सिरमौर के सुप्रसिद्ध दिवंगत साहित्यकार

By: May 29th, 2022 12:08 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -16

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

चिर आनंद, मो.-8219296348

-(पिछले अंक का शेष भाग)
10. श्री नरेश चंद्र साथी (1932), साथी कौन? उर्दू अदब के साथ हिंदी का भी रिश्ता। जिसने हो जोड़ा, उसको साथी कहते हैं। आखरी दम तक कलम का साथ, न हो जिसने छोड़ा उसको साथी कहते हैं।। (चिर आनंद), उर्दू अध्यापक के पद से सेवानिवृत्त, उर्दू में देश भर के रिसालों में रचनाएं प्रकाशित। गजल संग्रह -मेरी तन्हाइयां। ‘माहनामा अक्स के सम्पादक-प्रकाशक- देवनागरी लिपि में साहित्य की सभी विधाओं-यथा-कविता, गीत-गज़़ल, कहानी, समीक्षा, संस्मरण, कार्यक्रम रिपोर्ट, निबंध, उपन्यास आदि भारत भर के लेखकों को प्रकाशित किया। आकाशवाणी शिमला से जुड़ाव।

11. श्रीमती सत्यापुरी नाहनवी (01-04-1933, 09-10-2002), स्वर भी सरस, साहित्य भी, संस्कृति भी संस्कार भी। सपना हुई ”सपुना ने ज्यों-ज्यों गुल चुगे त्यों खार भी।। (चिर आनंद), शिक्षा विभाग में मुख्याध्यापिका के पद से सेवानिवृत्त। कविता संग्रह- ”हृदय के फूल, दिल से दिल तक, हीरे और मणिया- कहानी संग्रह-2, उपन्यास- त्रिकोण से घिरी रेखा- जीवनी-एक, पत्र-पत्रिकाओं में -पचासों लेख व निबंध प्रकाशित, आकाशवाणी से जुड़ाव- हिम कोकिला नाम से प्रसिद्ध, गायन, वादन, निर्देशन, चित्रकला, हिमाचल की पहली महिला स्वतंत्र पत्रकार, कविता-मां ने कहा था। बेटी संवेदनशील और भावुक मत बनना/मेरी मां की मां ने भी शायद यही कहा होगा/ पर क्या बनना या न बनना/बेटी के बस की बात नहीं/ बनती वही है जो उसका परिवेश बना देता है या बना देती हैं उसकी विवशताएं।

12. श्री मदन मोहन कमल (11-10-1933), कविता हुई छन्दों की, हम श्री राम के होते गए। सरयू की पावन धार में मन आत्मा धोते गए। (चिर आनंद), राजस्व विभाग में अधीक्षक के पद से सेवानिवृत्त। काव्य संग्रह दो- प्रकाशित, श्री राम पर अनेकों गीत, लेख व निबंधों की रचना, आकाशवाणी से जुड़ाव। पंक्तियां- पथिक रे सरल न तेरी राह/सतत बढऩे की फिर भी चाह/ भंवर में नाव न मिलता छोर/गगन में प्रबल बवंडर घोर/विफल हो तड़प रहा मन मोर/ दामिनी दमक रही घनघोर/तरंगित भीषण जलधि अथाह/पथिक रे! सरल न तेरी राह। 13. प्रो. चतुर सिंह (05-02-1936, 21-6-2006), मंच संचालन में माहिर। गद्य कविता सिद्धहस्त। हो गया है अस्त सूरज मार्ग को करके प्रशस्त।। (चिर आनंद), जन्म ननिहाल पुरूवाला में। पिता मास्टर श्री राधाकृष्ण, माता गंगा देवी जी। राजकीय महाविद्यालय से प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त। एमए-एमफिल में स्वर्ण पदक, देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में रचना प्रकाशन- श्रेष्ठ मंच संचालक व समीक्षक। एक रचना- ‘नचिकेता का मृत्युबोध-बहुत डराया/मृत्यु ने उसे/लेकिन वह डरा नहीं/ और इसीलिए मरा नहीं।। डर जाता/तो मर जाता/ उल्टे, डर मर गया/ नचिकेता का/ इसीलिए आज भी जीवित हैं वह/ जीत गया नचिकेता/ और हार गई मृत्यु/हार गया बाजश्रवा।

