किन्नौरी लोक साहित्य के लेखक

By: Sep 4th, 2022 12:05 am

मुकेश चंद नेगी

मो.-8628825381

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अलेक्जेंडर जेरार्ड और जॉर्ज लॉयड द्वारा अंग्रेजी भाषा में पुस्तक ‘एकाउंट ऑफ कूनावर इन हिमाचल’ का प्रकाशन 1841 में हुआ। इसमें किन्नौर की कृषि व्यवस्था, पर्वत श्रृंखला, पुलों, पर्यावरण, जंगली फल, बगीचों के फल, जनसंख्या का वर्णन किया गया है। स्वर्गीय श्रीमद तन्जिऩ ग्यलछन (नेगी लामा) 1895-1977 बोधिचित्त स्तोत्र रत्न वाग्दीपिका भोटी भाषा में प्रकाशित किया। वे सुन्नम गांव के हैं। स्वर्गीय लामा नमग्यल छेवंग (1896-1972) बौद्ध धर्म दर्शन से सम्बन्धित स्वयं लिखित गंभीर ग्रन्थ प्रकाशित करने के लिए 300 काष्ठ ब्लाक पर आसरंग गांव के परखङ् यानि प्रकाशन गृह में सुरक्षित रखा है। परम पूज्य स्वर्गीय तन्जिऩ ग्यलछऩ जो बौद्ध जगत में नेगी लामा या नेगी रिनपोछे के सम्बोधन से सम्बोधित किए जाते हैं, ने उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त बौद्ध धर्म दर्शन पर अनेक ग्रंथों की रचना की है। उपर्युक्त दोनों विद्वान किन्नौर के शिरोभूषण माने जाते हैं। स्वर्गीय थरछिन बाबू किन्नौर के पूह क्षेत्र में स्थित मॉर्वियन मिशन के दीक्षित किन्नौरा के ऊपर दो वॉल्यूम में ग्रंथ प्रकाशित हुए थे। इन्होंने दार्जिलिंग में मिरर प्रेस की स्थापना कर भोटी भाषा में समाचार पत्र निकाला।

तिब्बती भोटी भाषा में शब्दकोश प्रकाशित किया। अनेक तिब्बती पाठ्यपुस्तक प्रकाशित किया। स्वर्गीय जीता सेन नेगी (1948-2009) ज्ञाबोंग गांव के हैं। इन्होंने 16 वॉल्यूम में तिब्बती संस्कृत ग्रंथ प्रकाशित किए। वाराणसी में इनके इस कार्य के लिए पुरस्कार भी प्रदान किया गया। ज्ञबोंग वासी स्वर्गीय गेशे रिगजिऩ तनपा पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने तिब्बत के डेपुङ महाविहार से बौद्ध दर्शन में गेशे ल्हरम्पा की उपाधि फस्र्ट डिविजऩ में उत्तीर्ण की थी और परम पावन चौदहवें दलाईलामा के गुरु पद को अलंकृत करने का गौरव प्राप्त किया था। राहुल सांकृत्यायन लिखित ‘किन्नर देश में’ का प्रकाशन 1948 में हुआ। किन्नौर यात्रा के दौरान वे पूह और कल्पा, कामरू, सांगला क्षेत्रों का भ्रमण किया। किन्नर शब्द किन्नौर साहित्य में उनकी देन है। गीता के श्लोक में भी किन्नर शब्द का वर्णन किया गया है। 1 मई 1960 में किन्नौर जिला बनने के बाद किन्नौर नाम रखा गया जो कि सही है। साहित्य में किन्नर शब्द का और भी अर्थ निकलता है। यहां का समाज पारिवारिक सम्बन्धों से बना सामाजिक ढांचा है। कुछेक अंग्रेजों ने सन् 1800 के बाद भी किन्नौर यात्रा के दौरान यहां के पर्वतों का उल्लेख किया है। किन्नौरी लोक साहित्य के रचयिता डा. बंशी राम शर्मा हैं। इन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है।

