सामाजिक चिंतन और हिमाचली लेखन

By: Dec 4th, 2022 12:06 am

डा. विजय विशाल

मो.-9418123571

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

बीसवीं सदी के अंतिम दशक से मनुष्य की स्वतंत्रता और स्वायत्तता पर हमला तेज हो गया है। उत्तर आधुनिक समाज में आवारा पूंजी और एक किस्म की विचारहीन अराजकता ने मनुष्य का जीना हराम कर दिया है। नए समाज में सामाजिकता की नई पहल, स्वतंत्रता और सौंदर्य की नई चेतना, मानवीय मूल्यों को बचाने की इच्छाशक्ति और संघर्ष, आज के मनुष्य के जीवन में कम देखने को मिलते हैं। लगता है कि आज किसी के जीवन के पीछे कोई मुकम्मल दर्शन नहीं है और न ही किसी कर्म के पीछे कोई सुचिंतित तर्क है। एक अजीब बदहवासी और बेहोशी में लोग जी रहे हैं। पिछले दो दशकों में समृद्धि बढ़ी है, खूब बढ़ी है, विकास भी हुआ है, किंतु लोगों के जीवन में कोई बौद्धिक, आध्यात्मिक उत्थान की झलक नहीं मिलती। इतनी समृद्धि, इतनी भव्यता लेकिन दूसरी ओर इतनी नीचता, इतनी अमानवीयता-आखिर क्यों? भौतिक समृद्धि और वैचारिक सोच के बीच इतना अंतराल क्यों? यह प्रश्न बार-बार कौंधते हैं। शायद इस अंतराल का कारण है- विचारहीनता। उपभोक्तावाद ने उत्तर आधुनिक मानव को विचार-शून्य और ज्ञानहीन बना दिया है। एक तरफ ज्ञान आधारित समाज बनाने का संकल्प और दूसरी ओर विचार और ज्ञान के प्रति घोर तिरस्कार, यह उत्तर आधुनिक समाज की विडंबना है।

हर परिवर्तन किसी नए विचार के सामने आने पर होता है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि आर्थिक विकास के लिए भी सांस्कृतिक क्रांति आवश्यक होती है। दुनिया में जहां भी आधुनिक ढंग का औद्योगिक समाज बन सका है, वहां पहले कोई न कोई बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन चला। यह भी देखा गया है कि आर्थिक विकास और नई सांस्कृतिक चेतना का प्रसार एक-दूसरे को बराबर प्रभावित करते रहते हैं। जब आर्थिक उन्नति एक सांस्कृतिक चुनौती का रूप लेती है, तब खुशहाली जुटाने के काम में इनसान की ओछी और स्वार्थी वृत्तियां ही नहीं, ऊंची और आदर्श वृत्तियां भी सक्रिय होती हैं। औद्योगिक विकास के आरंभिक दौर में मु_ी-भर लोगों का उत्पादन के लिए श्रम और उपभोग में संयम का नारा लेकर आना ही समाज को धीरे-धीरे बदल डालने के लिए पर्याप्त हुआ। लेकिन भारत जैसे विकासशील देशों में मु_ी भर लोगों का उत्साह इसके लिए पर्याप्त नहीं हो सकता। कुछ विद्वानों का यह विचार है कि आजादी की लड़ाई में विकसित राष्ट्रवाद की भावना आजादी के बाद पर्याप्त सिद्ध नहीं हुई।

