स’ शीर्षक अंग्रेज़ी ग्रंथ की रचना की। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं कालजयी कहानी ‘उसने कहा था’ का प्रकाशन सरस्वती में 1915 ईस्वी में हुआ। इसके अतिरिक्त ‘सुखमय जीवन’ तथा ‘बुद्धू का कांटा’ भी प्रमुख कहानियां हैं। उनके द्वारा लिखित एक अन्य कहानी ‘हीरे का हीरा’ भी है, जिसे डा. सुशील कुमार फुल्ल ने पूरा किया है।

 ‘बुद्धू का कांटा’ मेरी सर्वाधिक पसंदीदा कहानियों में से एक है। उन्होंने ‘कछुआ धर्म’ और ‘मारेसि मोहि कुठाऊं’ नामक निबंध और ‘पुरानी हिंदी’ नामक लेखमाला भी लिखी। ‘महर्षि च्यवन का रामायण’ उनकी शोधपरक पुस्तक है। इसके अतिरिक्त गुलेरी जी ने हिंदी व संस्कृत में कविताएं भी लिखी हैं। इनके सुपुत्र योगेश्वर गुलेरी तथा पौत्र डा. विद्याधर शर्मा गुलेरी जो कि संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, भी प्रख्यात साहित्यकार हैं। डा. विद्याधर शर्मा गुलेरी ने चंद्रधर शर्मा गुलेरी की अमर कहानियां संकलित कीं तथा संस्कृत, हिंदी में लिखी उनकी कविताओं का भी प्रकाशन किया। पौंग डैम में डूब चुकी विख्यात हल्दूण घाटी के बचोलड़ गांव में सन् 1943 में जन्मे पूर्ण चंद पद्म बजूरा हिमाचल साहित्य परिषद तथा कांगड़ा लोक साहित्य परिषद के सदस्य रहे हैं। हिमाचली भाषा में लिखी गई एवं सन् 1985 में प्रकाशित पुस्तक ‘छिट्टे’ प्रमुख साहित्यिक कृति है। 16 जून 1935 को जन्मे हिमाचल के पहले महाकवि, फतेहपुर निवासी पेशे से अध्यापक और ख्याल से हिंदी तथा हिमाचली भाषा के जोरदार पैरोकार कवि संसार चंद प्रभाकर की पुस्तकें जगदी जोत (पहाड़ी काव्य), जनजीवन (हिंदी कहानी संग्रह), देव धरती (पहाड़ी काव्य संग्रह), पश्चाताप (हिंदी उपन्यास), अग्नि परीक्षा, मेरी धरती मेरा देश (काव्य संग्रह), घाव गहराते गए, माटी का कर्ज़, प्रलय खंड, चढ़दा बिहाणु, हिमाचली इतिहास के सुर्ख पन्ने, हिंदी बुद्ध वाणी धम्मपद का पहाड़ी अनुवाद ‘माया’ महाकाव्य, गूंज आदि प्रमुख साहित्यिक कृतियां हैं। उनका कुछ साहित्य अप्रकाशित भी है। माया महाकाव्य के लिए हिमाचल कला साहित्य एवं भाषा अकादमी का शिखर सम्मान भी प्राप्त हुआ। दादा नूरपुरी, दादा देहलवी आदि उपनामों से मशहूर चक्रधारी शास्त्री भी हिमाचली साहित्य का एक प्रमुख नाम है। उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, डोगरी तथा हिमाचली भाषाओं के ज्ञाता लदोड़ी (नूरपुर) निवासी चक्रधारी शास्त्री जी का जन्म 13 फरवरी 1919 को हुआ।