पुस्तक का प्रकाशन 1971 में हुआ। पुस्तक में लोक संस्कारों, देवी-देवता से जुड़ी मान्यताओं, लोक गीतों, लोक कथाओं, कहावतों, इतिहास को उजागर किया है। किन्नौर का लोक साहित्य पहला पुस्तक प्रकाशित हुआ है। सन् 1976 में टीएस नेगी ने शेड्यूल ट्राइब ऑफ हिमाचल में जनजातियों के बारे में लिखा है। शोंग गांव में 5 सितंबर 1906 में जन्म हुआ और 2 जनवरी 2001 को देहांत हुआ। प्रशासन व राजनीति में महत्वपूर्ण पदों पर सेवा देते रहे। एससी वाजपाई की पुस्तक किन्नौर इन हिमालया 1981 में प्रकाशित हुई। सन् 2002 में वी वर्मा की अंग्रेजी में किनोराज ऑफ किन्नौर पुस्तक प्रकाशित हुई। किन्नौर के जीवित लेखकों में से सन् 2002 में शरभ नेगी ने हिमालय पुत्र किन्नरों की लोक गाथाएं नामक पुस्तक का प्रकाशन किया। इस पुस्तक में किन्नौर में प्रचलित लोक गाथाओं का वर्णन किया है, जिसका प्रचलन लोक गीतों के माध्यम से भी किया जाता है। जंगमोपोती, युमदासी, देवसरनी बंठिं नए बेलू राम की गाथाओं जिसे लोकगीतों के माध्यम से गाया जाता है, जो कि नारी की संघर्ष और त्रासदी की गाथा है। चवाय लामा गीत 1920 में क्वियित्रियों ने गाया है। युमदासी गीत 1932 में रचित है। जंगमोपोती जंगासरनी ने 1940 में गाया है। इतिहास के झरोखे में किन्नौर जिले की रचनाएं संकलित हैं। इसके बाद टाशी छेरिंग नेगी ने सन् 2006 में किन्नौरी सभ्यता और साहित्य नामक पुस्तक का प्रकाशन साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक में किन्नौर जिले के इतिहास और लोक गीतों का वर्णन मिलता है। इस पुस्तक में आदिवासी साहित्य भूमिका, देवी देवताओं की उत्पति, विजय और चुनाव सम्बन्धी गीत, कार्यक्रम सम्बन्धित पौरिश्टांग गीत, छितकुल माता देवी का कामरू जाने का गीत, धर्म गाथा संबंधित सांग गिथांग, ऐतिहासिक घटनाओं संबंधित गीत, किन्नरी लोक कथाएं, बौद्ध धर्म के गीत को प्रकट किया है। बाद में इन्होंने किन्नर साहित्य का इतिहास नामक पुस्तक भी प्रकाशित की।

इनका आदिम समाज में किन्नौर के देवी देवताओं की मान्यताओं पर पुस्तक प्रकाशित हो रही है जिसमें लोक अंधविश्वासों और मान्यताओं को उजागर किया है। प्रो. विद्यासागर नेगी ने पश्चिमोत्तर हिमालय के आरण्यक भेड़ पालक किन्नौर के सन्दर्भ में नामक पुस्तक 2007 में प्रकाशित की। इसमें भेड़ पालकों के जीवन से जुड़े गीतों, रहन सहन, लोक विश्वास, चरवाहे व भेड़ बकरियों के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है। सन् 2019 में इन्हें हिमालय चरवाहे की आध्यात्मिक यात्रा पुस्तक के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। एक हिमालय चरवाहे की आध्यात्मिक यात्रा नामक इस पुस्तक को पढऩे से हम यह जान पाएंगे कि किन्नौर से तिब्बत में जाकर एक चरवाहे ने किस तरह से गेशे (कल्याण मित्र) जैसे सर्वोत्कृष्ट उपाधि को प्राप्त किया। यह पुस्तक खादरा के गेशे पालदेन सेङगे जी की जीवनी है। उन्होंने किन्नौर में बौद्ध धर्म का ज्ञान देने तथा लोगों को धर्म के प्रति जागरूक करने के लिए सम्पूर्ण जीवन समर्पित किया। हमारे खादरा रिन्पोछ़े जी भी एक थे। यह पुस्तक रिन्पोछ़े जी के जीवनी, किन्नौर के संस्कृति आदि को जानने में अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन्होंने कहानियां, बौद्ध दर्शन की रचनाएं भी लिखी हैं। सन् 2018 में प्रकाशित पुस्तक पश्चिमी हिमालय संस्कार एवं कृषि संस्कृति किन्नौर के आलोक में पुस्तक में जन्म मृत्यु संस्कार के गीत, कृषि से संबंधित गीत मंडाई, बिजाई गीत, चेत्रोल बिजाई का समय के गीत का चित्रण किया हुआ है।

