साहित्य के द्वार पर दस्तक देते फिल्मी गीत

By: Nov 27th, 2022 12:07 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -40

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

डा. विनोद प्रकाश गुप्ता ‘शलभ’, मो.-9816069069

दो पल के जीवन से इक उम्र चुरानी है, ये उस गाने के बोल हैं जो आपकी रूह तक को सराबोर कर देगा, जह्न में पैवस्त हो जाएगा और आप एक जमाने तक इसे गुनगुनाते रहेंगे। हिन्दुस्तान में फिल्मी गीतों का इतिहास कोई 87/88 साल पुराना है। फिल्मी गीतों, गज़़लों, नज़्मों और भजनों ने जितना ख़ास-ओ-आम जन-जीवन को प्रभावित किया, जन-जन की भावनाओं से जुड़े, मनो-मस्तिष्क को उद्वेलित और उद्विग्न किया, आंखों से समुन्दर प्रवाहित करवाए, उतने किसी और विधा ने नहीं किया होगा। हिन्दी छंद कविताओं की अपनी निश्चित मात्रायें प्रस्तावित रहीं और छंद लेखन में कोई भी छूट (गज़़ल के विधान की तरह नहीं) उपलब्ध न होकर भी, ये नहीं कहा जा सकता की छंद कविता में तुकांतों का प्रभाव या भरमार नहीं रही। फिल्मी गीत/नग़मों में भी तुकांतों की भरमार रही। फिल्मी गीत/गज़़ल हरसंभव मौकों के लिए कहे गए, और दूसरी चमड़ी की तरह लोगों के दिलो दिमाग़ पर छा गए। इतना कुछ होते हुए भी फिल्मी नग़मों को साहित्य में वो दर्जा नहीं मिला जो कविताओं और अब छंद मुक्त कविताओं को मिल रहा है। मेरी याद में नहीं आता कि पाठ्य पुस्तकों में कोई भी फिल्मी गीत किसी पाठ्यक्रम में शुमार किया गया हो, न स्कूल, न कॉलेज, न किसी विश्वविद्यालय में।

स्कूलों में गायी जाने वाली इन प्रार्थनाओं को याद करें- हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें, दूसरों की जय से पहले ख़ुद की जय करें या इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमज़ोर हो न, हम चलें नेक रस्ते पे हमसे भूल कर भी कोई भूल हो ना, ऐसा कहा जाता है कि स्व. अभिलाष जी लिखित ये प्रार्थना देश के लगभग 6000/7000 स्कूलों में आज भी गायी जाती हैं, पर पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं। जीवन शैली से जुड़ा कोई ऐसा उत्सव या जीवन पर प्रभाव डालते कोई ख़ुशी या ग़म के अवसर नहीं जिस पर फिल्मी गीत लिखे न गए हों- गरीब-अमीर, शादी-ब्याह, प्रेम-बिछोह, दुख-दर्द, ग़म-ख़ुशी, रक़ीबों-दोस्तों, रहजनी-रहबरी, अंधेरे-उजाले, बचपन-जवानी, रिश्ते-नाते, गांव-शहर के जीवन, फोक लोर,प्रेम सम्बन्धों, सामाजिक विसंगतियों, ज़मींदारी, बँधवा मज़दूरी, क्लास स्ट्रगल, राजनैतिक संघर्ष और क्राइम (ये लिस्ट कभी पूरी नहीं हो सकती) फिल्मी गीतों ने प्रभावित न किया हो। विश्व में फिल्मों ने जनजीवन पर अभूतपूर्व प्रभाव डाला है, पर फिल्मी गीतों को वो दर्जा साहित्य जगत के समालोचक नहीं दे सके, देना ही नहीं चाहते। गहन साहित्य की आड़ में फिल्मी गीतों से ये सौतेला व्यवहार उचित नहीं जान पड़ता।

