एक गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्ट

गौरतलब है कि वर्ष 1998-2002 के बीच अपने आयु से ठिगने बच्चों का अनुपात 54.2 प्रतिशत से घटता हुआ वर्ष 2016-2020 के बीच में मात्र 34.7 प्रतिशत ही रह गया है। यानी अब बच्चे पहले से ज्यादा लंबे हो रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि चूंकि बच्चे पहले से ज्यादा लंबे हो रहे हैं, इसलिए बढ़ती लंबाई के चलते उनमें पतलापन आ रहा है, जो कि अच्छा संकेत है…

15 अक्तूबर 2022 को जर्मनी की एक गैर-सरकारी संस्था ‘वेल्ट हंगर हिल्फे’ ने एक बार फिर भारत को बदनाम करने हेतु अत्यंत गैर-जिम्मेदाराना तरीके से तैयार विश्व भूख सूचकांक की रैंकिंग जारी की है, जिसमें 121 देशों की सूची में भारत को 107वें स्थान पर रखा गया है। इससे पहले पिछले साल अक्तूबर में 116 मुल्कों की सूची में भारत को 101वें स्थान पर रखा गया था। वास्तविकता से कहीं दूर यह रिपोर्ट आंकड़ों की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि विश्लेषण और क्रियाविधि यानी मैथोडलॉजी की दृष्टि से भी दोषपूर्ण ही नहीं, हास्यास्पद भी है। अकादमिक उपयोग की दृष्टि से पूर्णत: अनुपयोगी यह रिपोर्ट वास्तव में एक राजनीतिक स्टंटबाजी का एक हिस्सा प्रतीत होती है, जो भारत समेत कुछ विकासशील देशों और उनके नेतृत्व को बदनाम करने का एक प्रयास लगता है। पिछले वर्ष अक्तूबर में जब ऐसी रिपोर्ट जारी हुई थी तो भारत सरकार की ओर से उसमें इस्तेमाल किए गए आंकड़ों और क्रियाविधि पर खासा विरोध दर्ज कराया गया था और तब विश्व खाद्य संगठन (एफएओ) ने यह कहा था कि इन त्रुटियों को ठीक किया जाएगा, लेकिन अब दोबारा से उन्हीं गलत आंकड़ों और क्रियाविधि को इस्तेमाल करते हुए इस वर्ष भी रिपोर्ट जारी करने से इस संस्था की बदनीयती स्पष्ट हो रही है।

भारत की खाद्य सुरक्षा

आज जब दुनिया के कई मुल्क अपनी खाद्य सुरक्षा को लेकर आशंकित हैं, भारत दुनिया के सामने एक मिसाल बनकर उभरा है। महामारी काल में जब सभी आर्थिक गतिविधियां ठप्प हो गई थीं और गरीबों, मजदूरों और वंचितों के आय के स्रोत समाप्त हो रहे थे, ऐसे में भारत सरकार द्वारा 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन (अनाज एवं दाल) उपलब्ध कराने की योजना और उसका सफल निष्पादन अचंभित करने वाला कहा जा सकता है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भारत में खाद्य सुरक्षा को लेकर भ्रामक प्रचार में जुटी हैं, लेकिन धरातल पर एक अलग ही चित्र उभर रहा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। एक समय था, जब 1964-65 में भारत में खाद्यान्न उत्पादन मात्र 890 लाख टन ही था, जबकि भारत की कुल जनसंख्या 50 करोड़ ही थी। ऐसे में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता मात्र 178 किलोग्राम प्रतिवर्ष ही थी। उस समय खाद्यान्नों की कमी तो थी ही, साथ ही साथ अन्य पोषक खाद्य पदार्थों का उत्पादन भी बहुत कम होता था। हमने देखा कि वर्ष 1964-65 में देश में कुल 205 लाख लीटर ही दूध का उत्पादन होता था, यानी 28 मिली लीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन। फल-सब्जियां और अंडों इत्यादि का उत्पादन भी बहुत कम मात्रा में होता था। ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देशवासियों से सप्ताह में एक दिन उपवास करने का आह्वान भी किया था, ताकि खाद्यान्न एवं अन्य खाद्य पदार्थों की कमी से निपटा जा सके। अन्य खाद्य पदार्थों का उत्पादन भी कम होने के कारण देश में खाद्यान्नों की आवश्यकता कहीं ज्यादा होती थी। इन हालात में देश के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था कि वो विदेशों से खाद्यान्न आयात करें। अमरीका एक ऐसा देश था, जिसके पास अतिरिक्त खाद्यान्न उत्पादन था।

