उडऩखटोले पर उड़ जाऊं, तेरे हाथ न आऊं

By: Nov 12th, 2022 12:05 am

राज्य के आरंभिक दिनों पर नजर दौड़ाएं तो पहले नेता आम आदमी ही होता था। उसके पास भी आमजन की तरह घोड़ा-खच्चर होती थी। कुछ राजनेता जीप खरीदने लगे। फिर उन्हें सस्ती दरों पर ऋण मिलने लगा। नेताओं के पास कारें आने लगी। वर्ष 2000 के उपरांत राजनेताओं में महंगी कारों की खरीद होने लगी। 2017 के उपरांत हैलीकॉप्टर वाला विधायक भी दिखा जिसके आंगन में भी अपना हैलीपैड बना है। यह सब जनता के प्रतिनिधि की समृद्धता का पर्याय बना। कारों के साथ-साथ शहरों में आलीशान कोठियां बनी। जब नेता धरातल पर चलकर अपने गंतव्य स्थल पहुंचता था तो रास्ते, सडक़ें तथा संस्थान चमकते थे। सडक़ों की विशेष मरम्मत होती थी…

आजकल हिमाचल प्रदेश की ठंडी वादियों में विधानसभा चुनावों की गर्मी बढऩे लगी है। राज्य विधानसभा की 68 सीटों के लिए 412 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। इनके भविष्य का फैसला करीब 55 लाख मतदाता करेंगे। चुनाव मैदान में 26 वर्ष से लेकर 82 वर्ष तक का उम्मीदवार अपनी किस्मत अजमा रहा है। यह सच है कि देश पहले बना और आठ माह उपरांत हिमाचल अस्तित्व में आया। लगभग 75 वर्षों में जहां सडक़ों का जाल बिछा, वहीं अनेक संस्थान व जनसुविधाओं का विस्तार भी हुआ। पिछले तीन दशकों में एक नई बात देखने को मिली कि सडक़ चाहे कच्ची हो या न भी हो, हैलीपैड जरूर बने। इनका निर्माण यहां के प्रबुद्ध राजनीतिज्ञों ने पर्यटन के लिए नहीं बल्कि अपनी सुगमता को सुनिश्चित बनाने के लिए किया। इसी का प्रतिफल है कि भोर होते ही हिमाचल के नीले आकाश में उडऩखटोलों को देखा जा सकता है। बच्चे जिज्ञासावश इन उडऩखटोलों की आवाज सुनकर घरों से बाहर दौड़ते नजर आते हैं। उन्हें क्या पता कि देश व प्रदेश के बड़े तथा छोटे नेता उडऩखटोलों में मतदाताओं रिझाने की होड़ मेें परवाज भर रहे हैं। उन्हें देखकर मशहूर फिल्म अनमोल घड़ी में जोहरा बाई अंबाले वाली व शमशाद बेगम द्वारा गाया गीत याद हो उठता है- ‘उडऩखटोले पर उड़ जाऊं, तेरे हाथ न आऊं’। इस गति का फलसफा भी यही है कि मैं अगले पांच वर्षों तक किसी के हाथ आने वाला नहीं। तुम देखते रह जाओगे। प्रदेश ने अभी अपने गठन की 75वीं जयंती मनाई है,जो वर्ष 2023 की 15 अप्रैल को पूर्ण होगी। हिमाचल में राजनीतिक गतिविधियों का आगाज 1937 के करीब आरंभ हो गया था। हिमाचल के गठन के बाद प्रदेश का नेतृत्व डा. यशवंत सिंह परमार जैसे कर्मठ, दूरदर्शी नेता ने किया था। वे न घोड़ा, न गाड़ी, मीलों पैदल चुनाव प्रचार करते थे। उन जैसे नेताओं ने अपने कदमों से राज्य के चप्पे-चप्पे को नापा था और आमजन के दुख-दर्द को सांझा कर उनसे आत्मीयता वाला रिश्ता कायम किया था।