 हिमगिरी दशशती, गीता कुंडली दर्पण, गीत गोविंदम, दादा कुंडली दर्पण, विश्व संस्कृतम्, आध्यात्मिक सृष्टि की रचना, महान आत्माएं, वृंदावन में क्या देखा, नाटक डुग्गरे दा, कवता नूरपुरे दी आदि पुस्तकें प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त इनका काफी साहित्य अप्रकाशित ही रह गया। ‘स्याहपोश जरनैल’, ‘बुलबुल ए पहाड़’ पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम जी 11 जुलाई 1882 को गुरनबाड़ (डाडासीबा) में पैदा हुए। बाबा कांशी राम न केवल स्वतंत्रता आंदोलन की मशाल जलाने में ही अग्रणी रहे, बल्कि अपने जोशीले गीतों, भजनों, कविताओं के माध्यम से जन जागरण करने वाले बाबा कांशी राम ने अपने जीवन में अनुमानतः  508 कविताएं, 8 कहानियां और दो उपन्यास लिखे। 15 अक्तूबर 1943 को उनका स्वर्गवास हो गया। इनके सुपुत्र वैद्य स्वायाराम ने ‘पहाड़ी सरगम’ के नाम से इनकी कविताओं का संकलन प्रकाशित किया। पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम की पोती स्वर्ण कांता प्रेम भी साहित्य जगत का चमकता सितारा हैं। 15 सितंबर 1946 को गुरनबाड़ डाडासीबा में जन्म लेने वाली स्वर्ण कांता प्रेम की साहित्यिक रुचि अपने दादा की तरह ही थी। पंज्जल घाटी के लोक गीतों का संग्रह कर उन्होंने ‘अप्पू चले परदेस’ नामक पुस्तक प्रकाशित की जो कि काफी लोकप्रिय भी हुई। 8 जुलाई 1991 को लंबी बीमारी के चलते उनका स्वर्गवास हो गया। उनका कुछ लिखित साहित्य भी अप्रकाशित रह गया।

-(शेष भाग निचले कॉलम में)

विमर्श के बिंदु

हिमाचल रचित साहित्य -१3

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल

  1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
  2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
  3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
  4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
  5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
  6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
  7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
  8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
  9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
  10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
  11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

कांगड़ा के कई अन्य साहित्यकार भी हैं

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)

12 जनवरी 1930 को जिला कांगड़ा के नूरपुर में दीनदयाल शर्मा जी के घर जन्मे सुदर्शन कौशल नूरपुरी हिमाचल प्रदेश में उर्दू भाषा में ग़ज़ल कहने वाले आधुनिक काल के पहले ग़ज़लकार कहे जा सकते हैं। हालांकि वे हिमाचली पहाड़ी भाषा में भी कविताएं और ग़ज़लें लिखते थे किंतु ‘नबेद-ए-सहर’ उर्दू ग़ज़लों की उनकी एकमात्र प्रकाशित पुस्तक है। 26 जून 1982 को धर्मशाला स्थित लेखक गृह में उन्हें हृदयाघात हुआ और उनका स्वर्गवास हो गया। उस समय उनके थैले में कुछ पांडुलिपियां थीं जो कि उन्होंने प्रकाशित करवाने के लिए कहीं देनी थीं। चाचू गिरधारी के नाम से विख्यात 28 सितंबर 1924 को सुखलाल डोगरा के सुपुत्र गांव धमेटा, तहसील फतेहपुर, जिला कांगड़ा निवासी देशराज डोगरा जी की हिमाचली भाषा में लिखी कविताएं जिनमें ‘चाचू गिरधारी’ बड़ी विख्यात हुई और इसी कविता की वजह से इनका नामकरण चाचू गिरधारी हो गया। इन्होंने महान क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल के संपर्क में आने के बाद हिमाचली भाषा में कहानियां भी लिखीं जो कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। विद्वान कहते हैं कि इनके द्वारा हिमाचली पहाड़ी भाषा में लिखित कहानी ‘नूरां’ बुनावट, शैली और शिल्प के आधार पर पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ के समकक्ष है। यह कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुई, हालांकि यह कहानी अब उपलब्ध नहीं होती।