जब अमरीका से इस संबंध में सम्पर्क साधा गया तो उसने पीएल-480 योजना के तहत भारत को गेहूं भेजा। अमरीका द्वारा भेजा गया गेहूं जिसे ‘लाल गेहूं’ के नाम से भी पुकारा जाता था, अत्यंत घटिया किस्म का था कि देशवासी बहुत कम मात्रा में उसका उपभोग कर पाए। लेकिन विडंबना यह थी कि उसके साथ ही कई प्रकार के फफूंद एवं खरपतवार भी इसके साथ भारत में प्रवेश कर गए। एक अत्यंत खतरनाक खरपतवार जिसे ‘कांग्रेस ग्रास’ के नाम से भी जाना जाता है, वो भी साथ में आ गया। देश इस खरपतवार से तब से जूझ रहा है और हमारी लाखों एकड़ भूमि ही इसके कारण बर्बाद नहीं हुई, बल्कि इस खरपतवार को साफ करने के लिए हर साल हजारों करोड़ रुपया बर्बाद हो जाता है। गौरतलब है कि वेल्ट हंगर हिल्फे, विश्व भूख सूचकांक तैयार करने के लिए खाद्य उपभोग के स्वयं कोई आंकड़े एकत्र नहीं करती और केवल विश्व खाद्य संगठन (एफएओ) द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों को ही इसे उपयोग करना होता है। पूर्व में खाद्य संगठन भारत की एक संस्था राष्ट्रीय पोषण निगरानी बोर्ड पर निर्भर करती रही है, लेकिन बोर्ड का कहना है कि उसने ग्रामीण क्षेत्रों में 2011 और शहरी क्षेत्रों में 2016 के बाद खाद्य पदार्थों के उपभोग का कोई सर्वेक्षण नहीं किया है। वेल्ट हंगर हिल्फे ने बोर्ड के आंकड़ों की जगह किसी निजी संस्था के कथित ‘गैलोप’ सर्वेक्षण, जिसका कोई सैद्धांतिक औचित्य भी नहीं, का उपयोग किया है। भारत सरकार ने भी एजेंसी द्वारा प्रयुक्त इस ‘गैलोप’ सर्वे की कार्य पद्धति और उसमें पूछे गए प्रश्नों के ऊपर सवाल उठाया है।

सरकार द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि एजेंसी द्वारा जारी रिपोर्ट में सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा हेतु किए गए प्रयासों को समाहित नहीं किया गया। गौरतलब है कि भारत सरकार द्वारा देश में विश्व का सबसे बड़ा खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम चलाया जा रहा है, जिसमें न केवल पिछले 28 महीनों से 80 करोड़ देशवासियों को मुफ्त खाद्यान्न एवं दाल का वितरण किया जा रहा है बल्कि आंगनबाड़ी सेवाओं के तहत भी लगभग 7.71 करोड़ बच्चों और 1.78 करोड़ गर्भवती महिलाओं एवं स्तनपान कराने वाली माताओं को पूरक पोषण भी प्रदान किया गया है। 14 लाख आंगनबाडिय़ों में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं द्वारा पूरक पोषाहार का वितरण किया गया और लाभार्थियों को हर पखवाड़े उनके घरों तक राशन पहुंचाया गया। 1.5 करोड़ महिलाओं को उनके पहले बच्चे के जन्म पर गर्भावस्था और प्रसव के बाद की अवधि के दौरान पारिश्रमिक सहायता एवं पौष्टिक भोजन के लिए प्रत्येक को 5000 रुपए प्रदान किए गए। एक अन्य दिलचस्प सवाल यह है कि क्या वैश्विक भूख सूचकांक में इस्तेमाल होने वाले संकेतक जैसे बच्चों में ठिगनापन और पतलापन वास्तव में भूख को मापते हैं? यदि ये संकेतक भूख के परिणाम हैं, तो अमीर लोगों को भोजन तक पहुंच की कोई समस्या नहीं है, उनके बच्चे ठिगने और पतले (स्टंटिंड और वेस्टिड) क्यों होने चाहिए। 16 राज्यों के 2016 के राष्ट्रीय पोषण संस्थान के आंकडों से पता चलता है कि यहां तक कि अमीर लोगों (कारों, घरों के मालिक) में भी क्रमश: 17.6 फीसदी और 13.6 फीसदी बच्चे स्टंटिंग और वेस्टिंग से पीडि़त थे। और, अधिक वजन और मोटापे (भोजन तक पर्याप्त पहुंच) वाली माताओं के ठिगने (22 फीसदी) और पतले (11.8 फीसदी) वाले बच्चे होते हैं। इस रपट के अनुसार भी 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर भी घटी है, साथ ही साथ 5 वर्ष की आयु से कम के बच्चों में ठिगनेपन की प्रवृत्ति भी कम हुई है। समझना होगा कि अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों का अपना एक एजेंडा हो सकता है, इसलिए खाद्य सुरक्षा के मामले में हमें बिना रुके अपने मार्ग पर चलते रहना होगा।

गौरतलब है कि वर्ष 1998-2002 के बीच अपने आयु से ठिगने बच्चों का अनुपात 54.2 प्रतिशत से घटता हुआ वर्ष 2016-2020 के बीच में मात्र 34.7 प्रतिशत ही रह गया है। यानी अब बच्चे पहले से ज्यादा लंबे हो रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि चूंकि बच्चे पहले से ज्यादा लंबे हो रहे हैं, इसलिए बढ़ती लंबाई के चलते उनमें पतलापन आ रहा है, जो कि अच्छा संकेत है। ऐसे में भुखमरी मापने की कार्यपद्धति में दोष दिखाई देता है। समय की मांग है कि इस प्रकार की झूठी रपटों का ठीक प्रकार से पर्दाफाश किया जाए और विकासशील देश आंकड़ों की बाजीगरी से मुक्त होकर, जमीनी हकीकत प्रस्तुत करें। यही फायदेमंद बात होगी।

डा. अश्वनी महाजन

कालेज प्रोफेसर


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