लाल चंद प्रार्थी का उर्दू काव्य

By: Jun 26th, 2022 12:06 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -20

विमर्श के बिंदु

  1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
  2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
  3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
  4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
  5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
  6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
  7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
  8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
  9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
  10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
  11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

डा. कुंवर दिनेश सिंह, मो.-9418626090

लाल चंद प्रार्थी ‘चांद कुल्लवी’ (3 अप्रैल 1916, 11 दिसंबर 1982) हिमाचल के आसमाने-सियासत और अदबी उ़फु़क के दरख़शां चांद थे। वे हिमाचल के नग्गर (कुल्लू) गांव से थे। उनका कलाम बीसवीं सदी, शम्मा और शायर जैसी देश की चोटी की उर्दू पत्रिकाओं में स्थान पाता था। कुल-हिन्द और हिन्द-पाक मुशायरों में भी उनके कलाम का जादू सुनने वालों के सर चढ़ कर बोलता था। वे संगीत में भी पारंगत थे। उन्होंने हिमाचल सरकार के कई मंत्री पदों को भी सुशोभित किया था। प्रार्थी जी का जन्म हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जि़ला के नग्गर ग्राम में 3 अप्रैल 1916 को हुआ था। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे लाहौर चले गए थे जहां से उन्होंने आयुर्वेदाचार्य की उपाधि ग्रहण की थी।

लाहौर में रहते हुए उन्होंने ‘डोगरा सन्देश’ और ‘कांगड़ा समाचार’ इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित रूप से लिखना शुरू कर दिया था। आलेख एवं स्तम्भ लेखन के साथ-साथ उनकी अभिरुचि काव्य-सृजन, विशेषतया उर्दू ग़ज़लगोई में थी। यही नहीं नृत्य एवं अभिनय में भी उनकी विशेष प्रतिभा थी। उनकी पुस्तक ‘कुलूत देश की कहानी’ पौराणिक काल से वर्तमान तक कुलूत क्षेत्र के सांस्कृतिक इतिहास को काव्यात्मक एवं भावात्मक ढंग से कहती है। इस पुस्तक की भूमिका में हिमाचल प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री एवं स्वयं विद्वान् साहित्यकार डा. यशवंत सिंह परमार लिखते हैं : ‘कुलूत देश की कहानी कहते हुए लेखक ने लोक-जीवन के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर यहां की भाषा-बोली, वेशभूषा, खानपान, नाच-गाना, तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज़, रहन-सहन तथा रूढि़यों और मान्यताओं पर बड़े रोचक ढंग से प्रकाश डाला है।’ ‘चांद कुल्लुवी’ के नाम से प्रकाशित लालचन्द प्रार्थी का ग़ज़ल संग्रह ‘वुजूद-ओ-अदम’ उनकी दार्शनिक सोच और मूल्यपरक चेतना का परिचायक है। संग्रह का शीर्षक स्वयं में गहन दार्शनिक संवेदना से परिपूर्ण है ः इसमें ‘वुजूद’ और ‘अदम’ दोनों ही शब्द स्वयं में विशिष्ट अर्थ लिए हुए हैं। ‘वुजूद’ के मानी हैं ‘मौजूदगी’ और ‘अदम’ के मानी हैं ‘लामौजूदगी’ यानी अस्तित्व और अनस्तित्व यानी होना और न होना।

इस तरह शायर चांद कुल्लुवी के अश’आर में फलसफा-ए-वुजूदियत और लामौजूदियत के मुख़तलि़फ रंग और रूप देखे जा सकते हैं, जिनमें जि़न्दगी की जद्दोज़हद और माद्दरूपरस्त दुनिया की कशिश-ओ-कराहत के जज़्बात, यानी वस्तुवादी अथवा भौतिकतावादी संसार से आकर्षण-विकर्षण, लगाव-अलगाव के भाव मुखर हैं। लेकिन चांद कुल्लुवी का शायर जीवन के संघर्ष में कदाचित् निराश-हताश नहीं होता, उसका दृष्टिकोण हमेशा आशावादी है, न केवल स्वयं के लिए, अपितु मानवता के लिए धनात्मक और उत्साहवर्द्धक है। शीर्षक ग़ज़ल के इस शे’र में सकारात्मक सोच देखे बनती है :

‘उड़ान उसकी वुजूद-ओ-अदम की हाइल है

कहो ख़याल से अब यूं न लड़खड़ा के चले।’