लेखक देवेंद्र सिंह गोलदार नेगी की पुस्तक किन्नौर आदिवासिक संस्कृति के आर्थिक आधार नामक पुस्तक 2014 में किया गया। देवेंद्र सिंह गोलदार द्वारा लिखित इस पुस्तक में किन्नर जनजातीय की संस्कृति में अर्थ व्यवस्था की भूमिका पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। डा. सरिता नेगी की पुस्तक किन्नौर की विभिन्न लोकभाषाओं में गाए जाने वाले लोकगीतों का सांस्कृतिक विवेचन प्रकाशित हुआ है। मुझे सन् 2007 में किन्नौर की लोक कथाओं पर पीएचडी के लिए फेलोशिप का चयन यूजीसी द्वारा दिया गया। शोध कार्य की अवधि के दौरान मैंने अध्यापन कार्य भी किया। शोध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है। पीएचडी की उपाधि में बीमार रहने के कारण बाधा आ गई। किन्नौर पर लेख, कहानियां प्रकाशित हुई हैं। मैंने भी स्थानीय लोक कथा साहित्य पर शोध अध्ययन का निर्णय लिया, कार्य भी किया और इस निर्णय पर पहुंच पाया कि किन्नौर की लोक कथाओं में इतिहास, सामाजिक स्थितियां, आर्थिक तंगियां, पर्वतीय लोक मानस की सोच के साथ और भी बहुत कुछ मिलता है जिसे जानने के लिए समय और प्रयास की जरूरत है। मैंने किन्नौर का पहला साझा काव्य संकलन संपादित कर 2021 में प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में किन्नौर के स्थानों, फलों, घाटियों, मानवीय मूल्यों को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल

मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -२9

विमर्श के बिंदु

1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

उच्च अध्ययन संस्थान की विकास यात्रा

अशोक शर्मा

मो.-9816074357

-(पिछले अंक का शेष भाग)

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला गत पांच दशकों से अधिक समय से मानविकी और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में शोधकार्य करता आ रहा है। शोध करने वाले विद्वानों को यहां आवासीय और सेक्रेट्रियल सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। अपने शांत, शीतल और सुंदर वातावरण के साथ अध्येताओं को ये सब सुविधाएं प्रदान करने वाला देश का शायद यह पहला शोध संस्थान है। यहां आने वाले शोधार्थी विभिन्न पदनामों से जाने जाते रहे हैं, जैसे प्रोफेसर, सीनियर रिसर्च फेलो, जूनियर रिसर्च फेलो, विजिटिंग फेलो, कोर फेलो, एफिलिएटिड फेलो, फेलो और नेशनल फेलो। इनके अलावा संस्थान में यूजीसी के आईयूसी कार्यक्रम के तहत देश के विभिन्न महाविद्यालयों से शिक्षक आते हैं जिन्हें एसोसिएट कहा जाता है। शुरू के कुछ वर्षों में हिंदी साहित्य से जुड़े चंद फेलो ही संस्थान आए जिनमें निर्मल वर्मा, भारत भूषण अग्रवाल और प्रभाकर माचवे प्रमुख हैं। वर्ष 1985 में हिंदी के प्रमुख आलोचक और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर रघुवंश फेलो के रूप में संस्थान आए। उन्होंने यहां तीन साल रहकर ‘भारतीय संस्कृति का रचनात्मक आयाम’ विषय पर शोध किया। उनके मोनोग्राफ को संस्थान ने हिंदी के प्रमुख प्रकाशन संस्थान नेशनल पब्लिशिंग हाउस के सहयोग से प्रकाशित किया। संस्थान द्वारा प्रकाशित हिंदी में यह पहली पुस्तक थी। इस पुस्तक के लिए प्रोफेसर रघुवंश को व्यास सुमन पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