इधर विदेशी शासन समाप्त हुआ और उधर उन लोगों का महत्त्व भी खत्म हो गया जो गरीबों में पले-बढ़े थे और त्याग-तपस्या का जीवन-दर्शन लेकर आए थे। इनका स्थान ऐसे लोगों ने ले लिया जो एक तरह से यह मानकर चलते हैं कि देश के शासन के साथ-साथ सत्ता के उपभोग की जिम्मेदारी भी हमें सौंप दी गई है। कुछ विदेशी चिंतक सारी वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति को पश्चिम के पुनर्जागरण और सुधार-आंदोलन को धर्म से जोड़ते हुए यह फतवा दे देते हैं, कि भारत जैसे देशों में औद्योगिक क्रांति हो ही नहीं सकती। वे मानते हैं कि भारत जैसे देशों का जो धार्मिक दृष्टिकोण है, वह वास्तविक औद्योगिक उन्नति के लिए बाधक है। उनका यह मानना सिरे से गलत होगा कि किसी राष्ट्र का मानस ही गलत होता है। भारत में समाजशास्त्रियों ने देहात में जो सर्वेक्षण किए हैं, वे यह बताते हैं कि नए विचारों और विधियों को अपनाने में हमारी अनपढ़ ग्रामीण जनता तथाकथित शहरी आदमियों से अधिक सजग है। स्थिति यह नहीं कि किसान को आप अच्छे बीज, रासायनिक खाद, मशीनी उपकरण दे रहे हों और वह लेने से इन्कार कर रहा हो। स्थिति यह है कि उसके पास पैसा नहीं है और यदि पैसा है तो वह इन्हें पाने के लिए भटक रहा है। सच पूछा जाए तो हमारे यहां यदि कोई चीज आधुनिक ढंग से आर्थिक विकास के आड़े आ रही है तो वह गुलामी के दौर की मिली हुई विरासत। इसमें सबसे बड़ा दोष शिक्षा-पद्धति का है, जिसका संबंध उत्पादन से न होकर साहब, बाबूगिरीनुमा प्रशासन से है। यही नहीं, यह शिक्षा-पद्धति और इसमें निहित जीवन-दर्शन ने शहर और गांव में, बुद्धिजीवी और सर्वहारा में जबरदस्त अलगाव पैदा किया है। आर्थिक विकास के लिए यह जरूरी है कि उपभोग में ऊपर से नीचे तक हर स्तर में कमी की जाए और अधिक से अधिक पूंजी खुशहाली के कामों में लगाई जाए।

लिहाजा पहला कदम यही होना चाहिए कि जो पैदा नहीं कर रहे हैं, केवल उड़ा रहे हैं, वे समाज द्वारा निंदनीय समझे जाएं। जहां ऐसा नहीं होता वहां परजीवी संस्कृति पनपती है। वहां उत्पादनशील श्रम को किसी अभागे, मूर्ख या बोदे व्यक्ति का काम समझा जाता है। सौभाग्यशाली और सुजान व्यक्ति वे माने जाते हैं जो बगैर कुछ किए आनंद से रह सकते हों और मालामाल बन सकते हों। ऐसे समाज में उत्पादनशीलता घटती है और अंधाधुंध उपभोग के कारण उत्पादक कार्यों के लिए पूंजी जुटाना कठिन होता है। उत्पादन विमुख लोग जब सामंती समाज में नग्न ढंग से शोषण करते हैं तब उसे समझना और उससे निपटना आसान होता है, लेकिन अधकचरी आधुनिकता वाले विकासशील देशों में यह शोषण दबे-ढंके ढंग से होता है। ऐसे समाज में उत्पादन विमुख शोषणरत व्यक्ति ऐसा जता पाते हैं, मानो वे देश की आर्थिक और सामाजिक उन्नति के लिए दिन-रात काम कर रहे हों। भारत में आज इसी तरह का अधकचरा आधुनिक परजीवी समाज है। इसीलिए आज यहां उत्पादक और उपभोक्ता से ज्यादा अहमियत बिचौलिए की हो चली है। पैसा इस हाथ से उस हाथ घूम रहा है, लेकिन उत्पादन नहीं बढ़ा रहा है। इस तरह के पैसे वाले लोगों को पूंजीपति या उद्योगपति की संज्ञा देना ठीक नहीं है। इन्हें अधकचरा पंूजीपति कहा जा सकता है।

अभाव की अर्थव्यवस्था में ये दलाली, सट्टा व सरकारी संरक्षण से पैसा बना रहे हैं। इस तरह बनाया जाने वाला पैसा अक्सर काला धन होता है। इसका उत्पादक कार्यों में प्रयोग संभव नहीं होता है। इसलिए यह घूसखोरी, ऐय्याशी और अन्य अनुत्पादक आर्थिक कार्यों पर खर्च होता है। ऐसी व्यवस्था के अंतर्गत औद्योगिक सूझबूझ वाले व्यक्तियों, आविष्कारकों, टेक्नोलोजी की प्रतिभा रखने वाले व्यक्तियों व अन्य बुद्धिजीवियों यथा साहित्यकारों, कलाकारों की भूमिका नगण्य होती जाती है। इस अधकचरे उच्चवर्ग के साथ-साथ एक अर्धकचरे सर्वहारा वर्ग का विकास भी होता है। देहात और अपने पुश्तैनी धंधों से विस्थापित होकर यह वर्ग शहरों में घूमता रहता है और हेराफेरी के वातावरण के कारण किसी वास्तविक उत्पादक कार्य में लग नहीं पाता। गुंडागर्दी, चोरी और तस्करी आदि अवैध धंधों में पनपता है, यानी यह भी परजीवी होता है। एक और परजीवी वर्ग दफ्तरशाही का है, जो दिन-दूनी बढ़ती जा रही है, भले ही उसकी कोई आवश्यकता न हो। कमोबेश भारत में यही सब हुआ है व हो रहा है। हमारी शिक्षा-पद्धति लोगों को इसी तरह के धंधों के लिए तैयार कर रही है।