मनुष्य के अपने ही ख़याल अथवा विचार उसके वुजूद-ओ-अदम यानी अस्ति-नास्ति को सुनिश्चित करते हैं। अस्तित्व और अनस्तित्व के मध्य संघर्षरत मानव अपने विचारों के बल से, सतत आशा के संबल से तथा प्रबल इच्छाशक्ति से ही यथेष्ट लक्ष्य की प्राप्ति करने में सफल हो सकता है। जैसा कि संत कबीर कहते हैं : ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत…।’ यानी मनोस्थिति एवं संकल्पशक्ति  के अनुसार ही अभीष्टसिद्धि मिलती है। फलस़फ-ए-वुजूद-ओ-अदम के बारे में चांद कुल्लुवी का शे’र मिजऱ्ा ग़ालिब के इस शे’र से भी इत्ति़फाक़ रखता है

‘पूछे है क्या वुजूद-ओ-अदम अहल-ए-शौक़ का

आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक़ हो गए।’

यानी विषयासक्त, व्यसनी अथवा इच्छाओं के वशीभूत व्यक्ति के अपने उन्माद की अग्नि ही उसके ‘ख़स-ओ-ख़ाशाक़’ यानी घास-फूस व कचरे जैसे अस्तित्व जलाकर भस्म कर देती है। दूसरे शब्दों में अपनी ही इच्छा-अनिच्छा तथा अपना ही कर्म-अकर्म-विकर्म व्यक्ति के लक्ष्य-साधन की सफलता-विफलता का निर्धारण करता है। यानी सफलता अथवा सिद्धि की उद्दीपन-शक्ति आंतरिक है, बाह्य नहीं। चांद कुल्लुवी के एक अन्य शे’र में उनके फ़लस़फ-ए-वुजूदियत की बारीकी और लता़फत देखिए

‘ये बेनियाज़ी-ए-़िफत्रत का था कमाल कि हम

चराग़-ए-ज़ीस्त लिए साअने हवा के चले।’

यानी विषयों के प्रति निःस्पृहता अथवा अनासक्ति के बल से व्यक्ति जीवन-दीप प्रज्वलित कर अनिल-वेग में से भी निःशंक व निर्भय होकर गुज़र जाता है। कर्म के प्रति आसक्ति अथवा मोह के कारण ही कर्त्ता उसमें आबद्ध रहता है और विलोम परिस्थितियों में दुःख पाता है। चांद कुल्लुवी का मानना है कि लक्ष्य की सिद्धि-असिद्धि व्यक्ति के आत्मबल पर निर्भर होती है। उसके संकल्प एवं निश्चय की दृढ़ता पर निर्भर होती है। उसकी पल-पल की सजगता पर निर्भर होती है। मात्र एक पल की कोताही या ग़़फ़लत सारे प्रयास को विफल कर सकती है, जैसा कि इस शे’र में ज़ाहिर है ः

‘पल भर में ही नविश्तः-ए-कि़स्मत बदल गया

मन्जि़ल के पास पांव हमारा फि़सल गया।’

उर्दू काव्य के रचयिता चांद कुल्लुवी

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)

‘नविश्तः-ए-कि़स्मत’ यानी तक़दीर की तहरीर या भाग्य की लिखावट का आधार अपना ही कर्म होता है। इसी विश्वास से चांद कुल्लुवी के अश’आर वुजूद-ए-ख़ुद और ख़ुदशनासी पर ज़ोर देते हैं। यानी आत्मज्ञान अथवा आत्मबोध पर केन्द्रित हैं। ख़ुद की खोज, ख़ुद की पहचान, ख़ुद का इल्म, ख़ुद की समझ शायर के आध्यात्मिक लक्ष्य को उजागर करती है, जैसा कि एक छोटी बहृ की ग़ज़ल के अश’आर में ज़ाहिर है 

‘जहां मैं हूं वहां कोई नहीं है

मेरी आवारगी है और मैं हूं

बढ़ा जाता हूं ख़ुद राह-ए-अदम पर

तुम्हारी रोशनी है और मैं हूं।’

शायर की आवारगी उसके ख़ुद के वुजूद-ए-हक़ीक़ी की खोज की द्योतक है और अपने वुजूद के बारे में सतत सजगता दर्शाती है। साथ ही ‘राह-ए-अदम’ पर बढ़ते जाने से आशय है मौजूदगी से लामौजूदगी यानी भौतिक संसार से आध्यात्मिक प्रकाश में विलय की ओर अग्रसर होना। इस लोक के माया के अंधकार से मायातीत, ईश्वरीय सान्निध्य अथवा परमात्मा से मिलन की ओर उन्मुख होना। वैदिक मन्त्र ‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतम् गमय’ को शायर अपने अन्दाज़ में बयान करता है ः ‘राह-ए-अदम पर/तुम्हारी रोशनी है और मैं हूं।’ एक दीगर शे’र में भी रूहानी रोशनी को अपने वुजूद की अहम वजह बताते हुए शायर कहते हैं

