जाति प्रथा को उखाड़ फेंकने की दरकार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों में एक प्रमुख कार्य सामाजिक समरसता का भी है। समाज के विभिन्न वर्गों में समरसता स्थापित करने के लिए संघ की सभी शाखाएं प्रयास करती हैं। त्योहारों एवं अन्य कई अवसरों पर सामान्यत: गऱीब, वंचित और समाज के पिछड़े वर्गों के बीच जाकर स्वयंसेवकों द्वारा अपने स्नेह और अपनत्व का भाव स्वाभाविक रूप से व्यक्त किया जाता है। राष्ट्र के निर्माण के लिए सभी वर्गों को मिलजुल कर काम करना होगा…

हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने भारतीय समाज से यह अपील की है कि जाति प्रथा के कारण समाज में विघटन और अन्य बुराइयों को दूर करने हेतु जाति प्रथा को उखाड़ फेंकने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि वर्ण और जाति को पूरी तरह से नकार दिया जाना चाहिए क्योंकि आज इस व्यवस्था की कोई प्रासंगिकता नहीं बची है। उन्होंने यह कहा कि सामाजिक समानता भारतीय परंपराओं का हिस्सा रही है, लेकिन अब इस विशेषता को भुला दिया गया है जिसके हानिकारक परिणाम निकल रहे हैं। प्रारंभ में वर्ण और जाति व्यवस्था के अंतर्गत भेदभाव नहीं होता था, और इस व्यवस्था का लाभ था। लेकिन अब यह मात्र एक इतिहास बन कर रह गया है। जाति प्रथा के कारण आई बुराइयों के बारे में उन्होंने कहा कि पिछली पीढिय़ों ने कुछ गलतियां की हैं और भारत भी उसमें अपवाद नहीं है, लेकिन आज जो भी व्यवस्था समाज में भेदभाव का कारण बने, उसे जड़ से उखाड़ फेंकने की जरूरत है। संघ प्रमुख की इस अपील के बारे में मिश्रित प्रतिक्रिया हुई है। अधिकांशत: लोगों ने इसका स्वागत किया है। लेकिन कुछ लोग इसके राजनीतिक निहितार्थ लगाने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे कुछ लोग कह रहे हैं कि समाज में बढ़ रही विघटनकारी परिस्थितियों से ध्यान हटाने की कोशिश हो रही है। कुछ लोगों का यह कहना है कि मोहन भागवत जी के इस वक्तव्य से उन लोगों का मुंह बंद करने की कोशिश हो रही है जो संघ को ब्राह्मण प्रधान मानते हैं।

संघ के अस्तित्व से जुड़ा है यह विचार : जो लोग सरसंघचालक के द्वारा व्यक्त इस उद्गार को कोई नया विचार समझते हैं, शायद वे संघ के अस्तित्व में आने के उद्देश्य के बारे में अनभिज्ञ हैं। वर्ष 1925 में देश में स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था। उस समय संघ के संस्थापक एवं आदि सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार महाराष्ट्र कांग्रेस के एक प्रमुख नेता के नाते स्वतंत्रता आंदोलन में जुटे हुए थे। लेकिन एक विचार एवं चिंता लगातार उनके मन को उद्वेलित कर रही थी कि एक बार अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होकर देश जब स्वतंत्र होगा तो क्या हम अपनी स्वतंत्रता को बरकरार रख पाएंगे? यदि सोचें कि हमारा देश गुलाम ही क्यों हुआ था, तो उसके पीछे देश में भाषा, प्रांत, जात-बिरादरी, उसके प्रमुख कारण थे। विदेशी आक्रांताओं ने भारत की जात-बिरादरी, भाषा, प्रांत, पहनावे इत्यादि के भेदों का भरपूर लाभ उठाया और देश को गुलाम बनाने में सफल हो गए। यह नहीं कि हमारे देश में लोगों ने आक्रांताओं का प्रतिकार नहीं किया। लेकिन इतिहास गवाह है कि हर बार हमारे बीच की फूट का लाभ विदेशी आक्रांता लगातार उठाते गए और अन्य देशों से आए आक्रांताओं ने इस देश में न केवल भारी मात्रा में लूट-खसूट की, बल्कि एक लंबे समय तक अपना शासन भी स्थापित करने में वे सफल हो सके। अंग्रेजों ने भारतीय समाज की इन विविधताओं को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। उन्होंने तरह-तरह के सर्वेक्षण कराकर इन विविधताओं को और अधिक उजागर किया और लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ भडक़ाने का काम किया। अंग्रेज शासन के दौरान ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिसमें उन्होंने विभिन्न जातियों एवं वर्गों को एक-दूसरे के खिलाफ भडक़ा कर उनमें शत्रुता का भाव जागृत किया। विदेशी शासकों की इसी नीति को इतिहासकारों ने ‘फूट डालो, शासन करो’ की नीति का नाम दिया। ऐसे में देशभक्त हेडगेवार के मन में यह विचार आना स्वाभाविक ही था, जब तक समाज में उपस्थित विविधताओं के कारण आपसी मतभेदों की बुराइयों को समाप्त नहीं किया जाता, जिसके कारण हमारा देश गुलाम हो गया, आजादी मिलने के बाद भी उसके क्षरण की आशंका बनी रहेगी। उनका मानना था कि विदेशी शासक इसी फूट डालो, शासन करो की नीति पर चलते हुए अपने शासन को लंबे समय तक चला सके और न केवल देश के लोग गरीब होते गए, बल्कि देशवासियों को अंग्रेज शासकों के विभिन्न जुल्मों का भी सामना करना पड़ रहा था।

