शब्दों का शिल्पी : मोहन राकेश

By: Dec 11th, 2022 12:08 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -42

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

सुदर्शन वशिष्ठ, मो.-94148095595

यह जरूरी नहीं कि लेखक अपने ही अंचल पर, अपने ही दायरे के भीतर लिखे। पहाड़ का लेखक ही पहाड़ पर लिखे, यह भी जरूरी नहीं। बहुत बार जब बाहरी व्यक्ति ने यहां आकर पहाड़ पर लिखा, वह बहुत ही मार्मिक बन पड़ा। परिवेश या लोगों के प्रति मोह न होने पर वह कई मामलों में बहुत धारदार हो जाता है। बाहरी व्यक्ति की दृष्टि बहुत भेदने वाली और कुरेदने वाली होती है। वह जटिल व्यवस्थाओं को उधेड़ कर रख देता है। अत: पहाड़ पर लिखने वाले को यहां का च्बोनाफाईडज् होना जरूरी नहीं। पहाड़ के प्रति जवाबदेही उन लेखकों की भी है जो कुछ ही समय यहां रहे। हिमाचली परिवेश पर शिद्दत से लिखने वाले हिमाचल के बाहर के कुछ ऐसे रचनाकर्मी हैं जो न यहां के मूल वासी थे और न ही इस भूमि से उनका दूर-दूर का कोई नाता रहा। उनके पूर्वजों की कोई पैतृक ज़मीन यहां नहीं है। इनकी इस भूमि के प्रति कोई जवाबदेही भी नहीं थी। फिर भी उन्होंने लिखा। ऐसे रचनाकर्मियों में उपेंद्रनाथ अश्क, मोहन रोकश और निर्मल वर्मा प्रमुख हैं। इनकी कई कहानियां और उपन्यास सीधे यहां की पृष्ठभूमि पर हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार उपेंद्रनाथ अश्क हिमाचल के शिमला, धर्मशाला और डलहौजी में रहे और रचनाकर्म किया। डलहौजी में वे उपन्यास लिखने आए, किंतु कविताएं लिखते गए। च्च्बकरोटे की उस ढलान परज्ज् कविता डलहौजी में लिखी हुई है। इसी प्रकार शिमला के सीपी मेले में भाग लेकर उन्होंने च्च्एक रात का नरकज्ज् उपन्यास लिखा।

जब पहले धर्मशाला आए थे तो कचहरी के नीचे एक सराय में रहे। उस सराय का पुराना सा भवन अब भी विद्यमान है। दूसरी और अंतिम बार वे लेखक गृह धर्मशाला में एक मास से ऊपर रहे। यहां रह कर च्च्धौलाधार की छांव मेंज्ज् उपन्यास लिखा तो किताब घर से प्रकाशित हुआ। निर्मल वर्मा की च्च्लाल टीन का छतज्ज् और दूसरी कहानियों को कौन नहीं जानता! जब कोई व्यक्ति प्रसिद्ध हो जाता है तो सभी उस पर हमवतनी होने का दावा करते हैं। इसी कारण मोहवश पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और यशपाल को हिमाचली कहने में हम गर्व महसूस करते हैं, हालांकि उनकी कर्मभूमि हिमाचल से बाहर रही। रचनाकर्म पर बात करें तो गुलेरी की पहली दो कहानियों में हिमाचल नहीं के बराबर है। तीसरी प्रसिद्ध कहानी च्च्उसने कहा थाज्ज् भी अमृतसर की गलियों से प्रारंभ होकर विशाल कैनवास लिए हुए है। इसमें कांगड़ी के कुछ शब्दों व वाक्यांशों का प्रयोग मिलता है। इन दोनों साहित्यकारों ने साहित्य की बुलंदियों को छू लिया, अत: उन्हें हम अपना कहने का मोह करते हैं। बात यहां मोहन रोकश की है। मोहन राकेश ने पर्वतीय परिवेश पर बहुत लिखा। और ऐसा लिखा कि अभी कोई कथाकार वैसा नहीं लिख पाया। इनकी रचनाओं में शिमला या कुल्लू मात्र एक सैरगाह, बीमारों के लिए स्वास्थ्यवर्धक स्थान या प्रकृति प्रेमियों के लिए मोहक स्थान नहीं है। इनकी रचनाओं में पहाड़ पर दो-चार दिन घूमने का अद्भुत रोमांच भी नहीं है।