यही उनकी विकासात्मक प्राथमिकता होती थी। उन्हीं की दूरदर्शिता से प्रदेश में सडक़ों का जाल बिछा। फिर वे जीप द्वारा गांव-गांव पहुंचे। उनका जमाना वर्ष 1977 के आते-आते समाप्त हो गया। आज भी उनकी यात्राओं के वृतांत 70 वर्ष से अधिक आयु के लोगों (मतदाताओं) से सुने जा सकते हैं। फिर शांता कुमार, रामलाल ठाकुर का नेतृत्व मिला। उन्होंने भी जीप व कारों से प्रदेश को निहारा और प्रदेश आगे बढ़ा। वर्ष 1983 में वीरभद्र सिंह को प्रदेश की कमान मिली, वो भी 1990 तक पुरानी परिपाटी को अपनाते रहे। उनके तूफानी दौरे से प्रदेश की दिशा व दशा बदली। एक बार फिर शांता कुमार की सरकार बनी, लेकिन वे अपने आदर्शों पर ही चलते रहे। वर्ष 1994 में फिर कांग्रेस की सरकार वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में बनी। उसी काल में राज्य के जनजातीय लोगों की दुर्गमता व सर्द ऋतु में उन क्षेत्रों का देश-दुनिया से कट जाने के नाम पर राज्य को उडऩखटोला मिला। फिर राजनीतिक दौरों, प्रयासों के मायने ही बदल गए। राज्य में राजनीतिक दौरों के नए युग का आगाज हुआ।

राज्य के आरंभिक दिनों पर नजर दौड़ाएं तो पहले नेता आम आदमी ही होता था। उसके पास भी आमजन की तरह घोड़ा-खच्चर होती थी। कुछ राजनेता जीप खरीदने लगे। फिर उन्हें सस्ती दरों पर ऋण मिलने लगा। नेताओं के पास कारें आने लगी। वर्ष 2000 के उपरांत राजनेताओं में महंगी कारों की खरीद होने लगी। 2017 के उपरांत हैलीकॉप्टर वाला विधायक भी दिखा जिसके आंगन में भी अपना हैलीपैड बना है। यह सब जनता के प्रतिनिधि की समृद्धता का पर्याय बना। कारों के साथ-साथ शहरों में आलीशान कोठियां बनी। जब नेता धरातल पर चलकर अपने गंतव्य स्थल पहुंचता था तो रास्ते, सडक़ें तथा संस्थान चमकते थे। सडक़ों की विशेष मरम्मत होती थी। चूना लगता था। गांव-गांव के लोग सडक़ों पर पहुंचकर अपनी फरियाद रखते थे। आमजन के साथ एक राफ्ता कायम होता था। आकाश मार्ग में तो सडक़, संस्थान और लोग मिलते नहीं। आमजन से दूरियों का यह सिलसिला हवाई उड़ानों के दौर में साल-दर-साल बढ़ता गया।

इस नई प्रक्रिया से राजनेता वस्तुस्थिति व वास्तविकता से कोसों दूर होते चले गए। यूं कहें कि हैलीकॉप्टर की संस्कृति हावी होती गई। आरंभ में सडक़ों, पुलों के निर्माण को प्राथमिकता मिली नहीं। विगत तीन दशकों में हैलीपैडों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई। ये सच है कि नेता लोग वहां जाना पसंद करते हैं, जहां हैलीपैड की सुविधा हो। तदोपरांत, हर आने वाली सरकार के लिए एक प्रथा बन गई, मुख्यमंत्री और उसका उडऩखटोला। वह कहां जाएगा, कौन इसमें बैठेगा, सब मुख्यमंत्री के आदेश पर। यूं कहें कि मुख्यमंत्री का यह पुष्पक विमान उसकी नई पहचान बना। पूर्व में चंबा, केलांग जाने में तीन दिन लगते थे। अब सुबह शिमला, दोपहर चंबा और शाम दिल्ली में बीतती है। ये नहीं कि इसने सुगमता को नहीं बढ़ाया है, लेकिन ऊंची उड़ान ने आमजन से दूर जरूर किया है। चुनावों की इस बेला में देश व प्रदेश के सभी छोटे-बड़े नेता उडऩखटोलों में उड़ते नजर आ रहे हैं। सभी की एक ही दौड़ है कि किसे 8 दिसंबर 2022 को आगामी पांच वर्षों तक उडऩखटोले की चाबियां मिलेगी। फिर वे पांच वर्षों तक हवा में रहकर हवाई वायदों के मसीहा बनेंगे। जनता पृथ्वी पर रह कर नभ को निहारती रहेगी। फिर आने वाले पांच वर्षों के उपरांत फिल्म अनमोल घड़ी के उस गीत की याद आएगी- उडऩखटोले पर उड़ जाऊं, तेरे हाथ न आऊं।

विनोद भारद्वाज

पूर्व संपादक, गिरिराज


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