-(शेष भाग निचले कॉलम में)

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल

मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -४1

विमर्श के बिंदु

1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

उदारीकरण-निजीकरण का फैलता मायाजाल

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)

लिहाजा दफ्तरशाही का विकास बराबर हो रहा है। दफ्तरशाही में लगे हुए लोग एक अधकचरे मध्यमवर्ग के लोग कहे जा सकते हैं। देश के लिए ये कोई ठोस काम नहीं कर रहे हैं और जीवनयापन के लिए इन्हें ऊपरी आमदनी आवश्यक प्रतीत होती है। शिक्षित बेरोजगारों का वर्ग भी बहुत बड़ा है और इसमें कभी-कभी उग्र तथा हिंसक क्रांतिकारिता के विस्फोट भी होते रहते हैं। अधकचरी आधुनिकता हमारी पुरानी सामाजिक व्यवस्था को बहुत तेजी से तोड़ रही है, लेकिन कोई नया समाज बना सकने के मामले में यह निहायत सुस्त है। इससे अनुशासनहीनता और मूल्यहीनता समाज में चारों ओर फैल रही है। पिछले दो दशकों से पूरी दुनिया में उथल-पुथल मची हुई है और महत्वपूर्ण बदलाव हो रहे हैं। हम भी इस उथल-पुथल से प्रभावित हो रहे हैं। इस दौरान कुछ आकर्षक, लुभावने, मनमोहक शब्दों का खूब प्रयोग हो रहा है। भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, मुक्त व्यापार, विश्व व्यापार संगठन, विश्वग्राम आदि सुंदर शब्दों की ओर लोगों का ध्यानाकर्षण हुआ है। इनके बहाने लोगों को खूब भरमाया गया, दिग्भ्रमित किया गया। झूठे दावे पेश किए गए। जब तक लोग इनकी असलियत का पता करने में सक्षम होते, तब तक इनका मायाजाल फैल चुका था। ‘भूमंडलीकरण’ को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना की पुनप्र्रस्तुति कह कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपना-अपना स्वार्थ हासिल कर लिया।

बताया गया कि पूरी दुनिया में लोगों का खान-पान एक जैसा होगा, पहनावा-ओढऩा भी एक सा होगा। बोली-बानी में भी कोई अंतर नहीं होगा। प्राचीन काल में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की संकल्पना को भूमंडलीकरण ही सामने उज्जीवित कर सकता है, ऐसा भी कहा गया। लेकिन, वास्तव में कुछ भी फलीभूत न हुआ। जो कुछ भी हुआ, उससे पूंजी फली, फूली। कंपनियों का ‘टर्नओवर’ बढ़ता गया और तीसरी दुनिया के लोग पहले की तुलना में अधिक गरीब होते गए। आज पूरा विश्व बाजार में तब्दील हो चुका है। इस बाजार में अनवरत तमाशा चलता रहता है-पूंजी का। लेकिन सवाल यह है कि बाजार कब न था? सभ्यता के विकास के साथ-साथ बाजार का प्रचलन हुआ। वह स्थान जहां तरह-तरह की चीजों की दुकानें हुआ करती थीं, उसे बाजार कहा गया। लेकिन इसके पहले भी हमारे यहां हाट लगती थी। ध्यातव्य है कि हाट-बाजार में केवल चीजों की खरीद-फरोख्त ही नहीं होती थी बल्कि ये स्थल सूचना-केंद्र के रूप में भी अपनी भूमिका निभाते थे। यहां भावों का आदान-प्रदान होता था। मानव-बंधन को बढ़ावा मिलता था। सप्ताहांत में लगने वाली हाटों में सम्पर्क धीरे-धीरे संबंध में तब्दील हो जाया करता था। जबकि आज के उपभोक्तावादी समय में संबंधों के सूत्र संपर्क तक नहीं रह गए हैं। बाजार तब भी थे और आज भी हंै। लेकिन तब के और अब के बाजार में कितना अंतर आ गया है? आज के दौर में बाजार ने अपनी स्थानीयता खोकर वैश्विक रूप पा लिया है। बिजली, सडक़, शिक्षा आदि से वंचित गांवों में भी ‘ग्लोबल मार्केट’ की वस्तु बेची जा रही है। पूरी दुनिया को बाजार में तब्दील करने की संकल्पना बाजारवाद कहलाती है। बाजारवादी अर्थव्यवस्था में केवल एक ही मूल्य होता है, वस्तु का मूल्य। वस्तु की कीमत सर्वोपरि हो जाती है।