21 मार्च 2001 को दिल का दौरा पड़ने से उनका देहांत हो गया। हिमाचली, उर्दू तथा हिंदी भाषा में बराबर अधिकार रखने वाले, हिमाचली ग़ज़ल को नए तेवर देने वाले उस्ताद शायर मनोहर सागर पालमपुरी का जन्म 25 जनवरी 1929 को गांव झुनमान सिंह, तहसील शक्करगढ़ में हुआ था। आजादी के बाद परिवार सहित वे पालमपुर में बस गए। उनके द्वारा लिखित कहानी दर्द कोहशीरों का मंचन दिल्ली दूरदर्शन से भी हुआ । ‘मैं बणजारा गीतां दा’ उनकी चर्चित प्रकाशित कृति है। वहीं रचना साहित्य कला मंच ने भी उनके रचनाकर्म पर एक पुस्तक प्रकाशित की है। 30 अप्रैल 1996 को उनका देहांत हो गया। बैजनाथ कला संगम के संस्थापक शेष अवस्थी अपने जीवन काल तक संस्था के सक्रिय सदस्य रहे। 30 सितंबर 1935 को बैजनाथ, पपरोला में हिंदी एवं हिमाचली भाषा के विख्यात कवि एवं ग़ज़लकार शेष अवस्थी ने हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी की परियोजना पहाड़ी हिंदी शब्दकोश हेतु अपना बहुमूल्य योगदान दिया। ‘धारां दियां धुप्पां’, ‘स्हेड़ेयो फुल्ल’, ‘हिमाचल लोक कथा’, ‘भ्याकणा भुल्लेया’, ‘शिवभूमि बैजनाथ’, ‘आपको मालूम है’, ‘कुर्स पराणा पत्थर नौएं’ इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं। हिमाचली माटी की सौंधी-सौंधी खुशबू जिस लेखक के हर क्रियाकलाप से झलकती है, उनका नाम है ओमप्रकाश प्रेमी। ओमप्रकाश प्रेमी जी का जन्म बैजनाथ के नजदीक के गांव बुरली में 28 फरवरी 1937 को हुआ। लेखन हेतु माहौल बनाते हुए कांगड़ा बालोद्यान एवं हिंदी साहित्य संगम हिमाचल प्रदेश शाखा की स्थापना की। प्रेमी जी की दो पुस्तकें ‘आशकिरण’ व ‘मंजुल सुपणे’ प्रकाशित हुईं। इसके अतिरिक्त पत्रिकाओं में भी इनकी कविताओं, कहानियों का प्रकाशन होता रहा। 10 दिसंबर 1998 को वे इस संसार को छोड़ कर चले गए।

लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति प्रेमी करमचंद श्रमिक का जन्म 12 अक्तूबर 1943 को जिला कांगड़ा के टंग नरवाणा में हुआ। उनकी ‘बंडेरा दे कण्डे’, ‘हिमाचली-कांगड़ी शब्दावली’, ‘कौड़ा सच’, ‘ताली तो बजाओ’, ‘मैं लौट आऊंगा’ इत्यादि प्रकाशित पुस्तकें हैं। हिमाचली साहित्य के पुरोधा डा. पीयूष गुलेरी का जन्म 14 अप्रैल 1940 में कांगड़ा के गुलेर गांव में राजपुरोहित पिता पंडित कीर्तिधर शर्मा गुलेरी और माता सत्यवती गुलेरी के घर में हुआ। पीयूष गुलेरी का असल नाम कृष्ण गोपाल है। अपनी कलम से हिमाचली पहाड़ी भाषा को पहचान दिलाने वाले डा. पीयूष ने करीब 65 साल साहित्य जगत में हिंदी, संस्कृत, हिमाचली, डोगरी, पंजाबी, उर्दू एवं अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में कार्य किया। उन्होंने हिमाचली, हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, उर्दू इत्यादि विभिन्न भाषाओं में पुस्तकें लिखीं। ‘मेरा देश म्हाचल’, ‘छौंटे’, ‘मेरियां ग़ज़लां तेरे गीत’, ‘मां’ (गोर्की) अनुवाद, ‘हिंदी दियां कहाणियां’ (अनुवाद), ‘किरनी फुल्लां दी’, ‘श्रीचंद्रधर शर्मा गुलेरी-व्यक्तित्व एवं कृतित्व’, ‘गूंगा हृदय : बहरी पीर’, ‘गुलेरी रचना संचयन’, ‘एक तथ्य अटका हुआ’, ‘हिमाचली संस्कृति और पुरोधा’, ‘झूमती याद’ आदि उनकी कई प्रकाशित पुस्तकें हैं। एक दिसंबर 2018 को लंबी बीमारी के बाद इनका देहांत हो गया। इनकी तीन पुस्तकों का प्रकाशन इनके परिजनों ने इनके स्वर्गवास के बाद किया। साहित्यिक दृष्टि से जिला कांगड़ा बहुत ही उर्वरा भूमि रही है। 18 अगस्त 1924 को शाहपुर जिला कांगड़ा के रैत (नेरटी) गांव में जन्मे लक्ष्मण मस्ताना जी का ‘बिखरे फूल’ एक संग्रह है जो कि अप्रकाशित है। 9 सितंबर 1993 को इनका देहांत हो गया। जिला कांगड़ा के पालमपुर के पास घुग्घर गांव में 9 अगस्त 1935 के दिन जन्मी श्रीमती सुदर्शन डोगरा का साहित्य जगत में अपना एक विशिष्ट स्थान है। हिमाचली पहाड़ी-हिंदी शब्दकोश बनाने में इनका भी महत्त्वपूर्ण योगदान है।