आज तो कविताओं के स्तर का जो हाल है वो सर्वविदित है। मैं यह नहीं कहता कि सभी कविताएं स्तरीय नहीं हैं, पर उनकी पहुंच कितनी है। अधिकतर कविताएं निम्न से भी निम्न स्तर की हैं। कवि क्या कहना चाहता है ये स्पष्ट ही नहीं होता। कविता की भाषा, शब्द चयन, रूपक, बिम्ब और लालित्य नाम मात्र भी नहीं होता, और ऊपर से वर्तनी की ग़लतियां। आज छंद मुक्त कविता इतनी क्लिष्ट, निरर्थक, असंगत, बेतुकी, विवेकहीन व दुरूह भाषा में लिखी जा रही है जिसका अर्थ शायद कवि स्वयं भी बता न सकें। कुल मिला कर अधिकतर कविताएं जह्न में कोई ख़ास प्रभाव नहीं छोड़ती, पर नेटवर्किंग के सहारे कई कविताएं किसी न किसी पाठ्यक्रम में शामिल करवा दी जाती हैं। मैं यहां कालजयी कवियों व उन द्वारा सृजित कालजयी कविताओं का जिक़्र नहीं कर रहा- कवि आज भी पैदा हो रहा है और ऐतिहासिक रचनाएं सृजित कर रहा है। साहित्य में उनका योगदान बहुमूल्य और बेजोड़ है। प्रकाशक भी कविता संग्रह प्रकाशित करने में बहुत संकोच करते हैं, कहते हैं कविता बिकती नहीं, कोई खऱीदता नहीं, पाठक ही नहीं हैं। ये एक दुश्चक्र है कि पाठक नहीं हैं तो प्रकाशन कैसे हो। फिल्मी गीतों में तो कवि को लेखक होने का दर्जा भी नहीं मिलता। इस पर पिछले दिनों अमीर खान व जावेद अख्तर के बीच लम्बी बहस भी छिड़ी थी फिल्मी लेखकों को रॉयल्टी देने के संदर्भ में और लेखकों की विजय हुई। मैं अब फिल्मी गीतों के साहित्य पक्ष पर आता हूं। अधिकतर गीत तुकबंदियों में होते हैं पर असंख्य गीत साहित्य की दृष्टि से उत्कृष्ट रचनाएं होती हैं जिन्हें स्कूल, कॉलेज व यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रमों में शामिल होना ही चाहिए। इन्हें केवल फिल्मी गीत कह कर नकारा नहीं जा सकता। फिल्मी गीतों पर भी उचित रिसर्च अपेक्षित है।

ऋषि नीरज जी ने गीत लिखा, ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’, ये गीत जि़ंदगी के सम्पूर्ण फलसफे को जिस ख़ूबसूरती व सार्थकता से बयान करता है, हज़ार कविताएं भी न कर पायें। नीरज के ही दूसरे गीत ‘और हम खड़े-खडे कहार देखते रहे, कारवां गुजर गया ग़ुबार देखते रहे’, ये गीत प्रेम की व्यथा को जिस तीक्ष्णता से दर्शाता है ऐसी मिसाल ढूंढे नहीं मिलती या, ‘मैं ये सोच के उसके दर से उठा था कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझको’, एक फौजी जो सीमा पर लड़ता है उसके लिए प्रेम की ये भावना ही जीवन मरन का यक्ष प्रश्न होता है। एक फौजी जब ये आशा जगाता है, ‘वहीं थोड़ी दूर है घर मेरा, मेरे घर में है मेरी बूढ़ी माँ, मेरी माँ पाँव को छू के तू, उसे उसके बेटे का पयाम दे, मैं वापस आऊँगा’, ये जावेद अख्तर का नग़मा 20 लाख फौजियों और उनके परिजनों को उनके बेटे की जीवन्तता और जि़ंदा लौटने की उम्मीदों और आशाओं से परिपूर्ण कर देता है। है कोई कविता इस अनुभूति के समकक्ष- ‘फूल की अभिलाषा भी नहीं’, मेरे पास सैंकड़ों गीत हैं जो कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में शुमार किए जाने चाहिएं।