इनके मौसमों में आदमी के संघर्ष और उसकी घनीभूत पीड़ा है। मिस पॉल में पुल के दो रस्सों से गोलाई में घूमने का चित्र हो या चौगान के धातु के पुतले अंग्रेज का चित्रण; सभी कहानियों में एक गहरी संवेदना झलकती है। शब्दों के सधे हुए शिल्पी मोहन राकेश की कहानियां महीन और कोमल वातावरण से छन कर छत से लटकती बर्फ की तलवारों के बीच सर्दियों की कमजोर धूप की तरह धीरे-धीरे मन पर छाती हुई चोट करती हैं जहां घास काटने वाली औरत अपनी विवशता का जिक्र करती है। लेखन के शुरुआती दिनों में मोहन राकेश मेरे आदर्श कथाकार बने, हालांकि कभी उनसे मिलना नहीं हो पाया। यह एक सुखद संयोग ही कहा जाएगा, मैं मैट्रिक के बाद शिमला के उसी स्कूल में पहुंच गया जहां मोहन राकेश पढ़ाते थे। इस स्कूल में मेरे पिता लगभग पच्चीस साल हिंदी अध्यापक रहे। बीए में च्च्आषाढ़ का एक दिनज्ज् कोर्स में था जो मुझे पूरा याद हो गया। बाद में उनके दूसरे नाटक, उपन्यास और पूरी कहानियां पढ़ डालीं। मोहन राकेश ने जिस च्च्वीज्ज् के आकार की पहाड़ी का जिक्र अपने उपन्यासों में किया है वह हमारे घर के साथ ग्राउंड से साक्षात दिखती थी। ग्राउंड के अंतिम किनारे एक लोहे की बैंच लगी हुई थी जिस पर शाम को अध्यापक बैठ कर सामने के दृश्य का आनंद लेते थे। इस बैंच के ठीक सामने तारादेवी मंदिर के इस ओर यह च्च्वीज्ज् के आकार की पहाड़ी दिखती थी। संयोग आगे भी हुआ कि यह पहाड़ी अब भी मेरे वर्तमान घर के ठीक सामने है और मैं बिस्तर पर लेटे हुए भी इसे देख पाता हूं। च्च्न आने वाला कलज्ज् उपन्यास बिशप कॉटन स्कूल पर लिखा गया। उपन्यास में स्कूल की कॉपियां जांचते हुए छत्तों से लटकती बर्फ की तलवारें, स्कूल के आसपास घास काटती ग्राम्य औरतें एक अद्भुत वातावरण तैयार करती हैं। एक कहानी च्च्छोटी सी चीज़ज्ज् में स्कूल के छोटे बच्चे का चित्रण है जिसे अंग्रेजी में च्ए लिटल थिंगज् कहते हैं। स्कूल में उस समय मोहन राकेश को जानने वाला कोई न था। हां, एक अध्यापिका मिसेज टूली ने बताया: च्च्कौण! मोहण राकेश! आहो, उत्थे रैंहदा सी स्कूल तौं बार।ज्ज् मोहन राकेश वर्तमान पुलिस हैडक्वार्टर बिल्डिंग के नीचे नाले से इधर स्कूल को जाती सडक़ के साथ वाली बिल्डिंग में रहते थे।