जात-बिरादरी, भाषा-प्रांत के भेदों को मिटाने के लिए बना संघ : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के समय से ही उसका पहला उद्देश्य यह रखा गया कि संघ संपूर्ण समाज को इन भेदों से मुक्त करने का काम करेगा। यह काम संघ की शाखाओं एवं विविध संगठनों के माध्यम से सहज रूप से होता है। संघ की शाखा में आने वाले स्वयं सेवकों से उनकी जात-बिरादरी, भाषा-प्रांत, वेश-भूषा आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता, बल्कि इन विषयों के बारे में संघ की कार्यप्रणाली में प्रश्न करने की भी प्रथा नहीं है। कई बार स्वयं सेवकों के जाति सूचक नाम स्वाभाविक रूप से आते हैं, लेकिन सामान्य तौर पर स्वयंसेवकों द्वारा यही प्रयास होता है कि जाति सूचक शब्दों का कम से कम उपयोग हो। जिस संगठन का जन्म ही जात-बिरादरी, भाषा-प्रांत के भेदों को मिटाने के लिए हुआ हो, उसके प्रमुख द्वारा समाज से यह आग्रह करना कि जाति प्रथा को जड़ से उखाड़ कर फंेकना चाहिए, अत्यंत स्वाभाविक ही है। संघ प्रमुख द्वारा यह कहा जाना कि इस जात-बिरादरी के चलते कई वर्गों को अत्यंत पीड़ा से गुजरना पड़ता है, हालांकि छुआछूत आदि को तो कानून द्वारा समाप्त कर दिया गया है और संविधान में सभी के लिए एकसमान व्यवहार का प्रावधान है, उसके बावजूद कई स्थानों पर कुछ जातियों के लिए कुछ प्रथाओं का निषेध अथवा कुएं से जल न लेने-देने की घटनाएं अथवा ऐसी ही कुछ विसंगतियों के चलते ही संघ प्रमुख ने जात-बिरादरी के कारण समाज को होने वाली पीड़ा एवं वेदना को व्यक्त किया है। जिस समय डॉ. हेडगेवार ने संघ की स्थापना की थी, उस समय संघ का विस्तार अत्यंत सीमित था। आज जहां संघ की प्रभावशाली उपस्थिति लगभग सभी वर्गों में और संपूर्ण भारत में है, संघ प्रमुख द्वारा इस प्रकार के वक्तव्य की समाज में अच्छी स्वीकृति मिल रही है। देश में जहां-जहां संघ के स्वयं सेवक राजनीति, मजदूर, किसान, शिक्षा, सेवा सहित समाज के लगभग सभी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं और अपने-अपने क्षेत्र में नेतृत्व भी दे रहे हैं, संघ प्रमुख के इस वक्तव्य का संपूर्ण समाज में एक अच्छा संकेत जा रहा है। यह सही है कि अभी भी कुछ राजनीतिक दल भाषा-प्रांत, जात-बिरादरी, पूजा पद्धति आदि के आधार पर समाज में भेद उत्पन्न करते हुए अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का काम करते हैं, समाज में स्वच्छ विकास एवं देश को आर्थिक दृष्टि से उन्नत बनाने के लिए इन सभी भेदों को जड़ से मिटाने का समय आ गया है। इससे राजनीति में भी स्वच्छता आएगी और देश का आर्थिक विकास भी तेजी से हो सकेगा, ऐसी आशा है।

गऱीबी-बेरोजग़ारी के राक्षसों को हराने के लिए सामाजिक समरसता : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों में एक प्रमुख कार्य सामाजिक समरसता का भी है। समाज के विभिन्न वर्गों में समरसता स्थापित करने के लिए संघ की सभी शाखाएं प्रयास करती हैं। त्योहारों एवं अन्य कई अवसरों पर सामान्यत: गऱीब, वंचित और समाज के पिछड़े वर्गों के बीच जाकर स्वयंसेवकों द्वारा अपने स्नेह और अपनत्व का भाव स्वाभाविक रूप से व्यक्त किया जाता है। हमें समझना होगा कि जब तक समाज के सभी वर्ग मिल-जुलकर राष्ट्र के निर्माण में संलग्न नहीं होंगे, गऱीबी और बेरोजग़ारी जैसे दानवों का संहार करना कठिन हो जाएगा। यह भी समझना जरूरी है कि जाति-बिरादरी और अन्य प्रकार के सामाजिक भेद समाज के ताने-बाने की रक्षा के लिए भी ख़तरा हैं।

डा. अश्वनी महाजन

कालेज प्रोफेसर


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