‘सूरजे दी पहली किरण’, ‘बाल लोक कथाएं’ तथा ‘पारंपरिक पर्व एवं त्योहार’ इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं। इसके अतिरिक्त काफी कुछ साहित्य अप्रकाशित भी रह गया है। दिसंबर 2014 में इनका देहांत हो गया। जिला कांगड़ा के साहित्यिक जगत में अद्वितीय आभा लिए, अति साधारण और असाधारण व्यक्तित्व का स्वामी रहे तथा हिमाचली पहाड़ी भाषा को अपनी कलम और गले दोनों से विश्व विख्यात करने वाले प्रताप चंद शर्मा उर्फ प्रतापु जी का जन्म 23 जनवरी 1927 को जिला कांगड़ा के नलेटी गांव में हुआ। प्रताप चंद शर्मा अपनी मातृभाषा के सच्चे सिपाही थे और इस प्रेम के चलते ही सैकड़ों कालजयी गीत रचे भी और गाए भी, हालांकि आर्थिक विपन्नता के चलते जीवन भर अपनी किताब प्रकाशित नहीं करवा पाए। उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र पटियाला ने उनके 120 पहाड़ी गीतों का संकलन ‘मेरी धरती मेरे गीत’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। इसके अतिरिक्त उनके काफी गीत अप्रकाशित भी रह गए।

 -डा. विजय कुमार पुरी

-(शेष भाग अगले अंक में)

व्यंग्य की कोशिकाओं में जीवन भरते प्रभात कुमार

व्यंग्य के उम्दा हालात, उस प्रतिकूलता की चुभन है, जो जीवन के कड़वे घूंटों को मुस्करा कर पीने की हिदायत देती है। जब गद्य से साहित्यिक गंतव्य तक सामाजिक चेतना के सुर तमाम चीखों के बीच कुछ ऐसा कह सकें, जो सीधा सारांश न होकर परोक्ष का प्रखर प्रहार हो, तो वहां व्यंग्य फूटता है। हिमाचल में भी व्यंग्य के साधक और इस विधा में प्रकाशन सामने आ रहे हैं और इसी शृंखला को आगे बढ़ाते प्रभात कुमार अपनी चयनित रचनाओं के साथ पेश कर रहे हैं व्यंग्य संग्रह, ‘ऐसा देस है मेरा’। संग्रह में 58 व्यंग्य अपनी भाषायी भंगिमा, शब्दों की यात्रा, स्थान की अनुशासित सीमा और अखबारी तेवरों के साथ पठनीयता व प्रभावशीलता बढ़ा देते हैं।

