छोटे बाबू, बड़े बाबू

By: May 24th, 2022 12:05 am

आनंद फिल्म के मशहूर डायलॉग ‘बाबूमोशाय, जि़ंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है…उसे न आप बदल सकते हैं, न मैं!’ सुनते ही मुझे हर विभाग के अधीक्षक यानी बड़े बाबू और लाट साहिब माने उससे भी बड़े अर्थात् विराट बाबू, जो बाबूशाही की परिभाषा को सही मायनों में यथार्थ में बदलते हैं और जिनकी छत्रछाया में कुछ भी फलता-फूलता नहीं, की बरबस याद आ जाती है। अक्सर इन छोटे-बड़े बाबुओं को यह कहते सुना जा सकता है कि हम ऐसे लोगों की तक़दीर, जो हमारे जूते में पाँव डाल कर, घिसट कर नहीं चलते, कुछ इस तरह लिख देते हैं कि ऊपर वाला भी उसे सिर्फ अगले जनम में ही बदल सकता है। यह बात दीगर है कि हाई या सुप्रीम कोर्ट में उनका लिखा अक्सर बदल जाता है। पर तब तक व्यक्ति वास्तव में अगला जनम लेने की कगार तक पहुँच चुका होता है। पर जिन लोगों का वास्ता छोटे-बड़े बाबुओं से पड़ा है, उन्हें एहसास है कि एक होशियार बाबू की हैसियत और असर, अपने से बड़े अफ़सर या नेता से कहीं से अधिक होता है। होशियार बाबू के सामने अफ़सर या नेता की औक़ात जोरू के ग़ुलाम की तरह होती है। मंझा हुआ बाबू अपने त्रिया चरित्र से अफ़सर को अपनी लेखनी से उसी तरह बाँध लेता है जैसे एक त्रिया चरित्र भोदूँ पति को अपने पल्लू से बाँध लेती है। अथश्री बाबू पुराण की जो कथाएं प्रसिद्ध हैं, उनमें असली बाबू बनने के विशिष्ट गुण शामिल नहीं हैं। हाल ही में सम्पन्न शोध के आधार पर ये गुण इस प्रकार हो सकते हैंः भले ही उस तक पहुँचना उतना कठिन न हो जैसे बारह देशों की पुलिस का डॉन तक, लेकिन बिना नेग या उपहार के उसे ढूँढ़ा न जा सके।

 वह अव्वल दरजे का चापलूस और ढीठ हो। उसमें नारद की भांति एक टेबल से दूसरे टेबल और एक कमरे से दूसरे कमरे तक ख़बर पहुँचाने के अलावा ज़रूरत पड़ने पर आग लगाने के गुण होने चाहिए। उसका हाजमा इतना पक्का हो कि बॉस के कमरे से केवल वही बात सामने आए, जिसे वह अपने फ़ायदे के लिए बाहर लाना चाहता है। उसमें बॉस के नाम पर सभी अधिकारियों और कर्मचारियों को डराने-धमकाने का हुनर होना चाहिए। एक सफल त्रिया चरित्र की भांति उसमें न केवल अपने वर्तमान अफ़सर को बाँधने का गुण हो बल्कि हर आने वाले नए अफ़सर को रिझाने का हुनर भी इस तरह कूट-कूट भरा हो कि उसका पातिव्रत्य कभी खंडित होता न दिखे। वह अपने चेहरे पर ऐसा गाम्भीर्य ओढ़े रखे जिससे यह लगे कि पूरे विभाग का दायित्व उसके ही सिर पर है। अपने मतलब के काम को छोड़ कर उसमें दूसरों के काम को भूलने का गुण होना चाहिए। बॉस की अनुपस्थिति में वह न केवल असली बॉस हो बल्कि उसकी उपस्थिति में भी उसकी शक्तियों के अपरोक्ष इस्तेमाल में सक्षम हो। वह इतना धूर्त और पाजी हो कि उसके कारनामों के लिए वर्तमान या भविष्य में उसे कभी न पकड़ा जा सके, भले ही उसके अफ़सर को काला पानी हो या फांसी की सजा। उसमें दफ़्तर या विभाग में पास होने वाले हर बिल में कमीशन खाने का हुनर कूट-कूट भरा हो। उसे फील्ड कार्यालयों की भौगोलिक स्थिति का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए ताकि वहां से वह अपनी ज़रूरतों का पूरा सामान निःशुल्क मँगवा सके। उसमें अपने अफ़सर से अधिक गिफ्ट लेने और रिश्वत खाने का माद्दा और पचाने की शक्ति हो। बॉस के लिए जुगाड़े या ख़रीदे जाने वाली हर चीज़ उसके घर भी पहुँचे। मौक़ा मिलने पर वह बॉस के सामान पर उसी तरह हाथ साफ करने में सक्षम हो जैसे चुनावों में वर्तमान ईमानदार सरकार ईवीएम पर हाथ साफ करती है। नोट : इस शोध में आम दफ़्तर के बड़े बाबू से लेकर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव तक शामिल हैं।

पी. ए. सिद्धार्थ

लेखक ऋषिकेश से हैं


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