उच्च अध्ययन संस्थान की विकास यात्रा

By: Aug 28th, 2022 12:09 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -28

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

अशोक शर्मा,  मो.-9816074357
-(पिछले अंक का शेष भाग)
दूसरी ओर समिति के अन्य सदस्य श्री टी. एन. चतुर्वेदी ने कड़े शब्दों में असहमति जताई। चतुर्वेदी ने संस्थान के प्रति अंतर्मन से विश्वास प्रकट करते हुए कहा- ‘इस संस्थान की परिकल्पना देश के महानतम मस्तिष्कों ने की थी। इसमें आई त्रुटियों को नजऱअंदाज करके हमें इसके पुन: निर्माण और पुनस्र्थापना के लिए प्रयत्न करना चाहिए। इसके उद्देश्यों की सामान्य प्रकृति के रहते उच्च उद्देश्यपूर्ण तरीके से संस्थान के कार्यों का आकलन करना कठिन है। इसके उद्देश्यों को अधिक स्पष्ट रूप में परिभाषित करके इसकी स्वायत्तता को कार्यात्मक पर्याप्तता के संदर्भ में सम्मानित और प्रोत्साहित किया जा सकता है। संस्थान को ‘एक मुख्य कार्यक्रम’ और ‘उत्कृष्टता के कीर्तिमान’ स्थापित करने की आवश्यकता है। अकादमिक उत्कृष्टता के साथ-साथ संस्थान को व्यावसायिक मानदंडों और नैतिकता का एक संवाहक, समर्थक और संरक्षक बनाए रखने के लिए इसे पुन: व्यवस्थित और पुन: सक्रिय किया जा सकता है।’ दासगुप्ता समिति की रिपोर्ट अप्रैल 1978 में शिक्षा मंत्रालय को सौंपी गई। 1 जून 1979 को इस रिपोर्ट को केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में प्रस्तुत किया गया, जिसके निर्णय के अनुसार संस्थान को 1 सितंबर 1979 से बंद करने का निर्णय लिया गया।

बुद्धिजीवी समाज का हर वर्ग साहित्यकार, विभिन्न विषयों के विद्वान, जागरूक मीडिया, सभी संस्थान को बंद करने के निर्णय का पुरजोर विरोध करते रहे। देश के अग्रणी समाचारपत्रों ने संपादकीय प्रकाशित किए। प्रोफेसर रजनी कोठारी के आह्वान पर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली के सभागार में एक समारोह आयोजित किया गया, जिसमें देश के हर कोने से बुद्धिजीवी सम्मिलित हुए। समारोह में सरकारी निर्णय के विरोध में प्रस्ताव पारित किया गया तथा सरकार से संस्थान को बंद करने के निर्णय को वापस लेने का आग्रह किया गया। इधर संस्थान के कर्मचारियों ने क्रमिक भूख हड़ताल जारी की, उधर कलकता के एक अग्रणी अखबार में प्रोफेसर निहाररंजन रे का एक लंबा साक्षात्कार छपा जिसने केन्द्र सरकार को हिलाकर रख दिया। इस बीच 13 अगस्त 1979 में जनता पार्टी की सरकार का पतन हो गया तथा एक कार्यकारी सरकार का गठन हुआ जिसमें डा. कर्ण सिंह को शिक्षामंत्री मनोनीत किया गया। डा. कर्ण सिंह ने देशव्यापी विरोध को देखते हुए केन्द्र में कार्यकारी सरकार के मंत्रिमंडल की पहली बैठक में संस्थान को जारी रखने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसके अनुसार संस्थान को बंद करने के निर्णय को मार्च 1980 तक निरस्त किया गया और कहा गया कि मार्च 1980 के आम चुनाव के बाद चुनी हुई सरकार संस्थान के भविष्य का निर्णय ले।
नई सरकार के सत्ता में आने पर मार्च 1980 को वर्ष 1979 के केन्द्रीय मंत्रिमंडल के निर्णय पर पुनर्विचार कर संस्थाान को जारी रखने का निर्णय लिया। इस बीच प्रोफेसर निहाररंजन रे ने प्रधानमंत्री को भेजे गए एक तार में संस्थान के पक्ष में लिखा। प्रोफेसर रे के तार का संज्ञान लेते हुए अप्रैल 1980 को हुई मंत्रिमंडल की बैठक में संस्थान के पुनर्गठन और पुनर्निर्माण हेतु एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। श्री कृष्णा कृपलानी को इस विशेषज्ञ समिति का अध्यक्ष मनोनीत किया गया।