यह अलग बात है कि बाजारवाद ने मनुष्य को, मानवीय संवेदनाओं तक को वस्तु के सांचे में ढाल लिया है। अक्सर यह देखा जाता है कि मनुष्य भी वस्तु के सामने ठिगना व बौना साबित हो जाता है। बाजार के लिए सब कुछ प्रोडक्ट है। चाहे मनुष्य हो या उसकी भाषा, संस्कृति हो या मानवीय संबंध, सभी प्रोडक्ट हैं। इनकी महत्ता आंकी जाती है बाजार को मिलने वाले मुनाफे के आधार पर। वस्तु मुख्य हो जाती है और मनुष्य गौण। बाजारवाद में जिस मूल्य को बढ़ाया जाता है, वह है गुड्स की वेल्यू। मानव मूल्य से उसका कोई रिश्ता नहीं है। हम इस बाजार के सामने अपने घुटने टेक देते हैं। संचालन का सूत्र थमा देते हैं। नियंत्रण की डोर उसे पकड़ा देते हैं। उससे कहां दो-चार हो पाते हैं ? यह अत्यंत चिंता का विषय है, बाजार तो चाहेगा कि विचार न हों, उनका अंत हो जाए। परंतु इससे व्यथित होते हैं रचनाकार। बाजार और उपभोक्तावाद के दौर में हिमाचल के लेखक क्या सोच रहे हैं, खास करके बाजार की सख्त गिरफ्त के बारे में तथा ‘यूज एंड थ्रो’ वाली मानसिकता के विषय में, इस पर चर्चा अपेक्षित है। समकालीन कविता अन्याय और अत्याचार, विडम्बनाओं के विरोध में खड़ी होकर ललकारने वाली कविता है।

आम आदमी की पक्षधर है समकालीन कविता। यह उपेक्षितों और शोषितों के साथ खड़ी है। बाजार की चाल हो या पूंजी का शोषण, सत्ता की क्रूरता हो या धर्म के नाम पर फैलाई जा रही सांप्रदायिकता, रचनाकारों ने इनका विरोध किया ही है, पाठकों को भी सचेत किया है। बाजार आज की दुनिया का यथार्थ है। यह सच है कि उससे आंखें नहीं बचा सकते। कभी दुनिया में बाजार हुआ करते थे। अब बाजार में दुनिया है। बाजार जो कभी खुली जगहों के लिए भी प्रयुक्त होता था, आज मॉलों में आ गया है। यहां न धूप है, न धूल। यहां सेंट्रल ए.सी. चालू है। विदेशी सामान या देशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सामग्री भरपूर है। देशी सामान के लिए इन बाजारों में कोई स्थान नहीं है। आम आदमी के लिए इन मॉल की कोई उपयोगिता नहीं। हिमाचल के वरिष्ठ कवि यादवेन्द्र शर्मा अपनी एक कविता इसी बात को कुछ इस तरह बयान करते हैं- ‘सारा विश्व अब एक है/क्या हुआ यदि हमारी तरह/ कई और देशों के निवासी/ रोटी के फेर में जिंदगियां गंवा देते हैं/ जबकि कुछ लोग खा खा कर तंग हो जाते हैं/कुछ लोग लूटने आते हैं/ कुछ लोग लूट लिए जाते हैं।’ अपने दूसरे काव्य संग्रह ‘सबसे सुंदर लड़कियां’ में लिखे अपने आत्मकथ्य में कवि ने लिखा है- ‘मैंने अपने समय को जैसे समझा और जीया है, ये कविताएं उसकी अभिव्यक्ति हैं।’

