सद्भाव की भावना

By: Jun 25th, 2022 12:20 am

गतांक से आगे…
हम अभ्यस्त हो गए हैं। क्या यह सच नहीं है? हम एक साथ मिल नहीं सकते, हम एक दूसरे से प्रेम नहीं करते, हम बड़े स्वार्थी हैं, हम तीन मनुष्य भी एक दूसरे से घृणा या ईष्र्या किए बिना एकत्र नहीं रह सकते। हाय सदियों की घोर ईष्र्या द्वारा हम लबालब भरे हुए हैं। हम सदा एक दूसरे से असूया करते हैं। क्यों अमुक व्यक्ति को मुझसे अग्रस्थान दिया गया? क्यों हम अमुक से बड़े न हो सके। हमारी सर्वदा यही चिंता बनी रहती है। यहां तक ईश्वर की पूजा में भी हम अग्रस्थान पाने के लिए लालायित रहते हैं, दासता की इस निम्र स्थिति में हम पहुंच गए हैं।

ईष्र्या नहीं सद्भाव चाहिए
इस घृणास्पद दुष्टिबुद्धि को त्याग दो, कुत्तों की तरह परस्पर झगडऩा, एक दूसरे पर भौंकना बंद कर दो। शुभ उद्देश्य, सही साधन एवं सात्विक साहस के अधिष्ठान पर खड़े होओ और वीर बनो। सर्वप्रथम हमें ईष्र्यालु वृत्ति के इस धब्बे को जिसे प्रकृति सदैव गुलामों के मस्तिष्क पर अंकित कर देती है, मिटा देना होगा। किसी से ईष्र्या मत करो। सत कार्य में रत प्रत्येक कार्यकर्ता का हाथ बटाने को तत्पर रहो। तीन लोकों में प्रत्येक प्राणी के लिए सद्भाव रखो। आखिर यह राष्ट्र हिंदू अपने अद्भुत बुद्धिबल एवं अन्य गुणों के रहते हुए भी खंड-खंडित क्यों हुआ? मेरा उत्तर एक ही है ईष्र्या के कारण। इस अभागी हिंदू जाति के समान संसार में कहीं भी लोगों में एक दूसरे के प्रति इतनी घृणास्पद ईष्र्या नहीं रही, कहीं भी लोग एक दूसरे के यश और प्रतिष्ठा के प्रति इतने ईष्र्यालु नहीं रहे। और यदि कभी तुम्हें पश्चिम यात्रा का अवसर मिला तो तुम पाश्चात्य देशों में इस दुष्प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव अनुभव करोगे। भारत में तीन व्यक्ति पांच मिनट के लिए भी मिलकर कार्य नहीं कर सकते। यहां प्रत्येक व्यक्ति सत्ता के लिए संघर्ष करता है, जिसके परिणामस्वरूप कालांतर में संपूर्ण संगठन संकट में पड़ जाता है।

शक्ति का रहस्य एकता और संगठन में निहित है
मुझे अथर्ववेद संहिता की एक ऋचा याद आ गई, जो सदा ध्यान में रखने योग्य है। उसमें कहा गया है…

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानांनमुपासत्ते।।
कि तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ, क्योंकि प्राचीन काल में एक मन होने के कारण ही देवताओं ने हविर्भाग पाया। देवता मनुष्य द्वारा इसलिए पूजे गए कि वे एकचित्त थे। एक मन हो जाना ही समाज का रहस्य है। – क्रमश:


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