14. राजनारायण सिंह ठाकुर (24-04-1936, 04-08-2004), संजोया तो बहुत था रुख बदलते संसार में। कुछ रह गया कुछ बह गया निर्मल समय की धार में।। (चिर आनंद), जन्म बहादुरगढ़, मेरठ में। माता द्रौपदी देवी, पिता ठाकुर देवदर्शन सिंह। जिला पंचायत अधिकारी पद से सेवानिवृत्त, विधाएं- कविता व लेख, यथा-गर्मी का मौसम गया। रुत बरखा की आई। धरती ने ली अंगड़ाई/ चहुं ओर हरियाली छाई/ कोयल कू-कू गीत सुनाए/सजनी तेरी याद सताए।। दिन सुहावने रातें भीगीं/ मन में नई उमंगें जागी/ इस वर्षा में तुम आओगे/सोया भाग्य जगाओगे।। 15. विजय कुमार गौतम (19-06-1937, 20-12-1998), कविता कहानी लेख निकले जिस कलम की नोक से। विदाई कर दी उसकी बहुत जल्दी लोक से।। (चिर आनंद), पिता-कृष्णलाल गौतम, माता-सत्या देवी। डीपीआरओ कार्यालय में वरिष्ठ अधिकारी सेवानिवृत्त। विधाएं- कविता व कहानी- वीर प्रताप व अन्य पत्र-पत्रिकाओं से प्रकशित-माहनामा अक्स के विशेष कहानी लेखक व रिपोर्टर। 16. कैलाश भार्गव (08-07-1937, 15-01-1976), फूलों ने कुछ दिन ही सही, इस उपवन को महकाया है। जो खिल न सकी कलियां, उनके प्रति दर्द उमड़ कर आया है। (चिर आनंद), पिता-पं. बालकृष्ण शर्मा, माता सुंदरी देवी। जन्म- शिमला में -निवासी नाहन, सिरमौर। विधाएं- बहुमुखी व विविध आयामी व्यक्तित्व।

भारतेंदु बाबू हरिश्चन्द्र की भांति अल्पकालीन जीवन में अपनी अमिट छाप छोडऩे वाले कैलाश भार्गव ने साहित्य में, कविता, कहानी, नाटक, लेख, सम्पादन आदि विभिन्न विधाओं में बड़ी निष्ठा से अपना योगदान दिया। लेखन- संस्था ‘साहित्य संसद में सक्रिय, ‘साहित्य दर्शन पत्रिका की स्थापना व सम्पादन, सिरमौर ‘बन्धु समाज नामक संस्था के प्रणेता, ‘वीर हिमाचल में नवांकुरों को अवसर दिया। नाटक लेखन व मंचन और फूल मुरझा गए, तलवार का धनी, वह सुबह कभी तो आएगी, न्याय आदि नाटकों में नाहन की पहचान बनाई, ‘साहित्य दर्शनÓ पत्रिका को लंबे समय तक सम्पादित कर नवांकुरों को आगे बढ़ाया।

सिरमौर के दिवंगत साहित्यकारों को नमन

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)
नाहन में पहले टेबल टेनिस टूर्नामेंट के संयोजक, क्रिकेट क्लब में सक्रिय भूमिका, अखिल भारतीय युवा कल्याण संघ के संयुक्त सचिव रहते हुए युवाओं को साहित्य शिक्षा, खेल व समाज सेवा में प्रेरित किया। साथ ही जिला रोजगार कार्यालय में सेवारत रहते हुए एमए, एलएलबी की उपाधि अर्जित की। उन्होंने तत्कालीन सिने जगत के लेखकों, नायक-नायिकाओं, संगीतकारों व गीतकारों के बड़े प्रयत्न से भेंटवार्ताएं लेकर अपनी पत्रिका में प्रकाशित कीं। उनके देेहावसान पर सत्येन शर्मा ने- ‘संभावनाओं की असामयिक मृत्यु : स्व. कैलाश भार्गव शीर्षक से उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए लिखा था कि ऐसी विभूतियां कभी-कभार ही जन्म लेती हैं। कविता अंश-बन्धु तुम कुछ सुनते हो/ मुझे आज दोषी समझा गया है/ मेरे खिलाफ फतवा दिया गया है/ जानते हो दोष मेरा-क्या है/मैं लीक से हट कर चलता रहा/ सम्पर्कों की दोहरी ब्लेड से अपने को बचा गया/ अपने परिवेश में रह कर/ अपनों की बात सोचता/अपनों की सांस की गर्मी महसूसता रहा।। 17. इंजी.- नरेन्द्र मोहन रमोल (02-02-1939, 26-10-2020), लिखते रहे गाहे-ब-गाहे पत्रकारी कर गए।