कुछ रचनाएं पाठकों के साथ चलती हैं और उनमें से कुछ ‘अफसर का इंट्रव्यू’, बजट के प्रभाव, हम सब पॉलिटिक्स में हैं, भक्ति के असुर, सम्मान के हकदार, ग्रहचाल का यह हाल, अंतरिक्ष में समोसे, हिंदी का महीना भी संस्कार छीना, विकास का धुआं, डिमांड सप्लाई का अनर्थशास्त्र, मजे का भूकंप, जुगाड़ का आविष्कार व नई साहित्यिक परिषद का गठन इत्यादि अपने भीतर के व्यंग्य का तात्पर्य बुलंद करती हैं। अखबारी संसार में मनोरंजन चुनना अब पाठक की खोज है, कुछ इसी बहाने प्रभात कुमार   ‘पाटिल जी की प्रेरणा’ को न्यूज की अहमियत में टटोलते हैं। वह रियलिटी शो और देश में नाम बदलने की प्रथाओं के पत्थरों से व्यंग्य चुरा लेते हैं और  ‘बदलाव के बीच देश’ में परिचर्चाओं के बनते-बिगड़ते विषयों की रगड़ पर खड़े होकर ठहाका लगाते हैं।  ‘सम्मान के हकदार’ में प्रशस्ति पत्र के पीछे लिखी इबारत को सीधा पढ़ने की कोशिश करते हुए लेखक अपनी बिरादरी के नाखुन खींच देता है।  ‘घोड़े की नाल’, हमारे अपने पांवों पर कब चढ़ जाती है, पता ही नहीं चलता।  ‘बजट के प्रभाव’ में लेखक उन क्षणों का साक्षी बनता है, जहां विडंबनाओं के बीच व्यंग्य की बौछारें सहज उत्पन्न होती हैं और कहीं राष्ट्रीय बजट की लिखावट में गृहिणियां किस तरह अपने चूल्हे को एडजस्ट करती हैं, इसका जिक्र संसाधनों का सदुपयोग है या राष्ट्र कैसे घर-घर से मज़ाक कर सकता है, यह बजट की नकेल है। व्यंग्य की धार में लेखन की कसौटियों का मानदंड कुछ यूं उभरता है, ‘आपका बच्चा आपको मिस करेगा।’ ‘नहीं करेगा मिस। आजकल के बच्चे स्मार्ट पैदा होते हैं। उन्हें शुरू से ही पता होता है कि वे किस दुनिया में पैदा होने जा रहे हैं।

और मैं उसे सैंटीमेंटल नहीं बनाना चाहती। उसके लिए मेड रख दूंगी। क्रैच, प्ले स्कूल किसलिए हैं?’ (पृष्ठ 125)। लेखक समाज के खोखले आदर्शों को कुछ यूं अभिव्यक्त करता है, ‘एक तरफ भक्तजन प्रसाद तैयार कर रहे थे, तो दूसरी तरफ जगराते में देर रात तक गाने हेतु स्टैमिना बनाने के लिए एक कमरे में मदिरापान हो रहा था। एक गायक अपने गिलास को देखकर दूसरे से कह रहा था कि इसके बिना बंदा जम नहीं सकता। यह बड़ी जरूरी चीज है यार।’ विचित्र परिस्थितियों से भारतीय मानस कैसे सहज भाव से मुकाबला करता है, ‘घर की वित्त मंत्री ने भी घर का बजट रिव्यू किया, हुक्म जारी हुआ बजट में बिस्कुट सस्ते हुए हैं, हमने कौन सा कुत्ता पाला है। हमें मालूम है ये बिस्कुट अपने व तुम्हारे लिए मंगा रही हूं।’ प्रभात कुमार की व्यंग्य शैली में सांस्कृतिक ऊधम मचाता टीवी और दृश्य बदलती परिस्थितियों के बीच दर्शक उपहास की विसंगतियां, कुछ कर दिखाने की ललक में श्रद्धांजलि भी आविष्कार, बजट में काटने को दौड़ते व्यंग्य, हिंदी की व्यथा पर खुजली करते सरोकार और अपनी ही मूंछ के बाल खींचकर घायल होने का सत्य बन जाता है। संग्रह में दफ्तरों के कमजोर पांव चलते हैं और देश के लोकतांत्रिक माहौल में शहद की मक्खियां बार-बार काटने को दौड़ती हैं।             