इस समिति ने वर्ष 1981 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों पर विचार करने के लिए शिक्षा सचिव की अध्यक्षता में एक अन्य विशेषाधिकार समिति का गठन हुआ, जिसकी संस्तुतियों का 10 अगस्त 1982 को हुई मंत्रिमंडल बैठक ने विशेषाधिकार समिति की सिफारिशों को स्वीकृत करते हुए निर्देश दिया कि संस्थान शिमला में ही कार्य करना जारी रखेगा, किन्तु इसके वर्तमान परिसर के विषय में अलग से विचार करने की आवश्यकता है।  अंतत: संस्थान ने कृपलाणी समिति की सिफारिशों के अनुसार 1984 में पुन: कार्य करना आरंभ किया जिसकी शुरुआत ‘कम्पोजिट कल्चर ऑफ इण्डिया एण्ड नेशनल इंटेग्रेशन’ विषय संगोष्ठी के आयोजन से हुई। अभी संस्थान की अकादमिक गतिविधियां ठीक से पटरी पर नहीं आ सकी थीं कि 1990 में निवेश और विकास पर केबिनेट समिति की सिफारिशों पर सरकार ने राष्ट्रपति निवास की समस्त सम्पदा को एक टूरिस्ट रिसोर्ट में परिवर्तित करने और इसे आईटीडीसी को सौंपने का निर्णय लिया।

साथ में यह भी कहा गया कि संस्थान को राष्ट्रपति निवास परिसर से बदलकर किसी दूसरी जगह स्थापित किया जाए, जिसके लिए हिमाचल प्रदेश सरकार ज़मीन मुहैया करवाएगी। सरकार के इस निर्णय को चुनौती देते हुए इसी वर्ष शिमला के स्थानीय निवासी श्री राजीव मनकोटिया ने एक जनहित याचिका दायर कर प्रार्थना की कि ‘राष्ट्रपति निवास परिसर को राष्ट्रीय धरोहर अधिसूचित किया जाए, इसे टूरिस्ट रिसोर्ट न बनाया जाए और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान को राष्ट्रपति निवास परिसर में ही चलने दिया जाए।’ उधर भारत सरकार ने न्यायालय में एक काउंटर हल्फनामा दायर किया जिसके अनुसार संस्थान को किसी अन्य परिसर में स्थानांतरित किया जाना था। शायद इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि ‘ज्यूं ही भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान परिसर को खाली करता है और भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण को हस्तांतरित करता है, भारत सरकार इसकी मरम्मत और रखरखाव के लिए आवश्यक बजट प्रदान करे, जिससे यह भवन अपनी शान और प्राकृतिक सौंदर्य को प्राप्त कर सके।’ न्यायालय के आदेश को लागू करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने एक अधिसूचना द्वारा 11 नवम्बर 1997 को राष्ट्रपति निवास को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया; राष्ट्रपति निवास की मरम्मत और संरक्षण के लिए 4 करोड़ रुपए का विशेष अनुदान स्वीकृत किया तथा विशेष मरम्मत के लिए भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान और भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के बीच एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए।

उच्च अध्ययन संस्थान की उपलब्धियां

वर्ष 2003 में जनहित याचिका पर अपना निर्णय लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि संस्थान राष्ट्रपति निवास सम्पदा को 31 दिसंबर 2003 तक भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के सुपुर्द करे। इसके प्रत्युत्तर में संस्थान की ओर से न्यायालय में इस आशय की याचिका दायर की गई कि जनहित याचिका राष्ट्रपति निवास को टूरिस्ट रिसोर्ट में परिवर्तित करने के विरोध में थी, जिसमें संस्थान को इसी परिसर में जारी रखने का अनुरोध भी किया गया था। याचिका पर फैसला सुनाते हुए 5 जुलाई 2004 को सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संस्थान को राष्ट्रपति निवास से स्थानांतरित करने की आवश्यकता नहीं है। कृष्णा कृपलानी समिति की सिफारिशों के अनुसार कई अकादमिक और प्रशासनिक फेरबदल होने थे।
इन सिफारिशों को कार्यान्वित करने के लिए शिक्षा विभाग ने श्री एमएन सिन्हा को कार्यवाहक निदेशक नियुक्त किया था। उनके बाद प्रोफेसर मार्गरेट चटर्जी ने पुनस्र्थापित संस्थान के निदेशक का कार्यभार संभाला। प्रोफेसर रघुवंश, प्रोफेसर माइकल एरिस, प्रोफेसर एसपी वर्मा, प्रोफेसर एसजी तुलपुले, सुश्री आँग सान सू की, श्री शंख घोष, डा. पॉलोस मारग्रेगोरियस तथा प्रोफेसर जेएस ग्रेवाल जैसे प्रख्यात विद्वानों ने संस्थान की फैलोशिप ग्रहण की। इस तरह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान को अपने 55 वर्षों के इतिहास में कई उपलब्धियों के साथ कई व्यवधानों का भी सामना करना पड़ा। फिर भी संस्थाान अपने उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सतत प्रयत्नशील है, जिसकी संकल्पना 15 जनवरी 1991 को संस्थान के 25 वर्ष पूरे होने पर की गई।