रक्षाबंधन के इस गीत को ही लीजिए- ‘शायद वो सावन भी आए जो पहला सा रंग न लाए, बहन पराये देश बसी हो और वो तुम तक पहुंच न पाए, याद की दीपक जलाना-जलाना, भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना’। ये गीत जिस तरह भाई बहन के प्रेम को निश्छलता से उकेरता है वो लाजवाब है। एक फिल्म का गीत है, शायद जागृति का , ‘इंसाफ की डगर पे बच्चों दिखाओ चल के, ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो कल के’। बच्चों में संस्कारों का संचार करते हैं ऐसे गीत। मैं कुछ फिल्मी गीतों के प्रारंभिक बोल देना चाहूँगा जो साहित्य की श्रेणी में सीधे-सीधे प्रवेश के काबिल हैं। अगर साहित्य के ठेकेदार इन्हें शुद्ध साहित्य मानने पर गुरेज़ करें तब भी ये पॉपुलर साहित्य तो हैं ही। कुछ दिनों पहले लेखक चेतन भगत के उपन्यास ‘फाइव प्वाइंट प्लस वन’ को लेकर भी ‘शुद्ध साहित्यकारों’ ने हल्ला मचाया था, जब उपन्यास को दिल्ली यूनिवर्सिटी द्वारा बीए कोर्स में लगाने का प्रस्ताव पारित हुआ था। देखिए कुछ गीत गाने : 1. जि़न्दगी का सफर है ये कैसा सफर, कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं, 2. आ अब लौट चलें नैन बिछाए बाहें पसारे तुझको पुकारे देश तेरा (डाकुओं की घर वापसी इसी से प्रेरित हुई थी), 3. तू प्यार का सागर है तेरी इक बूंद के प्यासे हम, 4. मन रे तू काहे न धीर धरे, 5. मालिक तेरे बन्दे हम, ऐसे हों हमारे करम, नेकी पर चले और बदी से डरें ताकि हंसते हुए निकले दम, 6. होठों पे सच्चाई रहती है, जहां दिल में सफाई रहती है, हम उस देश के वासी हंै जिस देश में गंगा बहती है, 7. रुक जाना नहीं तू कहीं हार के, 8. इज़्ज़त वतन की हमसे है, शोहरत वतन की हमसे है, इस देश के हम रखवाले, 9. ऐ मेरे वतन के लोगों जऱा आंख में भर लो पानी जो शहीद हुए हैं उनकी जऱा याद करो कुर्बानी, 10. फूलों के रंग से दिल की कलम से, तुझको लिखी रोज़ पाती, 11. जि़ंदगी हर क़दम इक नई जंग है, 12. तू धार है नदिया की मैं तेरा किनारा हूं, 13. जि़ंदगी की न टूटे लड़ी प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी, 14. दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई काहे को दुनिया बनाई, 15. इतनी ज़ुबानें बोलें लोग हमजोली, दुनिया में प्यार की एक है बोली या 16. सत्यम शिवम् सुन्दरम, 17. मैं पल दो पल का शायर हूं पल दो पल मेरी कहानी है। ऐसे हज़ारों लाखों गीत हैं जो भाषा, कथ्य, लालित्य, रूपक, बिंबों के सौजन्य से मानव संवेदनाओं के अलमबरदार हैं- सृजन की कसौटी पर उत्कृष्ट । सच मानिए ! कितने ही फिल्मी गीतकार गज़़लकार हैं जिन्होंने कालजयी गीतों का सृजन किया जो 7/8 दशकों से सुनने वालों की स्मृतियों में आज भी रचे बसे हैं। शैलेंद्र, जावेद अख्तर, गुलज़ार, कैफी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूनी, कवि प्रदीप, साहिर लुधियानवी, नीरज आदि-आदि, जिन्होंने कालजयी गीत देश को अर्पित किए, प्रमुख पद्म सम्मानों से अलंकृत हुए, देश-विदेश में ख़ूब नाम कमाया, पर पाठ्यक्रमों में अपनी जगह न बना सके। मेरा मत है कि नर्सरी, प्राइमरी व मिडिल स्कूलों के पाठ्यक्रमों में अगर सार्थक सारगर्भित गीत शुमार किए जायेंगे तो बच्चों के कोरे मनों-मस्तिष्क पर बहुत सच्चा व सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा व बच्चों को आसान पद्य की सहायता से कथ्य समझाया जा सकेगा। उनके मन में देश भक्ति, रिश्ते-नातों व जीवन मूल्यों की गहरी समझ उजागर की जा सकेगी। आने वाली पीढिय़ां अधिक संवेदनशील, मानवतावादी व जि़म्मेदार नागरिकों का दायित्व निभाने में तैयार किया जा सकेगा। फिल्मी गीत साहित्य के दरवाज़ों को पुरज़ोर खटखटा रहे हैं और समय आ गया है फिल्मी गीतों और उनके लेखकों को साहित्य जगत में लब्धप्रतिष्ठित सम्मान अब मिलना ही चाहिए।