मोहन राकेश के उपन्यास बिशप कॉटन स्कूल पर हैं, कहानियां इस स्कूल के अलावा कुल्लू, करसोग आदि स्थानों पर हैं। च्च्चौगानज्ज्, च्च्मिस पालज्ज्, च्च्मंदीज्ज् आदि कहानियों में कुल्लू का वह गहन और सूक्ष्म वर्णन है जो इस प्रदेश का कोई कथाकार उकेर नहीं पाया। मैंने खुद उनका अनुसरण करने की कोशिश की, मगर कर नहीं पाया। हालांकि मैं यहीं का वासी हूं। च्च्चौगानज्ज् की उपस्थिति से आशंकित और आतंकित वातावरण में च्इन्सान न होकर किसी कीमती धातु के बुतज् से लगने वाले साहब की त्रासदी उसके माथे की नसों पर चोट करती उस ठक ठक आवाज़ में है जो कांशीराम कॉफी लाते हुए लकड़ी के फर्श पर करता है या संतो लाख सिखाने पर भी कमीज़ से आंखें पोंछने से नहीं हटती या नंगे पैर दौड़ती है। चितकबरी चांदनी, सेब अनार और नाशपाती की मिलीजुली गंध, व्यास की गडग़ड़ाहट के बीच चौगान के मेले में लोंगों का लुगड़ी पीना और नाचना और उस सबसे ऊपर अल्हड़ संतों का बार-बार चौगान में जाना, एक युवक का शराब के नशे में उसे अपनी ओर खींचना, कुछ ऐसे दृश्य हैं जो साहब को परेशान कर देते हैं और वह चिल्लाता है : च्च्ओह! कुतियाएं! ओह! कुतियाएंज्ज्! साहब के मरने पर संतों का कमीज़ से आंखें पोंछ कब्र पर बांहें फैलाना हृदयग्राही है। च्च्मिस पालज्ज् में रस्सियों के पुल पर वे झूलते हुए रस्से, मिस पाल की विवशता एक अद्भुत वातावरण तैयार करती है और च्च्मंदीज्ज् कहानी के तो कहने ही क्या! टूरिस्टों के जाने पर छोटे दुकानदारों में फैलती मंदी का ऐसा चित्रण आज तक कोई नहीं कर पाया। मानवीय संवेदनाओं को प्राकृतिक प्रतीकों से जिस तरह राकेश ने जोड़ा है, वह अद्वितीय है। पहाड़ पर लिखी इनकी रचनाओं पर लंबी बात की जा सकती है, लेकिन पन्ने की सीमाओं को देखते हुए फिलहाल इतना ही, कि मोहन राकेश हिमाचलियों के बीच लोकप्रिय लेखक हैं।

सामाजिक चिंतन और हिमाचली लेखन

डा. विजय विशाल
मो.-9418123571

इनके पहले काव्य संग्रह च्वे जो लकड़हारे नहीं हैंज् में शामिल कविताओं पर टिप्पणी करते हुए प्रख्यात कवि विजेन्द्र लिखते हैं- च्लोक या सर्वहारा ही निशांत की कविता के केन्द्र में है। उनकी कविता के चरित्र, परिवेश और खुरदरे भू-दृश्य बताते हैं कि कथ्य को कहीं भागना दौडऩा नहीं है…उनकी कविता में स्फूर्ति है। मर्म पर सीधे असर करती है। यहां पहाड़ी इलाके के सुंदर भू-दृश्य हैं। वहां के संघर्षशील सामान्य जन। वहां की प्रकृति। जीवन के विविध उतार-चढ़ाव, रूप-रंग। इससे लगता है कि कोई भी कविता-अच्छी और अर्थवान कविता-अपने आस-पास के जन-जमीन जाति से जुड़ी होकर भी वैश्विक होती है।ज् निशांत अपनी एक कविता भू-पाणी में जल की वैश्विक समस्या को स्थानीय लोक मान्यताओं से जोड़ कर जल माफिया पर भी प्रश्न उठाते नजर आते हैं- च्देवता ! हमें धरती का/जल चाहिए/ अपना तन धोने के लिए नहीं/ वह तो भीगा-भीगा रहता है/ हर वक्त पसीने से।