निर्मम कोरोना काल में दिल में उदासी भर गए।। (चिर आनंद), जन्म-ग्राम- खैना- भरोग बनेड़ी-पांवटा साहिब, स्नातक अभियंता स्व. रमोल जी-औद्योगिक प्रशिक्षण केन्द्र पौंटा साहिब से प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के बाद पंजाब केसरी आदि पत्रों के लिए पत्रकारिता करते रहे। और कविता-कहानी व लेख उनकी प्रमुख विधाएं थी। 18. प्रो. आनंद बंसल (03-06-1941, 28-08-2018), काव्य का हर रूप साधा शिल्पकारोंं की तरह। ऐसे रहे, जब तक रहे, ज्यों सर्व प्यारों की तरह।। (चिर आनंद), जन्म रुद्रपुर- विकास नगर- देहरादून, शिक्षा- एमए, एमफिल, पीएचडी स्वर्ण पदक द्वित्व -शोध ”आधुनिक कविताÓÓ प्रकाशित कविता संग्रह (1) घासी राम का घोड़ा (2) आग की गन्ध (3) ‘एक अपने के जाने परÓ सुपुत्र अमित बंसल द्वारा शीघ्र प्रकाश्य। कार्यक्षेत्र – ऊना, रामपुर बुशहर, नाहन, पौंटा महाविद्यालय। विचार जन्य बौद्धिक काव्य रचना करने में अद्भुत कौशल के धनी। मेरे देखते-देखते/ वह घुटने के बल चला। दादा के कन्धों पर मचला/ बस्ता उठा स्कूल गया/ धीरे-2 उसकी मसें भागीं/ फिर उग आई दाढ़ी/ पहले काली थी/ फिर कभी पसीने से/ कभी आंसुओं से/ भीगते-भीगते हो गई सफेद/ अख्तर मियां की दाढ़ी से/ गांव वालों की चिंता स्वाभाविक है/ क्योंकि अख्तर की बहू ने कोई बेटा पैदा नहीं किया/ तीन बेटियां अख्तर की गोद में डाल कर/ अल्लाह को प्यारी हो गई-कमबख्त।। 19. स्वर्गीय मुनीश्वर वालिया (18-10-1936, 17-02-2014), सचमुच मनन किया मुनियों सा जीवन के सब पक्षों पर। कलम विचरती रही उम्र भर आत्म तत्व के कक्षों पर।।

(चिर आनंद), प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी पद से सेवानिवृत्त श्रद्धेय मुनीश्वर वालिया जी की ही पंक्तियां उन्हीं के हस्ताक्षरों सहित प्रस्तुत कर रहा हूं जो कि उनके लेखन का साक्षात प्रमाण हैं। सिरमौर की दिवंगत साहित्यिक विभूतियों का संक्षिप्त परिचय कराते हुए मैं सुधी पाठकों को इस सच से अवगत कराना भी अपना धर्म समझता हूं कि मेरी ओर से भरसक प्रयत्न करने पर भी बहुत से लिखने वालों के छूट जाने की पूरी संभावना है। क्योंकि स्वयं मेरी जानकारी के अनुसार भी श्रद्धेय आई. एन. बाली जी, स्व. सतनाम सिंह चावला, सुनील कक्कड़, राघवानंद सिरमौरी, नयन सिह शालीन, पूर्व आकाशवाणी उद्घोषक, दीपक भंडारी जी, उजागर सिंह तोमर, ओंकार नाथ भारद्वाज, महेंद्र प्रताप जोशी, हेम चंद शर्मा, प्रभृत्ति अन्य विद्वानों के संदर्भ में कोई जानकारी नहीं जुटा सका। अत: इस शृंखला में अन्य बहुत से लोग छूट गए हो सकते हैं। अलबत्ता मुझे न्यूनाधिक सूचना जुटाते हुए जो कुछ रिक्त मधुर अनुभव हुए हैं, उन अनुभव दाताओं का हृदय से आभार व्यक्त करते हुए अनुगृहीत हुआ हूं कि इन दिवंगत पुण्यात्माओं के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित न करने की जो पीड़ा मुझे सालती थी, उसका किंचित शमन करने पाने में सफल हुआ अनुभव कर परितोष लाभ उठा पाया हूं। आशा करता हूं पाठक वृंद समय निकाल कर इन्हें पढ़ सकेंगे। अंत में श्रद्धेय डा. खुशीराम गौतम के विषय में तो इतना ही कहूंगा कि -‘सरल और सादे जगत की सृष्टि रचकर शोध में। शायद समर्पित कर दिया सब इस धरा की गोद में।।                                                                                                              -चिर आनंद