इस उपलक्ष्य में नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय के सभागार में रजत जयंती समारोह का आयोजन किया गया था, जिसका उद्घाटन देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर ने किया था। प्रधानमंत्री ने संस्थान की अनिश्चितता को विराम देते हुए अपने उद्बोधन में कहा था कि अब संस्थान के भविष्य को कोई खतरा नहीं है। उद्घाटन सत्र के बाद तीन महत्त्वपूर्ण व्याख्यान हुए। प्रोफेसर डीपी चट्टोपाध्याय ने पहला राधाकृष्णन स्मृति व्याख्यान दिया जबकि प्रोफेसर रोमिला थापर और प्रोफेसर सतीश चंद्र ने निहाररंजन रे स्मृति व्याख्यान दिए। उस दिन संस्थान के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ा, जब देश के प्रधानमंत्री तथा शिक्षा मंत्री की उपस्थिति में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्षों ने एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए, जिसके अनुसार संस्थान में ‘इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फार ह्यूमैनिटीज़ एण्ड सोशल साइंसिज’ की स्थापना हुई।  इस केन्द्र के खुलने से विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के अध्यापक एवं शोधार्थी वर्ष में एक महीने के लिए संस्थान में रहकर अपना शोधकार्य कर सकते हैं। इस केन्द्र की गतिविधियों में शोध-सेमीनार व स्टडी वीक के आयोजन भी शामिल किए गए। संस्थान का रजत जयंती समारोह पूरे वर्ष तक चला जिसके अंतर्गत देशभर के अग्रणी शिक्षण संस्थानों में विशेष लेक्चर करवाए गए। स्पेशल लेक्चर देने वालों में सीडी नरसिंहय्या, शिव के. कुमार, वाईके अलग, टीएन मदन, दयाकृष्ण, निर्मल वर्मा, नामवर सिंह, यशपाल, गोविंद चंद्र पांडेय, श्यामाचरण दुबे, डीपी चट्टोपाध्याय एवं इरफान हबीब आदि प्रमुख विद्वान थे। इस अवधि में प्रोफेसर जेएस ग्रेवाल संस्थान में निदेशक थे। उन्होंने संस्थान की अकादमिक गतिविधियों और प्रशासकीय कार्यप्रणाली को नए सिरे से चुस्त-दुरुस्त किया और प्रकाशन-कार्य पर भी विशेष ध्यान दिया। प्रोफेसर ग्रेवाल ने अपने कार्यकाल में अपेक्षाकृत युवा शोधार्थियों को अध्येयता के रूप में अवसर प्रदान करने की शुरुआत की। इस बीच ‘सोशियो-रिलीजियस मूवमेंट एण्ड कल्चरल नेटवर्क इन इण्डियन सिविलजेशन’ विषयक बहु-अनुशासनात्मक टीम परियोजना का शुभारंभ हुआ, जिसमें शोधकार्य के लिए 30 विद्वानों को चुना गया। टीम परियोजना के पहले वर्ष के दौरान 8 मोनोग्राफ प्रकाशित हुए, जिनके पहले संस्करण एक वर्ष के भीतर ही समाप्त हो गए। उनके कार्यकाल में संस्थान और कनाडियन इंस्टिट्यूट के संयुक्त तत्त्वावधान में अकादमिक संगोष्ठियों का भी आयोजन हुआ।

इस बीच भारतीय भाषाओं के किसी एक रचनाकार को संस्थान में ‘राइटर इन रेजिड़न्स’ की हैसियत से बुलाने की परंपरा की शुरुआत हुई। हिंदी के प्रख्यात कथाकार भीष्म साहनी पहले ‘राइटर इन रेजिड़न्स’ बने। संस्थान के समृद्ध पुस्तकालय को भी और ज्यादा व्यवस्थित किया और सुविधा-सम्पन्न बनाया गया। प्रोफेसर ग्रेवाल के बाद निदेशक बने प्रोफेसर मृणाल मिरी के दो कार्यकालों के दौरान ‘गांधीयन परस्पेक्टिव’ विषय पर एक शोध-परियोजना की शुरुआत हुई तथा ‘समरहिल आईआईएएस रिव्यू’ व ‘स्टडीज इन ह्यूमैनिटीज़ एण्ड सोशल साइंसिज’ दो पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ हुआ। इस बीच देश के अग्रणी शिक्षण संस्थान के साथ मिल कर कई महत्त्वपूर्ण संगोष्ठियों का आयोजन भी किया गया। प्रोफेसर मिरी के बाद आने वाले निदेशकों ने संस्थान की साख और महत्ता को बनाए रखने का कमोबेश प्रयास जारी रखा।