श्रम से नहाई-नहाई सी/ रहती है हमारी देह/ आंखें भी रहती हैं नम/ आंसुओं से/ आक्रोश से भीगी रहती है/ हमारी दबी जुबां।…..देवता ! पता नहीं कौन? पी गया हमारे हिस्से का जल/तड़प रहे हैं पेड़ प्यासे से….।ज् मुक्त बाजार व्यवस्था में निम्न वर्ग, मेहनतकश मजदूरों के श्रम और शरीर का खूब शोषण होता है। उन्हें खोखला बना कर ही छोड़ा जाता है। च्वे दस जनज्, च्वे जो लकड़हारे नहीं हैंज् आदि इस संग्रह की कविताएं यही सब कहती हैं। बहुत ही सहज, सरल व संप्रेषणीय लहजे में। हिमाचली में ऐसे कवियों की एक लम्बी सूची है जिनकी कविताओं में सामाजिक चिंताओं को भावाभिव्यक्ति मिलती रही है या मिल रही है। इनमें कई वरिष्ठ कवि हैं तो कई नव आगंतुक भी हैं। श्रीनिवास श्रीकांत, दीनू कश्यप, सुंदर लोहिया, योगेश्वर शर्मा, प्रत्यूष गुलेरी, सरोज परमार, रेखा वशिष्ठ, रूपेश्वरी शर्मा आदि वरिष्ठ कवि यहां हैं तो द्विजेन्द्र द्विज, आत्माराम रंजन, नवनीत शर्मा, अजेय कुमार, प्रदीप सैनी, मोहन साहिल, गनेश गनी, पान सिंह, सत्यनारायण स्नेही, दिनेश शर्मा, पवन चौहान, मनोज चौहान, अतुल अंशुमाली, राजीव त्रिगर्ती, जैसे अनेकों युवा कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक चिंताओं की इन चुनौतियों से जूझ रहे हैं।

हिमाचल की समकालीन हिंदी कविता का विश्लेषण करें तो इतना कहा जा सकता है कि यह कविता समाज के सांस्कृतिक विकास के मार्ग पर रोड़ा डालने वाली ताकतों के विरुद्ध संघर्षरत है। यह चालाक चुप्पी नहीं साधे रहती। मात्र शब्द उत्पन्न करने वाली मशीन नहीं है यह कविता। यह कविता हमारे समय के संकट से पहचान करवाती है। कविता की तरह हिमाचल की हिंदी कहानी में भी बाजार और उपभोक्तावादी समाज की नियति की चिंता है। उपभोक्तावादी समय के असली चेहरे को बेनकाब करने तथा बाजार और उपभोक्तावादी संस्कृति की चालाकी को उद्घाटित करने का प्रयास भी दिखाई पड़ता है। बाजार और उपभोक्तावाद के प्रभाव नगरों, महानगरों या कस्बों तक ही सीमित नहीं हंै। पिछले दो दशकों की उथल-पुथल से दूरदराज के गांव तक प्रभावित हुए हैं। गांव तेजी से बदल रहे हैं।

भूमंडलीकरण का बाजार गांव तक पहुंच चुका है। कहने वाले कहते हैं कि यह विकास का संकेत है। लेकिन बाजार की मूल्यहीनता जब गांव को घेरे रखती है, तब उसे कैसे विकास का नाम दिया जा सकता है? गांव जो प्रेमचंद के साहित्य में थे, आज वैसे न रह गए। प्रेमचंद का गोबर शहर से गांव वापस गया था, परंतु आज के गोबर शहरों की ओर केवल भाग नहीं रहे हैं, बल्कि शहरी बाबू बनने का सपना पालकर जीवन गुजार रहे हैं। हिमाचली कहानीकारों ने मानवीय संबंधों में पसरे बाजारवादी ताकतों, भोगवादी तत्वों और उपभोक्तावादी प्रवृतियों के चित्रों को रूपायित किया है। वरिष्ठ कथाकारों में सुंदर लोहिया, योगेश्वर शर्मा, केशव, रेखा, सुशील कुमार फुल्ल, बद्री सिंह भाटिया, सुदर्शन वशिष्ठ, राजेंद्र राजन, गंगाराम राजी, त्रिलोक मेहरा, तारा नेगी, चंद्ररेखा ढडवाल जैसे अनेक कथाकार हैं तो समकालीन कहानीकारों में एस.आर. हरनोट, मुरारी शर्मा, हंसराज भारती, मनोज कुमार शिव, देवकन्या ठाकुर, सुरेश शांडिल्य, संदीप शर्मा जैसे कहानीकार भी हैं जो अपनी रचनाओं में इन वैश्विक समस्याओं को बड़ी प्रमुखता से उठा रहे हैं।