प्रोफेसर रघुवंश हिंदी जगत के एक ऐसे आलोचक-विचारक थे जिन्होंने जन्म से जुड़ी शारीरिक दिक्कतों के बावजूद जीवन भर निरंतर शोध और चिंतन का प्रवाह बनाए रखा। इसके बाद भी संस्थान में हिंदी जगत से जुड़े कई प्रतिष्ठित विद्वान और रचनाकार आए, जिनमें डा. प्रेम सिंह, डा. वीर भारत तलवार, राजी सेठ, कृष्णा सोबती, भीष्म साहनी, गिरिराज किशोर, दूधनाथ सिंह, ओमप्रकाश वाल्मीकि, श्योराज सिंह बेचैन व मोहनदास नैमिशराय प्रमुख हैं। ‘भारत-पाक विभाजन’ पर शोध करने के लिए वर्ष 1995 में हिंदी की प्रतिष्ठित लेखिका कृष्णा सोबती संस्थान आईं। जिंदगीनामा, दिलो दानिश, मित्रो मरजानी, ऐ लडक़ी जैसी मशहूर कृतियों की लेखिका कृष्णा सोबती अपने बेफिक्र अंदाजे-बयां के लिए जानी जाती थीं। जिंदगीनामा नाम को लेकर अमृता प्रीतम से कृष्णा सोबती का विवाद दशकों तक अदालत में रहा। उनका जीवन एक रचनाकार की गरिमा से भरपूर था, जिसकी रक्षा के लिए वे कई बार विवादों में भी पड़ीं। इस दौरान दो राष्ट्रीय संगोष्ठियों- ‘लाइफ एंड वक्र्स ऑफ सादत हसन मंटो’ तथा ‘निराला और फिराक गोरखपुरी’ का आयोजन किया गया जिसमें कृष्णा सोबती की सक्रिय भागीदारी थी। उनके यहां रहते हुए उनके और हिंदी के एक अन्य महत्वपूर्ण लेखक कृष्णबलदेव वैद के बीच साहित्य संबंधी प्रश्नों पर एक महत्वपूर्ण संवाद हुआ जो ‘सोबती-वैद संवाद’ के नाम से प्रकाशित हुआ। कृष्णा सोबती का कहना था कि भारतीय देसी भाषाओं के लेखकों को इतना निरीह और निर्बल न समझा जाए कि कोई भी उनके साथ अनुपयुक्त व्यवहार करने की हिम्मत कर बैठे। सोबती जी को संस्थान की गरिमा से भी बेहद प्यार था। उनका कहना था कि भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला आज के बाज़ार की भाषा में ‘बहुत कीमती धरती का टुकड़ा’ माना जाता है।

कई लोग समझते हैं कि यहां तो आसानी से एक फाइव स्टार या सेवन स्टार होटल बनाया जा सकता है। इस तरह के प्रस्ताव भी आए कि संस्थान को दिल्ली या गाजिय़ाबाद क्यों न भेज दिया जाए! कृष्णा सोबती का कहना था कि राष्ट्रीय संस्थान के रूप में इसका अस्तित्व किसी दल विशेष से नहीं, विद्वानों-लेखकों-शिक्षकों की एक बड़ी बिरादरी से जुड़ा हुआ है। उल्लेखनीय है कि सरकार द्वारा संस्थान को शिमला से शिफ्ट करने के निर्णय के विरोध में देश के अकादमिक जगत द्वारा प्रधानमंत्री को भेजे गए ज्ञापन में कृष्णा सोबती के हस्ताक्षर सबसे ऊपर थे। बसंती, तमस, मैयादास की माड़ी, कुंतो जैसे महत्वपूर्ण उपन्यासों और अनेक चर्चित कहानियों और नाटकों के रचयिता भीष्म साहनी ने संस्थान में रह कर हिंदी नाटक ‘आलमगीर’ की रचना की। उनके यहां रहते हुए अंग्रेजी के मशहूर आलोचक और शिक्षक प्रोफेसर जयदेव ने भीष्म जी के उपन्यास ‘बसंती’ का अंग्रेजी में अनुवाद किया, जिसे संस्थान ने प्रकाशित किया है। इनके साथ जो अन्य हिन्दी के लेखक और आलोचक संस्थान आए उन सभी ने अपने महत्वपूर्ण विषयों पर शोधकार्य किया। उनमें से कई के मोनोग्राफ काफी चर्चित हुए। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के शिक्षक डा. प्रेम सिंह की संस्थान द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘क्रांति का विचार और हिंदी उपन्यास’ उनमें से एक है। इस पुस्तक को प्रकाशित होते ही दिल्ली की हिंदी अकादमी की तरफ से श्रेष्ठ आलोचना पुस्तक का पुरस्कार दिया गया।