-डा. विनोद प्रकाश गुप्ता ‘शलभ’

व्यंग्य की कसौटियां टटोलते प्रभात कुमार

जुबान में कलम को रखना या कलम को जुबान बना देना, केवल व्यंग्य की भाषा में संभव है। व्यंग्य अपनी भाषा के अर्थों में निरीह नहीं हो सकता, लेकिन असर के तौर पर इसकी क्षमता को महसूस करना ही इसकी वकालत है। अच्छे दिनों की खबर लेने के लिए, इसकी ही खबर बना देना अगर व्यंग्य है, तो अच्छे वक्त की खुशफहमी पाल लेना भी व्यंग्य है। प्रभात कुमार, ‘हमारे संज्ञान में नहीं आया है’ व्यंग्य संग्रह के मार्फत ज्ञान-विज्ञान की सुप्त इंद्रियों के साथ चुपके से छेड़छाड़ कर रहे हैं। वह अति गंभीरता से व्यंग्य की कसौटी में आज के युग की हरकतें टटोल रहे हैं, जहां कर्म की परिभाषा, परिणाम की आशा और उम्मीदों को दिलासा देने की शैली में प्रभात कुमार पाठकों से चुटकी ले रहे हैं।

रचनाओं में कसाव, विषय वस्तु में निखार और व्यवस्था का हिसाब करतीं कुल 52 रचनाएं अपनी विविधता से संवाद करती हैं, तो व्यंग्य से आम पाठक के ताल्लुकात बढ़ जाते हैं। संग्रह में व्यंग्य के तीर जब गहरे से पूछते हैं, तो असली आयुर्वेद की खोज, इतिहास बदलने के इच्छुक, न्यू इंडिया के न्यू संकल्प, हमारे संज्ञान में नहीं आया है, हेराफेरी की रद्दी, सूफी सफेद शराबी रंगीन, वक्त का बदलता मि•ाा•ा, कर्ज का इंजेक्शन, पाखंड के नए कैनवास, और न बख्शने के मौसम में, किस्मत जैसी रचनाएं हमें हिला जाती हैं। विज्ञापन के युग में बिकते सामान से शौर्य को निकाल लेना या अखबार की नस्ल से खबरों के असल में मूल धन जोड़ देना, केवल व्यंग्य की कलम ही कर सकती है। प्रभात बारीकी से मुआयना करते हुए खबरों से निकलते धुएं को पकड़ लेते हैं। है न अजीब बात, फिर भी लेखक इतिहास रचने के बजाय इतिहास बदलने के अति कठिन रास्ते पर ठोकरें खाकर भी लिखता है। आज का इतिहास जहां लिखा और जहां बदला जा रहा है, उसे संरक्षण देने की मांग व्यंग्य की मुद्रा में बदलते आदर्शों के मुंह में अंगुली डाल देती है ताकि उबकाई न आए। कलम के दम पर ये सारे व्यंग्य हमारे आसपास की घटनाओं को इतना निचोड़ देते हैं कि पाठक भी अपने मूल विचारों से निवृत्त होकर शीर्षासन करता है, ताकि धरातल से आसमान और आसमान से धरातल तक आया जाया जा सके।