इसी पुस्तक की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर व प्रसिद्ध समालोचक डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं- ‘यादवेन्द्र शर्मा की कविताएं छोटे-मोटे सपनों को एक महान सपने की बुनावट में बदल देने की आकांक्षा की कविताएं हैं…कवि के व्यक्तित्व में गहरे सरोकार हैं, राजनीति के भी, समाज के भी और मनुष्य के अस्तित्व मात्र के।’ इस समय के हिमाचल के सर्वाधिक चर्चित कवि हैं सुरेश सेन निशांत। निरंतर साहित्य साधना विशेषकर कविता के क्षेत्र में सृजनशील यह कवि अपने समय की तमाम उन चुनौनियों पर पैनी नजर रखे हुए है जिन चुनौतियों व स्थितियों का वर्णन इस आलेख में किया हुआ है। निशांत की कविताओं का फलक विस्तृत है। जनवादी पक्षधरता के इस कवि ने अपनी कविताओं में वैश्विक चिंताओं को अपनी माटी से, अपने मानुष से जिस सहज ढंग से जोड़ा है, वैसा शायद ही इस समय का कोई दूसरा हिमाचली कवि जोड़ पा रहा हो।

-डा. विजय विशाल -(शेष अगले अंक में)

शिद्दत से बुना गया काव्य संग्रह ‘स्वैटर’

काव्य संग्रह : स्वैटर
लेखिका : सरिता सरीन मलिक
प्रकाशक : सप्तऋषि पब्लिकेशन, चंडीगढ़
मूल्य : 190 रुपए

मन की कविता तन पर ओढ़े और अपने कदमों की शिनाख्त में, सारे जहां का परिचय कराती सरिता सरीन मलिक अपनी काव्य यात्रा का कारवां बना रही हैं। हमीरपुर से ताल्लुक रखने वाली सरिता आजकल चंडीगढ़ में रहती हैं। मीडिया, रेडियो, थियेटर व मंच संचालन की विधाओं में पारंगत उनकी 92 कविताओं से सुसज्जित काव्य संग्रह ‘स्वैटर’, दरअसल जिंदगी के हर एहसास को पुख्ता कर देता है। ‘उसके’ केंद्र में कविताओं के दायरे लंबे हो रहे हैं, जहां ‘तेरे’ से ‘मेरे’ प्रश्न घने और अभिभूत करते हैं, ‘मन के समुद्र का/उम्र के एक लंबे अरसे तक/तेरे इश्क ने मंथन किया/तन का बर्तन/झेलता रहा प्रहार।’

जैसे किसी सागर किनारे कवयित्री ने उन लहरों को पकड़ा हो जो कहीं भीतर तक उठ रही हैं, ‘मेरे अश्कों की हर बूंद में- तुम्हारी याद की अभिव्यक्ति थी, मेरे बढ़ते हर कदम के पीछे-एक तुम ही मंजिल थे।’ स्पर्श करती कविताएं पाठक के अंतर्मन को छू जाती हैं और कहीं कोयल बनकर तरन्नुम जोड़ जाती हैं। कविताओं में चिन्हित प्रेम, मन के भाव, सुकून, करुणा, $गम, मौन, उम्मीद और विश्वास बार-बार लौट आता है। सूरज को चुनौती देते अल्फा•ा, ‘सुबह सांझ तेरी घटती आंच, मेरा गम तो हर दम तीखा है’, सुबह की उम्मीद में, ‘खुदा के साए की तरह, तुम्हारी हर सुबह’, या सत्य की सजा काटते-काटते, ‘इस व्यवस्था का कर्कट फेंकते- और सिलवटें निकालते हुए, मेरे माथे पर गहरा गई है- इक शिकन की रेखा’, सरिता की कविताओं को हर मोड़ पर मुस्तैदी से खड़ा पाएंगे। लेखिका की अभिव्यक्ति में शृंगार रस का प्रादुर्भाव, ‘मेरा मन तेरा ही तो घर है/ख्वाब बिछे हैं जहां- कालीन की तरह/दीवारों पर कितने ही सपने-तस्वीरों की तरह टंगे हैं’, यूं ही बह निकलता है, इसलिए हर कविता के भीतर एक प्रतिस्पर्धा और खरा साबित होने का मूल्यांकन कहीं खामोशी से पाठक को उसके होने का बोध कराता है। ‘स्वैटर’ काव्य संग्रह को बुनते-बुनते कवयित्री अपनी पहचान जाहिर कर रही हैं, इसलिए कुछ बेहतरीन कविताएं जैसे स्वीकारोक्ति, आस का बंधन, शिकायत किससे, समर, खाई, मैं यहीं हूं, कैलेंडर, दर्पण, नियति, हल तथा बीज बनकर रोपित हो रही हैं। कविताएं अपने कथ्य की पूर्णता के प्रवाह में विचारों के कई बिंदु पैदा कर रही हैं, तो चुपके से कहीं परिवेश से ही पंक्तियां चुरा लेती हैं, ‘न जाने कैसा बादल, दिल के आसमां पे छाया- बहुत दिन से मेरे आंगन में सूरज नहीं आया।’