समाज की सूनी गलियों में, रहती हैं चीजें ज़िंदा

‘कहता हूं, कायदे से, गलत नहीं है – पक्ष में, विपक्ष में, कोई फर्क नहीं है’, कहते हुए सुदर्शन वशिष्ठ अपने नजरिए के फलक पर काव्य यात्रा का परिचय नहीं देते, बल्कि युग से संबोधित विषयों की पड़ताल भी करते हैं। लेखक के बहुआयामी पक्ष या यूं कहें कि साहित्यिक विधाओं से अंतरंग रिश्तों से पैदा हुई दृष्टि का बोध कराता उनका काव्य संग्रह, ‘रहती हैं चींजें़ जिं़दा’, उन्हें भी पेश करता है। कुल 52 कविताओं की मंजूषा में वह कई पक्ष और विपक्ष सामने ले आते हैं। आदतन हिमाचल का साहित्य लेखन, मीडिया आलोक में अपनी पूर्णत: दर्ज करता है और वशिष्ठ को पढऩा भी सूचना तंत्र के कई मिसाल परोस देता है।

जैसे कि ‘सरकारी स्कूल के बच्चे’ में कविता अपने घटनाक्रम के गूढ़ अर्थ बिलोल देती है, ‘जंगली कबूतरों की तरह, सरकारी स्कूल के बच्चे-दाना दाना चुगते।’ कल और आज के मध्यांतर पर लिखी गईं कई कविताएं, समाज की सूनी गलियों में गूंजती हैं। इन्हीं में से ‘अपराध बोध’ में कवि सन्नाटे तोडक़र हम सभी से पूछ रहा है, ‘कल चार बजे, होंगे घर पर…मैंने आना था। ‘हैं’ के बजाय लगाते ‘था’ शंकित होकर…कल तो बिजी हूं…परसों या किसी और दिन, उत्तर मिलता है।’ कवि अपने भीतर के संवाद, प्रश्नों और जिज्ञासा के द्वार पर खड़ा होकर अलविदा संबोधन की परिकल्पना में ऐसा यथार्थ छू लेता है, जिसे सामान्य तौर पर हम छोड़ देते है, नजरअंदाज कर देते हैं, ‘मृत्यु के बाद बहा दी जाती जन्म कुंडली, गंगा में या किसी ऐसे दरिया-नाले में, अस्थियों के साथ! जैसे जन्म कुंडली नहीं पूरा जीवन डूबा जा रहा पानी में।’ काव्य संग्रह में कई प्रतीक खड़े किए गए हैं। ‘बापू की ऐनक’ के बहाने कई सवाल उभरते हैं, तो ‘तिहत्तर साल का होने पर’ के जरिए कवि अपने आत्मावलोकन की एक बड़ी पृष्ठभूमि रेखांकित करता है। इसी तरह कोरोना के संदर्भों में कायदे की बात कहते हुए यथार्थ की चिंताएं अछूत नहीं होतीं, तो ‘कुछ न कुछ चाहिए’ में तरन्नुम की कई लडिय़ां जुड़ जाती हैं। ‘रहती हैं चीज़ें जिं़दा’ काव्य संग्रह में कई कविताएं अपने अभिनव प्रयोग, उत्कृष्ट शैली, भाव के बहाव के साथ पेशगी दर्ज करती हैं।