व्यंग्य कहने का अंदाज ‘एक गोल गप्पे की कीमत’ का मूल्यांकन करते हुए इसे सातवें आसमान तक पहुंचा सकता है, तो ‘टमाटर या प्याज महंगे होने के फायदे’ गिनते हुए पकवान के नए विज्ञान को ईजाद कर सकता है यानी व्यंग्य की अपनी धारा और अपने धैर्य हैं, जो सांसारिक प्रतिकूलता को आसानी से निगल सकते हैं। डिजीटल युग के अपने अनुभव हैं जो किसी व्यंग्य से कम नहीं, इसलिए लेखक ‘कर्ज़ का इंजेक्शन’ व ‘एटीएम की ऐतिहासिक बातें’ करते-करते ऐसा मुकाम खोज रहा है, जो कल हमें खुद पर अफसोस करने से रोक सकता है। हमें खुद पर होते हास-परिहास को देखना हो तो किसी न किसी सरकारी कार्यालय के दर्शन कर लेने चाहिएं। प्रभात कुमार के साथ ‘नेता और अफसरशाही’ या ‘लाल फीते वालों की हमेशा जय’ से गुजरते एहसास के व्यंग्य को छूना स्वाभाविक सा लगता है। ‘हमारे संज्ञान में नहीं आया है’ के बहाने लेखक सार्वजनिक संज्ञान के कान खोलता है ताकि सनद रहे। हिंदी को महीने भर मनाने का महीन वर्णन जैसे टूटी छत से टपकते पानी की संग्रहण क्षमता को बढ़ा देता है। संग्रह के भीतर राजनीतिक पुष्प गुच्छों से उलझते आम आदमी के विचार और हर निराशा में आशावान दिखने का कोई न कोई बहाना प्रस्फुटित होता है, ‘सरकार किसकी होगी, यह अंदाजा लगाने का काम हम, रोजी-रोटी के लिए की गई मेहनत से भी ज्यादा मेहनत से करते हैं।’ व्यंग्य की अपनी गति और तीव्रता है, ‘जितनी मौतें आतंकवादियों के हाथों नहीं होतीं, उतनी सेप्टिक टैंक की सफाई करते हो जाती हैं।’ लेखक निरंतर कोशिश कर रहा है कि हम स्वनिर्मित तनाव से मुक्त रहें, ‘वैसे तो हिंदुस्तानी किसी भी बात से ज्यादा परेशान नहीं होते, पर कभी-कभी दिल में ख्याल आता है कि कहीं लोग फूहड़ तरीकों से हंस-हंस कर ऊबने तो नहीं लग गए हैं।’

-निर्मल असो

व्यंग्य संग्रह : हमारे संज्ञान में नहीं आया है
लेखक : प्रभात कुमार
प्रकाशक : इंडिया नेटबुक्स, नोएडा
कीमत : 250 रुपए

पुस्तक समीक्षा : ‘सेतु’ का सुंदर अंक

साहित्य, संस्कृति व कला की अद्र्धवार्षिक पत्रिका ‘सेतु’ का जुलाई-दिसंबर 2022 का अंक संपादक डा. देवेंद्र गुप्ता के नेतृत्व में निकाला गया है। इस पत्रिका के संपादक चंद्रप्रभा गुप्ता हैं तथा अंक की सहायता राशि 150 रुपए है। संपादकीय में संपादक महोदय सेतु के डेढ़ दशक की उपलब्धियों का ब्योरा पेश करते हैं। इस अंक में प्रकाशित कहानियां पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती हैं। विनोद शाही की रक्त जिह्वा, गीताश्री की बारहगामा, त्रिलोक मेहरा की घर-बेघर, हंसराज भारती की चौकी वाले, गंगाराम राजी की मेरी दोस्ती मेरा प्यार, मुरारी शर्मा की नदी किनारे का गांव और दीप्ति सारस्वत ‘प्रतिमा’ की कूजे का फूल जैसी कहानियां पाठकों का भरपूर मनोरंजन करती हैं।

रेखा वशिष्ठ, नीलोत्पल, भरत प्रसाद और दीपक भारद्वाज की कविताएं मन मोह लेती हैं। इसी तरह मोहन कृष्ण बोहरा, डा. सूरज पालीवाल व पवन चौहान ने अपने-अपने आलेखों के जरिए पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। दिनेश शर्मा, केआर भारती, सुदर्शन वशिष्ठ व डा. हेमराज कौशिक ने पुस्तक समीक्षाओं के जरिए इस अंक को सुंदर बनाने की कोशिश की है। इस अंक में और भी ऐसी सामग्री है जो पाठकों के काम आएगी। आशा है यह अंक पाठकों को जरूर पसंद आएगा।

-फीचर डेस्क


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