सरिता सरीन मलिक अपनी कविताओं को कहीं नारी मन से मांज रही हैं, तो कहीं अपने व्यक्तित्व की ठेठ स्वतंत्रता से मौलिक अवतार बना रही हैं। इसीलिए विचारों की भट्ठी से बार-बार लावा निकल रहा है, ‘क्यों रहते हो तुम/अपनी ही आंच में/निरंतर झुलसते/लावा कभी आंखों से बहाते हो/कभी ज्वालामुखी/जुबान से सुलगाते हो।’ सरिता अपनी कविताओं में जीवन के कई व्याकरण खोजती हुईं उन बंद दरवाजों पर दस्तक देती हैं, जो मानव जीवन के एहसास के अबूझ पक्ष को हमेशा नए आयाम के सामने रख देते हैं, ‘बचपन में एक सिलवट/पिता के माथे पर देखी/मेरी उम्र ही सहम गई/और मेरा अस्तित्व/स्वतंत्र रूप में/खिल ही न सका।’ सरिता अपनी शैली को ही अपना संबोधन बना रही हैं और जहां अर्थ के भेद, भावनाओं के संवेग, दिल की पुकार और खुद के भीतर की कलह बाहर आ रही है। कवयित्री सामाजिक कवच के बाहर मात्र स्त्री होकर नहीं सोच रही, बल्कि जीवन के यथार्थ में मानव की गति-प्रगति के बीच सिमटते वजूद और रिश्तों की कशमकश से बहती आहों को प्रश्रय दे रही हंै, ‘सीने में धंसे/दुख के खंजर के साथ जीना/और बहती खुशियों के कतरों को- नजरअंदाज करना/मेरी आदत नहीं- मजबूरी है।’

-निर्मल असो

पुस्तक समीक्षा

समाज को आईना दिखाती कहानियां

हिमाचल के कहानीकार शेर सिंह का नया कहानी संग्रह ‘घास का मैदान’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की कहानियां समाज को आईना दिखाती हैं। भावना प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित इस कहानी संग्रह की कीमत 450 रुपए है। अंधेरी सुरंग, अटूट बंधन, बहुरंगी दुनिया, हारू, इति सिद्धम, का-पुरुष, कठिन राह के यात्री, लैंड शार्क, लत, मानवीयता, परंपराएं, समय का फेर, शरीफ चोर, सिस्टम के पुर्जे, त्रासदी, वसुधैव कुटुंबकम, युक्ति और मुक्ति, घास का मैदान व लाठी जैसी कहानियों को 144 पृष्ठों में समेटा गया है। कथाकार डा. रजनी गुप्त कहते हैं कि समाज की मुख्यधारा में मध्यमवर्गीय एवं निम्न मध्यमवर्गीय जीवन की कई परतों को निधडक़ता से खोलते हुए, कहानीकार शेर सिंह आम जन के संघर्ष और यातनाओं के कई बिम्बों को कहानी में बुनते हैं और फिर किरदारों की जीवटता के कई प्रसंग इन कहानियों में जान डाल देते हैं।

हारू, समय का फेर और का-पुुरुष जैसी कहानियां इस बात का प्रमाण हैं कि असहाय अवस्था में जीने को मजबूर पात्रों की मनोदशा को उकेरना कहानीकार को बखूबी आता है। दूसरी ओर शेर सिंह ‘अपनी बात’ में कहते हैं कि इस संग्रह में प्रस्तुत कहानियां सेवानिवृत्ति के पश्चात लखनऊ से आकर, कुल्लू में स्थायी प्रवास के प्रथम पांच वर्षों के दौरान लिखी गई हैं। ये कहानियां देश की विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। वहां से इन कहानियों को एकत्र कर पुस्तक रूप में संग्रहित किया है। ये केवल कहानियां ही नहीं, जीवन के विविध आयामों के आईने हैं। हृदय से निकलते भावों की अभिव्यक्तियां हैं। इन कहानियों में प्रसन्नता है, उदासी है, अवसाद है, कष्ट है, आंतरिक संवेदनाएं हैं, और हैं जीवन की अनुभूतियां। लेखक की इन बातों को पाठक कहानियों को पढक़र कसौटी पर कस सकते हैं। आशा है पाठकों को यह कहानी संग्रह पसंद आएगा।

-फीचर डेस्क


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