-निर्मल असो

पुस्तक का नाम :  ऐसा देस है मेरा

लेखक : प्रभात कुमार

प्रकाशक : नीरज बुक सेंटर, दिल्ली

कीमत : 350 रुपए

पुस्तक समीक्षा

आम आदमी की परेशानियों को दूर करती कहानियां

वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार कमलेश भारतीय की लघुकथाओं के बाद कहानी संकलन ‘नयी प्रेम कहानी’ पढ़ने को मिला। वह जहां सात-आठ पंक्तियों की लघुकथा में बड़ा संदेश दे जाते हैं, वहीं उनकी बड़ी कहानियां भी पाठकों को अंत तक बांधे रखती हैं। उनकी कहानियां आम आदमी की कहानी है। सामाजिक चेतना को जगाने वाली है। आम इनसान की दुविधाएं व परेशानियां इनमें उजागर होती हैं, तो निपटने के उपाय भी वह सुझाते हैं। कहानी संग्रह के आरंभ में प्रसिद्ध साहित्यकारा चित्रा मुद्गल दीदी द्वारा भारतीय जी की कहानियों की विशेषताओं का सटीक आकलन किया गया है। 11 कहानियों के इस संकलन में पहली कहानी ‘कब्रिस्तान पर घर’ ने मुझे बहुत प्रभावित किया। ताउम्र अपने बच्चों की बेहतरी के लिए खून-पसीना बहाने वाला एक इनसान रिटायर होने के बाद सबकी नजर में नकारा सा क्यों लगने लगता है, अपनी पुरातन संस्कृति को ध्यान में रखते हुए इस मर्म को पहचानना बहुत जरूरी है। इसी तरह ‘महक से ऊपर’ अप्रत्यक्ष रूप से दहेज व्यवस्था पर प्रहार करती है। उधर कहानी ‘कब तक?’ भी एक ऐसा सवाल है जो सिर्फ देवेन के नाना-नानी का ही नहीं, बल्कि हर बेटी के मां-बाप का सवाल है।

 पति-पत्नी के बिगड़ते रिश्ते बच्चों के लिए कितने हानिकारक होते हैं, इस बात को भी कहानी में बहुत ही अच्छी तरह से दर्शाया गया है। ‘धुंध में गायब होता चेहरा’ में आरती देवी के काल्पनिक चरित्र के माध्यम से राजनीतिक छद्मवेष के प्रति आगाह किया गया है। ‘नयी प्रेम कहानी’ में एक असफल प्रेम कहानी को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ उकेरा है लेखक ने। ‘किसी भी शहर में’ एक ऐसी कहानी है जिसे हम आज देश के कई शहरों में चरितार्थ होते देख रहे हैं। ‘कब गए थे पिकनिक पर?’ लेखक का अपने आप से ही सवाल नहीं है बल्कि मशीनी युग में जी रहे हम सभी को झकझोरा है इस सवाल ने। इसी तरह ‘बस थोड़ा सा झूठ’ भी किसी एक परिवार की नहीं, बल्कि अनेक परिवारों की कहानी है जहां पर बच्चे बड़े होकर अपनी मनमजऱ्ी से चलना पसंद करते हैं। कमलेश भारतीय एक प्रख्यात साहित्यकार होने के साथ-साथ बेहतरीन इनसान भी हैं। किसी भी तरह की जिज्ञासा या मार्गदर्शन की आवश्यकता हो तो वह सदैव हाजि़र रहते हैं। इतनी सशक्त कहानियों के माध्यम से समाज को संदेश देने के लिए उनको बहुत-बहुत शुभकामनाएं और बधाइयां।

 -अमृता पांडे, हल्द्वानी, नैनीताल


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