‘मेरा वुजूद तेरे शौक़ का नतीजा है

इसीलिए तो ये साए से दूर है बाबा।’

शायर के शौक़-ए-तसव्वुफ़ और रूहानियत की प्यास जितनी उत्कट और तीव्र है, उतनी ही सुरूरअफ़्ज़ा यानी आनन्दवर्द्धक भी है। इस प्यास की निरन्तरता बनी रहती है जिसमें कोई आसूदगी और तुमानियत यानी सन्तुष्टि और संपूर्ति नहीं है। जीवन के अन्तर्विरोधात्मक/द्वन्द्वात्मक अस्तित्व एवं उससे मुक्त होकर द्वन्द्वातीत आध्यात्मिक जागृति के उच्चतर एवं बृहत्तर अस्तित्व की ओर संयुत होने के शब्दातीत आभास को शायर ने विरोधालंकार का प्रयोग करते हुए इस शे’र में बयान किया है : ‘घटाएं पी के भी सहरा की प्यास रखता हूं

न जाने प्यास में कैसा सुरूर है बाबा।’

ज़ाहिर है सुरूर-ए-रूहानियत, ‘सुरूर-ए-दाइमी’ यानी हमेशा रहने वाला आनन्द है। निःसन्देह चांद कुल्लुवी एक दार्शनिक एवं अध्यात्मवादी कवि हैं। उनके लिए धर्म का अर्थ कर्त्तव्यपरायणता है, आस्था का अर्थ अध्यात्म की जागृति है। उन्होंने आत्म-साक्षात्कार एवं आत्मज्ञान को धर्मास्था का पर्याय माना है, औपचारिक, विध्यात्मक, आनुष्ठानिक कर्मकाण्ड को नहीं। उनका आध्यात्मिक चिन्तन द्वैत/अद्वैत, सगुण/निर्गुण, साकार/निराकार के वाद-विवाद से परे है। आन्तरिक श्रद्धा को महत्त्व देते हुए और बाह्याडम्बर को नकारते हुए वे कहते हैं 

‘रख तू किसी के दर पे जबीं अपनी या न रख

दिल से मगर ख़ुदा का तसव्वुर जुदा न रख।’

इन पंक्तियों में स्पष्ट है कि जब तक हृदय में ‘ख़ुदा का तसव्वुर’ यानी ईश्वर का ध्यान रहेगा, कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा। जो होगा ईश्वरेच्छा से होगा। ईश्वर के नाम पर दूसरों से भेदभाव और घृणा करना मानवधर्म नहीं है। धर्मान्धता मानवता के विरुद्ध है। ऐसा ही ‘सेक्युलर विज़न’ अथवा सर्वधर्म-समभाव-युक्त एवं परस्पर-सत्कार-भाव-युक्त दृष्टिकोण प्रार्थी जी के इस शे’र में देखा जा सकता है

‘दिलों के फासले कुछ कम करो ख़ुदा वालो!

नमाज़-ए-जि़न्दगी किरदार के सिवा क्या है।’

इस बात में कतई सन्देह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति से अपेक्षित है कि वह अपना ‘किरदार’ बख़ूबी निभाए, यानी अपने कर्त्तव्य का पूरी निष्ठा से निर्वाह करे, वास्तव में कर्त्तव्य का निर्वहन ही पूजा है, ‘किरदार’ की, ़फर्ज़ की अदायगी ही सच्ची इबादत है, ‘नमाज़-ए-जि़न्दगी’ है। परमात्मा की सृष्टि इतनी बृहत् और प्रसृत है, कि इसे पूर्णता में समझ पाना क्षुद्र अस्तित्व वाले मानव के वश में नहीं है। ‘ज़मीं’ और ‘आसमां’ के बिम्बों के माध्यम से मानव और ईश्वर के मध्य के रहस्यात्मक सम्बन्ध को प्रार्थी जी के भीतर का शायर कुछ इस तरह से महसूस करता है

‘तब तक घुटा-घुटा-सा रहेगा ज़मीं का दिल

जब तक समझ न पाएगी ये आसमां की बात

जब अर्सरू-ए-हयात है अहल-ए-ज़मीं पे तंग

ऐसे में क्या सुनेगा कोई आसमां की बात।’