हर संस्थान की यात्रा में कतिपय बाह्य और आंतरिक कारणों के चलते उतार-चढ़ाव आते हैं। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान भी इसका अपवाद नहीं है। लेकिन यह हर्ष की बात है कि भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान ने रास्ते में आने वाली सभी रुकावटों को दूर करते हुए अकादमिक उपलब्धियों की अपनी शानदार परंपरा को कायम रखा है। यह उन्हीं निदेशकों, अध्यक्षों, अध्येयताओं, अधिकारियों, कर्मचारियों के बल पर संभव हुआ है, जिन्होंने संस्थान की सत्ता को अपनी सत्ता से ऊपर रखा है। आशा है कि यह संस्थान भविष्य में भी इसी तरह सार्थक कार्य करते हुए अपने पथ पर अग्रसर रहेगा।

-अशोक शर्मा
-(शेष अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : आकांक्षाओं को साकार करता काव्य संग्रह

‘अनंत आकांक्षाओं का आकाश’ एक अन्य साझा काव्य संग्रह है जिसके संपादक डा. विजय कुमार पुरी तथा डा. श्रीप्रकाश यादव हैं। इस संग्रह में देशभर से 121 कवियों की चुनिंदा कविताओं को संकलित किया गया है। संग्रह की कविताएं भावानुभूति में सफल रही हैं। इस काव्य संग्रह की विशेषता यह है कि इसमें ऐसे कवि भी प्रकाशित हुए हैं जो अर्थशास्त्र, वाणिज्य या जैव प्रौद्योगिकी जैसे विषयों के विशेषज्ञ हैं। एक कवि तो मात्र मैट्रिक पास हैं, लेकिन कविता अच्छी कर लेते हैं। प्रकाशक निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा से प्रकाशित इस काव्य संग्रह की कीमत 900 रुपए है और इसे 496 पृष्ठों में समेटा गया है। साहित्यकार वीरेंद्र शर्मा ‘वीर’ इसकी समीक्षा करते हुए कहते हैं, ‘यह देशभर से 121 कवियों का साझा काव्य संग्रह है। इस संग्रह में भिन्न-भिन्न राज्यों की संस्कृति की झलक तो मिलती है, परंतु साझा दृष्टिकोण कविताई का ही है।

वर्तमान दौर की कविता के मर्म को संग्रह में संकलित कवि भली-भांति जानते हैं। अपने-अपने क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखने वाले कवियों के संग-संग उदीयमान कवियों को स्थान मिलना उन कवियों की आकांक्षाओं को अनंत आकाश प्रदान करना ही है। वयोवृद्ध, प्रौढ़ एवं उदीयमान नवागंतुक कवियों की दृष्टि और भाषा शैली विषयानुसार एवं भावानुकूल है।’ लोक प्रचलित मान्यता को खंडित करते हुए दीपक कुल्लुवी कहते हैं, ‘मेरी राख को दुनियां वालो/गंगा जी में न बहाना/प्रदूषित हो चुकी बहुत/प्रदूषण और न बढ़ाना/कर्म अगर होंगे अच्छे/तो मिल जाएगी मुक्ति/केवल गंगा जी में बहाने से ही/मुक्ति नहीं मिल सकती/यह है सब बेकार की बातें/ऐसा हो नहीं सकता/किसी के कुकर्मों का अंत/इतना सुखद नहीं हो सकता/गर ऐसा हो जाता तो/हर कोई पापी तर जाता/पाप करने से यहां कोई न घबराता/कोई न कतराता…।’ एम. टैक प्रियंका यादव की कविता चुस्ती प्रदान कर रही है, ‘जब भी मन करे/कर लो मस्ती/आओ गुरु ले लो/एक चाय की चुस्की/जिससे कभी न आए सुस्ती/है ये ऐसी/चाय की चुस्की।’ ज्ञान चंद कोहालवी सिर्फ मैट्रिक पास हैं, लेकिन कविता में जान डाल देने में माहिर हैं, ‘देश हिमाचल सबना जो प्यारा/बड़ा बांका छैळ कनै सबना ते न्यारा/ऊंचे पहाड़ इदे, अंबरे जो छूई लैंदे/बर्फा रे चिलड़ू दिलड़ुए मोई लैंदे/लगदा ऐ सारेयां जो स्वर्गे ते न्यारा।’ कहानियां लिखने वाले डा. सुशील कुमार ‘फुल्ल’ कविताएं भी अच्छी कर लेते हैं। कोरोना वायरस पर उनकी कविता का भाव है कि यह महामारी इनसान की लैब से छिटका हुआ एक वायरस है।
इनसान अपनी लैब पर इस खुशफहमी में था कि वह इनसान की सुविधा के लिए कुछ भी बना सकता है, लेकिन इस बार उसी लैब से एक वायरस महामारी बनकर बाहर आया है, जिसने पूरे विश्व को दुविधा में डाल दिया है। उधर महाराज सिंह ‘परदेसी’ बेटियों की शान में कहते हैं, ‘लक्ष्मी सी वरदान हैं/खुशी का जहान हैं/प्यारी मुस्कान हैं/जान में जान हैं/मेरी बेटियां।’ काव्य संग्रह की अन्य कविताओं में भी विविध भावों की अभिव्यंजना हुई है। कहीं व्यवस्था पर आक्रोश है, कहीं टीस है, कहीं खीझ है, तो कहीं विषय की रोचकता से कविताएं पाठकों को लुभाती हैं। आशा है पाठकों को यह काव्य संग्रह अवश्य पसंद आएगा। पुस्तक के संपादकों को इस साझा प्रयास के लिए बधाई है।