इतिहास की गली में अंधेरों का मार्मिक चित्रण   

उपन्यास ‘मेरा दर्द न जाणै कोय अपने भीतर अतीत के ढहते दुर्ग में फंसी एक महिला देह को निहारते हुए, स्त्री-पुरुष संबंधों के कई पर्दे हटा देता है। उपन्यासकार गंगाराम राजी का नाम ही इतने सबूत लेकर आता है कि उनके भीतर के इतिहास को अलग करना कठिन हो जाता है, लेकिन इस बार यह लेखक कांगड़ा के प्राचीन अध्यायों के बीच इतिहास को गुम करके सुजानपुर किले की कंदराओं में आज भी कहीं एक बिलखती प्रेम कथा को सुनता है और शौर्य की बेदाग गाथा लिखते महाराजा संसार चंद के पक्ष में आई तमाम उपमाओं की मासूमियत को कहीं पीछे छोड़ देता है।

कुछ पाठक इसे इतिहास के खिलाफ खड़े साक्ष्यों की साजिश मानेंगे, लेकिन कहीं तो इतिहास के खंडहर कसूरवार हो जाते हैं। यह उपन्यास राज धर्म की चादर पर चस्पां गुरूर और क्षत्रिय ताकत के फितूर के सामने सवालों के दायरे बड़े कर देता है। राजा के साथ इनसाफ केवल उस दृष्टि में होगा, जब हम उन तमाम किस्सों को देखेंगे जो कृष्ण से राम के दरबार तक औरत के प्रति वक्त के न्याय में एकतरफा पुरुष समाज का पौरुष देखते हैं या इतिहास की तरह मान लेंगे कि हर ताकत के झंडे के नीचे कितनी ही ‘नोखु नोच दी गईं। यहां कहानी कई प्रतीक-परिदृश्य खड़े करती है, लेकिन इतिहास की गली में अंधेरों का मार्मिक चित्रण करते हुए बेबाक हो जाती है। जैसे सदियों की संवेदना को लेखन के हृदय ने महसूस किया हो और सुजानपुर के मैदान पर लोक कथन की दूब निकल आई हो।

