गुणवत्ता की डूब में-3

By: Oct 31st, 2022 12:05 am

हिमाचल में सामाजिक सुरक्षा के सियासी मायने इतने प्रबल व सफल माने गए हैं कि राज्य स्तरीय प्राथमिकताएं इन्हीं के इर्द-गिर्द ताना-बाना बुनती हैं, जबकि सामाजिक परिवर्तन और जरूरतों को तदर्थवाद के जरिए देखा जाता रहा है। प्रदेश का शहरीकरण और शहरी मानसिकता में पनपती सामाजिक ख्वाहिशों को समग्रता से समझने की कोशिश ही नहीं हुई। आश्चर्य यह कि दशकों पहले आया ग्राम एवं नगर योजना कानून अपनी भूमिका भूल गया और विभागीय जरूरतें मौन कर दी गईं। बात शहरी योजना से गांवों को बाहर करने या साडा के तहत शर्तों को सुन्न करने की होती रही, लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि शिमला के किस इलाके में लाश को भी निकलने का रास्ता उपलब्ध नहीं। बेशक जयराम सरकार ने हिम्मत दिखाते हुए एक साथ तीन नगर निगम बना दिए, लेकिन इनके भीतर प्रशासनिक व वित्तीय गुणवत्ता का प्रश्न हल नहीं हुआ। बीबीएन कब बढ़ते-बढ़ते महानगर हो गया, लेकिन इसे नगर निगम का दर्जा क्यों नहीं मिला।

अटल सरकार ने औद्योगिक पैकेज से हमें उत्पादन और आर्थिकी की एक नई संभावना दी, लेकिन आज तक औद्योगिक अधोसंरचना को गुणवत्ता के साथ पुष्ट नहीं किया गया। यही वजह है कि हिमाचल की आर्थिक राजधानी बीबीएन की अधिकांश कमाई का फायदा पड़ोसी राज्यों, विशेष तौर पर चंडीगढ़ को हो रहा है। बीबीएन की औद्योगिक प्रगति में व्यवस्थागत व ढांचागत गुणवत्ता जोड़ी होती, तो यह शहर अपने साथ-साथ एक मिनी चंडीगढ़ भी बसा देता और जो शहरी आर्थिकी का एक नया रोडमैप होता। इतना ही नहीं, हमने आज तक आम हिमाचली की क्वालिटी नीड्स, ख्वाहिशों और उसके माध्यम से पूंजी निवेश को ही नहीं समझा, नतीजतन चंडीगढ़ और उसके आसपास शिमला व कांगड़ा की तरफ विकसित हो रही रीयल एस्टेट का पचास फीसदी से अधिक हिस्सा हिमाचली खरीद रहे हैं। क्या हमारी नीतियों ने यह विमर्श किया कि शहरी आवासीय व्यवस्था में प्रदेश को गुणात्मक ढंग से आगे बढऩा चाहिए। हम आज भी उस हिमुडा को सियासी तौर पर पाल रहे हैं, जो हिमाचल के अच्छे घर, बस्ती या शहर का सपना पूरा नहीं कर पाया। तकरीबन 75 हजार हिमाचलियों ने एक दशक से भी पूर्व एक सर्वेक्षण के जरिए ऐसी आवासीय व्यवस्था मांगी जो आधुनिक जीवन में गुणवत्ता भर दे। कहां हैं ये परियोजनाएं।

लगभग चालीस साल से उपग्रह नगरों की रूपरेखा बन रही है, लेकिन ‘क्वालिटी लाइफ’ के लिए अधिकांश हिमाचली पलायन कर रहे हैं या वैकल्पिक व्यवस्था कर चुके हैं। बेशक हमने कुछ दशक पहले ‘न्यू शिमला’ बसाया, लेकिन शहरी परिकल्पना के नाम पर वहां देख सकते हैं कि हमारी परियोजनाओं का गुणात्मक पक्ष कितना भोथरा है। हिमाचल का शहरी जीवन राजनीतिक या प्रशासनिक हाथों में इतना लाचार व लावारिस है कि जहां जमीन मिलती है, कंक्रीट की नई दीवार खड़ी हो जाती हैं। मजाक तो यह कि स्मार्ट सिटी परियोजनाएं भी शिमला को कंक्रीट का शहर बनाने में तुली हैं। कमोबेश यही स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों में भी है। गांव भी शहरी मानसिकता में जिस तीव्रता से विकास कर रहे हैं, उससे परिवेश का संतुलन तहस-नहस हो रहा है। निर्माण सामग्री की आपूर्ति में राज्य की कोई सार्थक नीति न होने के कारण कहीं पहाड़ दरक रहे हैं, तो कहीं खड्डें, नाले और दरिया खुद के अस्तित्व को समेट रहे हैं। सबसे खतरनाक पहलू यह कि सडक़ों के किनारे हो रहा निर्माण न तो घाटियां छोड़ रहा है और न ऊंचे पहाड़ों को टिकने दे रहा है। बेशक हिमाचल को आधुनिक बाजार, आवासीय बस्तियां और स्वरोजगार के लिए अधोसंरचना चाहिए, लेकिन यह किसी योजनाबद्ध तरीके से नहीं, बल्कि अफरा-तफरी में हो रहा है। सुविधाएं तराश रहा हिमाचली समाज जब तक समूचे हिमाचल के नियोजन का सारथी नहीं बनता, जीवन शैली में गुणवत्ता का आगाज नहीं होगा। ऐसे में पूरे हिमाचल में ग्राम एवं नगर योजना कानून लागू करके जीवन में गुणवत्ता तराशनी होगी।


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