‘ज़मीं’ और ‘आसमां’ के मध्य, पुरुष और प्रकृति के मध्य, आत्मा और परमात्मा के मध्य, मानव और ईश्वर के मध्य के अन्तर्भूत, अन्तःसम्बद्ध, अन्तर्निर्भर, अविभाज्य, अवियोज्य, अविच्छेद्य, अपरिवर्त्य, अपरिमेय, अपरिभाषेय एवं अनन्य सम्बन्ध को उदाराशयता, उदारमनस्कता, निष्कपटता एवं निष्पक्षता से समझा जा सकता है, पूर्वाग्रह, स्वार्थ और संकीर्ण मानसिकता से नहीं। समग्र मानवता परस्पर निर्भर है। अतएव अन्तःसम्बद्ध है। यह बात समझ ली जाए, तो मानव-मानव के मध्य का पाटन नहीं रहेगा। इस एकात्मकता को बड़ी सहजता से प्रार्थी जी इन पंक्तियों में कहते हैं ः

‘मुबहम बनी रहेगी यूं ही दो जहां की बात

जब तक समझ न पाए कोई दम्यां की बात

हैं एक ही फसाने की कडि़यां जुदा-जुदा

मेरी जबीं की हो कि तेरे आस्तां की बात।’

-डा. कुंवर दिनेश सिंह

-(शेष अगले अंक में)

चिंतन : संयमित आदर्श के राम और कृष्ण का संकल्प

वल्लभ डोभाल, मो.-8826908116

भारत की प्राचीन संस्कृति के अंतर्गत राम और कृष्ण, दो ऐसे अनुकरणीय आदर्श चरित्र हैं जो दुनिया के किसी इतिहास में नहीं मिलते। जीवन को आदि से अंत तक जानने-समझने के लिए ‘रामचरित मानस और गीता’ दो ही स्रोत हैं। एक में कर्म की व्याख्या है तो दूसरे मेें जीवन का सौंदर्य और स्पंदन है। जिनका गायन-मंचन युगों से होता चला आया है। लेकिन उनका अनुकरण, अनुशीलन हम जीवन में कितना कर सके हैं?…आज देश में चल रही तमाम तरह की विकास योजनाओं के साथ इस विषय पर भी जोर-शोर से चर्चा होनी चाहिए।

विकास तो तभी होगा, जब पत्ता-पत्ता सींचने की जगह जड़ को ही सींचा जाए। राम मंदिर बनना तय है। वह राम जिसे संत तुलसी दास ने खड़ा किया और घट-घट वासी बना डाला। तुलसी न होते तो राम को कोई जानता भी नहीं। राम के साथ तुलसी ने अवधी भाषा को भी जीवंत कर दिखाया है। महर्षि वाल्मीकि ने भी राम कथा लिखी है। लेकिन आज से छह सौ वर्ष पहले संस्कृत भाषा समाप्त-प्रायः हो चली थी, उस भाषा के साथ राम भी कहीं भूल-भुल्लैया में खो सकते थे, किंतु तुलसी दास के त्याग-तप की उपलब्धियों के फलस्वरूप आज राम घट-घट वासी हैं और अनंत काल तक बने रहेंगे। तब क्यों न राम मंदिर के साथ तुलसी दास का भी एक मंदिर बने?…राम राजनीतिज्ञ नहीं थे, राजनीति में पारंगत तो कृष्ण ही नजर आते हैं। ‘मानस’ में राम एक अनुकरणीय, आदर्श पुरुषोत्तम रूप में आते हैं तो कृष्ण अपनी साम, दाम, दंड, भेद नीतियों के तहत दुष्ट-दुराचारियों द्वारा प्रजा की रक्षा का संकल्प पूरा करते दिखाई देते हैं। राम अहिंसक बने रहे। उन पर हिंसा लादी गई तो उस स्थिति में दुष्ट रावण के साथ लंका का विनाश हिंसा नहीं कहा जा सकता। कोरोना महामारी की तरह हिंसा के भी कई रूप हैं। गांधी जी झूठ बोलने, छल-कपट करने, किसी को डराने-धमकाने, दंगा-लूटपाट और परस्पर भेदभाव कर नफरत फैलाने को भी हिंसा मानते थे।