नन्हें राजा संसार चंद के जज्बात को पकड़ते गंगाराम राजी, उनके शक्ति संचयन को असीमित शौर्य के पालने में देखते हैं। राजा के व्यक्तित्व को लेखक कून्हों (राजा का जिगरी दोस्त) के मार्फत चमकाता है और फिर इसी से निकले द्वंद्व, आशंका और विस्तारवादी सोच को निचोड़ कर सामंतवादी प्रथाओं के मजबूत तालों को खोलता है, एक-एक करके। इतिहास के भीतर की रोचकता के नजरअंदाज पहलुओं में संवाद का अनूठा प्रवाह डालकर गंगाराम उपन्यास के साहित्यिक प्रवाह को गति देने में इतने सफल माने जा सकते हैं कि पाठक पूरी कहानी को एक घूंट में पी सकता है। उपन्यास की पृष्ठभूमि में इतिहास भले ही अपने कद से छोटा रह जाए, मगर संवाद की शैली में हिमाचली भाषा पुष्ट होती है, ‘कू्न्हों प्यारेया मुच्छा थलें। न राजा न, मुच्छा ऊप्पर ही रैहियां!! मिंजो साहम्णे नीं!!! सारेयां साहम्णे ही ऊप्पर रैहियां!!!! उपन्यास राजा के भीतर की उथल-पुथल और प्रभुत्व कायम रखने की रणनीति में सारे गुण और राजपाठ के तत्व बटोरते-बटोरते असाधारण ढंग से उन खामियों की तरफ ले जाता है, जहां प्रेम के मायने दरबारी या औरत का वजूद भी शक्ति के तराजू में हल्का हो जाता है। महल के चाक चौबंद इरादों के बाहर अंतत: राजा एक अति सुंदर गद्दण की आंखों में कैद होकर किस तरह अंधे फैसले करता है, इसी जद्दोजहद में बुना गया उपन्यास राजा के इस आचरण की मुखाल$फत करता है। एक राजा को अपहरणकर्ता होने की छूट क्यों मिले या सौंदर्य पर पहला हक राजा को क्यों मिले, इसे लेकर लेखक राजधर्म और न्याय प्रणाली पर गंभीरता से विवेचन करते हैं।

किसी की सुंदर पत्नी को पति एवं प्रेमी से छीन लेना और उसे अपनी ही महारानी की सौत बना देना किस हिसाब से न्याय है। राजा संसार चंद के साथ उनके सखा कून्हों व गद्दण नोखु के संवाद, कहानी को नैतिकता का साम्राज्य बनाने में मदद करते हैं, लेकिन यहां राजा बार-बार हारता है। अपने बचपन के दोस्त की मूंछें मुंडवा कर वह हारता है और नोखु को गुलाबु नाम देकर भी वह हार जाता है। शौर्य, पराक्रम, उदारता, न्यायप्रियता व संस्कृति के पोषक रहे राजा संसार चंद, सौंदर्य की कैद में कितने कमजोर हुए, इसका आकलन हर पाठक करेगा।

प्रेम की ज्वाला क्या कभी भी गरीब के चूल्हे पर चढ़कर भस्म हो सकती है, यह सोचते हुए नोखु का पति धन्ना राजा के दरबार तक संघर्ष करता है, लेकिन राज सत्ता की कठोरता उसे असहाय बना देती है। महल की रानी और नोखु से गुलाबु बनाकर भी राजा अपने सौंदर्य बोध के इस नगीने को धारण नहीं कर पाया और आज वर्षों बाद उसी सुजानपुर में होली के रंगों के बीच कहीं बदरंग प्रेम गाथा सिसक रही है। एक अद्भुत कहानी को अंजाम तक पहुंचाते हुए गंगाराम राजी, ‘मेरे दर्द न जाणै कोय के बहाने अपनी रचनाधर्मिता को पूर्णता प्रदान करते हैं। उपन्यास के कई पात्रों से हटकर इस सृजन के भी कई पात्र हैं और जिनका उल्लेख लेखक मुख्य भूमिका में करता है।

उपन्यास को गंगाराम राजी के मनचित्र में डालने के लिए प्रो. सरोज परमार की भूमिका के अलावा पवनिन्द्र कुमार गुप्ता, डा. सोनिका, प्रो. आरसी शर्मा व त्रिलोक मेहरा का योगदान पूरे तानेबाने के यथार्थ खोजता रहा। इससे पूर्व ‘एक थी रानी खैरीगढ़ी और ‘सिंध का गांधी जैसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर गंगाराम राजी ने अतीत को व्याख्या दी थी, लेकिन यहां वह इतिहास की परत से ‘नोखु व राजा के मध्य स्त्री व सद्बुद्धि की सीमा रेखा खींचकर राजसी उल्लंघन की टीस को महल की दीवारों पर उकेर देते हैं। यह उपन्यास किसी सफल फिल्म की पटकथा और हिमाचली भाषा में लिखने की संभावनाओं को उत्प्रेरित करता है।
                                                                                                                                                          – निर्मल असो

उपन्यास का नाम : मेरो दर्द न जाणै कोय
लेखक : गंगाराम राजी
प्रकाशक : नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
कीमत : 450 रुपए


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