‘हारे हुए योद्धा का गीत, रोती हुईं शुष्क आंखें, देखो आदमी बन गया बादल, कठिन समय में, नहीं मरती कभी घास, जीवन यात्रा, बापू की ऐनक, बुलंदी पर खड़ी एक जिद्दी बच्ची, आदि मानव, फेक आईडी तथा अलगनी पर’ जैसी कई कविताएं प्रभाव छोड़ती हैं। कहीं आध्यात्मिक रंग में खुद से रूबरू होने की प्रतीक्षा में कविता आ रही है, तो कहीं जमाने के प्रतिरोध में, ‘कहां जा रहे इतने लोग, कहां से आ रहे इतने लोग’, जैसी पंक्तियां चीख उठती हैं। ‘अलगनी’ में मानो रस्सी पर आकर संवेदनाएं सूख रही हों बारी-बारी। फेक आईडी के बहाने सुदर्शन वशिष्ठ अपनी शैली में व्यंग्य की धार उंडेल देते हैं। इसी तरह ‘विमोचन और चिडिय़ा’ के भाव में व्यंग्य के कबूतर उड़ारी भर रहे हैं। मध्यमवर्गीय मानसिकता में ये कविताएं जीवंत हैं, पाठक को गुदगुदाती हैं और कभी इनके सागर के बीच उफनती संवेदना पूछती है, ‘क्या उनकी आंख में भी आता होगा पानी, जिनमें पानी नहीं होता।’ कई कविताएं विशेष परिस्थितिजनक अंतरविरोधों से जूझती हैं। कवि की अपनी चिंताएं और मर्म हैं। अपनी अनुभूतियों को आवाज देते हुए सुदर्शन वशिष्ठ कवि और पाठक के बीच कुछ यूं खुद को साझा कर लेते हैं, ‘है दीवानगी, तो दीवानगी सही – तुझ में, मुझ में, कोई फर्क नहीं है।’

-निर्मल असो

काव्य संग्रह : रहती हैं चीज़ें जिं़दा
कवि : सुदर्शन वशिष्ठ
प्रकाशक : किताबगंज प्रकाशन, राजस्थान
मूल्य : 250 रुपए

पुस्तक समीक्षा

संतोष शैलजा का साहित्यिक योगदान याद किया

साहित्यिक, सामाजिक संवेदना की त्रैमासिकी ‘रचना’ का जनवरी-जून 2022 का अंक पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार की दिवंगत पत्नी (साहित्यकार) संतोष शैलजा को समर्पित है। इस अंक में शैलजा के साहित्यिक योगदान को याद किया गया है। पत्रिका के संपादक डा. सुशील कुमार फुल्ल ने अपने संपादकीय में शैलजा को भावभीनी श्रद्धांजलि दी है। ‘रचना’ का प्रस्तुत अंक शैलजा के साहित्य कर्म एवं उनके परिवार की उनके प्रति भावनाओं को व्यक्त करने का विनम्र प्रयास है। उनके बेटे, बेटियों अर्थात विक्रम शर्मा, इंदु, रेनू तथा शालिनी ने भावपूर्ण शब्दों में अपनी ममतामयी मां को श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं। दोनों पौत्रियों गरिमा तथा स्वाति ने भी दादी को शब्द भेंट किए हैं। मेधावी डाक्टर और कुशल सृजनकर्मी डा. आशुतोष गुलेरी ने शैलजा जी को अपने अंदाज में श्रद्धांजलि दी है। हिमाचल प्रदेश भाषा एवं संस्कृति विभाग के पूर्व निदेशक राकेश कोरला जी की मार्मिक कविताएं किसी भी बालक के अभावग्रस्त मन एवं मां की ममता को भावनाओं के ज्वार के साथ प्रकट करती हैं।

शेर सिंह तथा सुदर्शन वशिष्ठ ने भी इस अंक में योगदान किया है। पत्रिका में शैलजा की कतिपय कहानियां एवं कविताएं भी प्रकाशित की गई हैं, जो पाठकों को आकर्षित करती हैं। संतोष शैलजा ने जो पुस्तकें लिखी, उसकी सूची भी प्रकाशित की गई है। सन्नाटे के पट न खोलो, सांझ, भावी भारत निर्माता, तुम ही प्राण हो, कहो कौन तुम, संदेश मेरा ले जाना, तुम्हारी प्रेम पाती, मैं जब-जब होती हूं उन्मन, कुहुक कोयलिया की, ओ प्रवासी मीत मेरे तथा आज बरस जाने का मन है, जैसी कविताएं विविध भावों की अभिव्यंजना करती हैं। डा. सुशील कुमार फुल्ल अपने आलेख में शैलजा को भावानुभूतियों की संवेदनशील रचनाकार के रूप में देखते हैं। वहीं शांता कुमार ने अपने जीवन-संघर्ष में शैलजा के योगदान को याद करते हुए उन्हें एक बेहतर रणनीतिकार के रूप में चित्रित किया है। आशा है साहित्य के रसिया पाठकों को यह अंक पसंद आएगा।

-फीचर डेस्क


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