-फीचर डेस्क

सुंदर कविताओं का गुलदस्ता

बिलासपुर निवासी साहित्यकार अनिल शर्मा ‘नील’ का काव्य संग्रह ‘बेअसर बरसते मेरे नैन’ सुंदर कविताओं का एक गुलदस्ता है। निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा से प्रकाशित इस काव्य संग्रह की कीमत 300 रुपए है। कुल 108 पृष्ठों में 61 कविताएं संकलित की गई हैं। ‘भूमिका’ में अनिल शर्मा ‘नील’ इस काव्य संग्रह के बारे में खुद कहते हैं, ‘जब विश्व में कोविड-19 का संक्रमण फैला तो कई बदलाव देखने को मिले। देखा गया…महसूस किया गया…एक अदृश्य भय। दहशत और संशय ने आदमी को आदमी से दूर कर दिया। ऊपर से टीवी चैनल, सोशल मीडिया के डराऊ रिपोर्टें व आंकड़े…। उस पर पुलिस के जगह-जगह नाके…। बेचारा आदमी जाए तो कहां जाए? घरवास ही कारावास से भी बदतर लगने लगा। इस सब घटनाक्रमों ने दिल-दिमाग में नए विचारों को जन्म दिया। उन विचारों को तुकबंदी करके पाठकों के समक्ष अवलोकन करने के लिए प्रस्तुत कर रहा हूं।’

काव्य संग्रह के बारे में निखिल प्रकाशन समूह के निदेशक मोहन मुरारी शर्मा कहते हैं, ‘बेअसर बरसते मेरे नैन वर्तमान समय में कोरोना काल के कारण उपजे हालात को बयां करता संकलन है। सामाजिक जीवन के ताने-बाने को लेकर रची गई कविताएं पाठकों को पसंद आएंगी।’ इसी तरह डा. विजय कुमार पुरी कहते हैं, ‘ इस काव्य संग्रह में कवि ने भाषा और शैली का ऐसा ताना-बाना बुना है कि वैयक्तिक व सामाजिक निष्क्रियता सक्रियता में बदल जाती है। आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग काव्य संग्रह की प्रासंगिकता को और अधिक बढ़ा देता है। यही भाव पक्ष व भाषायी अपनत्व संग्रह को दीर्घजीवी बनाएगा।’ शीर्षक कविता ‘बेअसर से बरसते मेरे नैन’ में कवि ने मुहब्बत हो जाने पर इनसान की स्थिति का जिक्र इस तरह किया है, ‘संक्रमण हुआ है जबसे मुहब्बत का दिल में मेरे/ठीक नहीं है स्थिति, बिगड़ गए हैं हालात मेरे/खोया सा रहता हूं मैं/ना जाने किस ख्वाब में/हकीकत है या भ्रम जाल/सवाल है अपने ही आप में।’ इसी तरह अन्य कविताओं में भी भावों की सुंदर अभिव्यक्ति हुई है। आशा है पाठकों को यह काव्य संग्रह अवश्य पसंद आएगा।

-फीचर डेस्क


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