इसलिए स्वयं हिंसा की चपेट में आ गए। लेकिन गीता में ‘अहिंसा परमो धर्मः’ कहने वाले कृष्ण ऐसी अहिंसा के पक्षधर नहीं लगते। वे खुलकर अर्जुन से कहते हैं कि- ‘युद्ध करो। और अपने अधिकारों को वरदान की तरह प्राप्त करो।’ ‘शठे शाठयम् समाचरेत’ यानी दुष्ट के साथ दुष्टता से पेश आना जरूरी है। अपनी इस नीति के तहत अपने सूरसेन प्रदेश के दुष्ट-दुराचारी असुरों का वध करने के बाद जब कृष्ण ने कंस को भी मार डाला तो कंस की दोनों पत्नियां रोती-बिलखती अपने पिता जरासंध के पास मगध पहुंचती हैं और महाबलशाली जरासंध मथुरा पर आक्रमण कर देता है। किंतु यादव वीरों के साथ युद्ध में उसके कई सैनिक मारे जाते हैं, और बलराम के द्वारा जरासंध को पकड़ लिया जाता है। बलराम उसे मारना ही चाहता था कि कृष्ण ने उसे बचा लिया और भाग जाने की छूट दे दी। बलराम के पूछने पर कृष्ण बोले कि ‘एक अकेले जरासंध को मारने से प्रजा को सुरक्षित करने का हमारा संकल्प पूरा नहीं हो सकता, यहां तो मगध (बिहार) से आगे दूर-दूर तक कंस जैसे अत्याचारियों से प्रजा त्रस्त है, उनकी सुरक्षा कौन करेगा।

यदि हम जरासंध को छोड़ देंगे तो यह अपने उन सहयोगियों को साथ लेकर फिर से मथुरा पर आक्रमण करेगा और इस तरह उसके साथी सभी मारे जाएंगे।’ कृष्ण की यह रणनीति कारगर साबित हुई। अपने सहयोगियों को लेकर जरासंध ने सत्रह बार मथुरा पर आक्रमण किए और हर बार उसके साथी मारे जाते रहे। अंत में वह अपने महाबली सहयोगी कालयवन को लेकर मथुरा पर टूट पड़ा। कालयवन को देख कृष्ण भी घबरा गए। लेकिन अपनी दंड-भेद नीति में निपुण कृष्ण ने जिस तरह कालयवन के साथ जरासंध का अंत कर धरती को अत्याचारियों से मुक्त करने का अपना संकल्प पूरा किया, वह उन्हें अवतारी रूप में स्थापित कर जाता है।

ताकि सनद रहे…

अन्याय और अत्याचारियों का सफाया करने के बाद कृष्ण का दूसरा संकल्प धर्म की सुरक्षा का है। जो स्वयं उनके मुख से निकल कर आता है- ‘यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः…यानी मेरे प्रिय भारत में जब धर्म के प्रति ग्लानि होने लगे, तब मैं स्वयं अवतार रूप में उपस्थित हो आता हूं।’ लेकिन उनके धर्म प्रधान देश से ही जब जन-जन के बीच नफरत पैदा कर देश की छवि को दुनिया भर में धूमिल कर दिया जाए, तब कृष्ण का संकल्प खोखला बन कर रह जाता है।…फिर भी उनका प्यारा भारत बड़ी बेसब्री के साथ उनके अवतरण की प्रतीक्षा कर रहा है। ताकि कंस जैसे झूठे, फरेबी और जनता को त्रस्त करने वाले षड्यंत्रकारियों का सफाया किया जा सके।

पुस्तक समीक्षा : पाठकों का मनोरंजन करती लघुकथाएं

डा. जवाहर धीर का लघुकथा संग्रह ‘अब हुई न बात’ प्रकाशित हुआ है। उनकी कहानियां जहां पाठकों का मनोरंजन करती हैं, वहीं कुछ न कुछ सीख भी देती हैं। फटाफट क्रिकेट की तरह उनकी लघुकथाएं सरपट अपने लक्ष्य की ओर दौड़ती हैं और पाठकों को आश्चर्यचकित करती हैं। इस संग्रह में 89 लघुकथाएं हैं। आस्था प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह की कीमत 195 रुपए है। चंडीगढ़ साहित्य अकादमी के पूर्व सचिव प्रेम विज इस संग्रह के बारे में कहते हैं कि अनेकों सरकारी व गैर सरकारी अवार्ड व सम्मान प्राप्त करने वाले जवाहर धीर के इस लघुकथा संग्रह में उनकी चुनिंदा लघुकथाएं हैं, जिन्हें पढ़ते समय पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। लघुकथा की विशेषता भी यही होती है कि यह किसी बड़ी कहानी के विपरीत बहुत लघु रूप में होती है। यह एक विषय, एक घटना या क्षण पर आधारित होती है। इसमें एक या दो पात्र होते हैं। डा. धीर की लघुकथाओं में ये सभी विशेषताएं मिलती हैं।

अनेकों लघुकथाओं को पढ़ते समय

मन उद्वेलित भी होता है और समाज

के समक्ष नए प्रश्न और मुद्दे भी खड़े करती हैं। आशा है पाठकों को यह संग्रह पसंद आएगा।

-फीचर डेस्क


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