कविता, कहानी के अतिरिक्त साहित्य की अन्य विधाओं में भी हिमाचल में विचारशील लेखन सामाजिक चिंताओं को केन्द्र में रख कर रचा जा रहा है। बेशक हिमाचली लेखन का एक हिस्सा ऐसे लेखन व लेखकों से भी भरा पड़ा है जहां न कोई चिंता है और न कोई समस्या। उस लेखन व उन लेखकों का न कोई दृष्टिकोण है और न कोई विचार। विचारहीन ये लेखक अपने लिखे पर आत्ममुग्ध हैं। खुश हैं। संतुष्ट हैं। मगर एक बड़ा हिस्सा उन रचनाकारों का है जो हारती, टूटती, कराहती मानवता से अत्यधिक चिंतित है। जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की छल-छद्म से भरी लीलाओं से परिचित है। उनकी विसंगतियों और विडम्बनाओं तथा झूठे सपनों से परिचित है। इसलिए वे अपनी रचनाओं के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति करते हुए सामाजिक प्रतिबद्धता का परिचय दे रहे हैं। उनकी रचनाओं में बाजार है, लेकिन बाजार के लिए उनकी रचनाएं नहीं हैं।

पुस्तक समीक्षा : शहर दर शहर : लेखक के संघर्ष की दास्तान

च्शहर दर शहरज् में लेखक राजेंद्र राजन ने सन् १९७५ से सन् १९८५ के मध्य के दस वर्षों के कालखंड की जीवन यात्रा के उतार-चढ़ाव, मधु-कटु स्मृतियों, जीवन संघर्ष से संपृक्त असंख्य घटनाओं, चेतन-अवचेतन मन में दमित अनुभूतियों, जीवन की विसंगतियों, पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन से संबद्ध अनेक संदर्भ सन्निहित किए हैं। लेखक ने अपने इस कालखंड के संघर्ष के संबंध में स्पष्ट किया है, च्सन १९७५ से १९८५ के मध्य १० साल का कालखंड अत्यंत कष्टदायक, संघर्ष व तकलीफों से भरा दौर था। लंबे वक्त तक अस्थिरता, अवसाद और विसंगतियों का दौर मुझे हांट करता रहा करीब ५० साल तक। वो व्यग्रता, छटपटाहट, असंतोष और बार-बार स्थितियों-परिस्थितियों से छले जाने की आंतरिक यंत्रणा को मैं झेलता चला गया। सोचा क्यों न उस दौर की संघर्ष गाथा को फिक्शन में ढालकर आत्मकथात्मक उपन्यास का रूप दिया जाए। अब यह सुधी पाठक या आलोचक ही तय करें कि यह उपन्यास है, कथा डायरी या संस्मरण।ज् एक लेखक और आत्मकथाकार के रूप में राजेंद्र राजन की सर्वाधिक विशिष्टता इस बात में निहित है कि वह अपने अंतर्मन की दुर्बलताओं को बिना किसी आवरण के निरावृत करते हैं। इसमें लेखक का तेजस्वी, विद्रोही और आवेगमयी किरदार उभर कर सामने आया है। च्शहर दर शहरज् उनकी वैचारिक सर्जनात्मक विकास यात्रा का क्रमिक लेखा-जोखा है, आत्मकथात्मक उपन्यास का ड्राफ्ट है। काल के प्रवाह में प्रवाहित जीवन संघर्ष के बृहत्तर आयामों को चुनिंदा कलेवर में समेटने की अद्भुत क्षमता इस कृति में विद्यमान है। कहीं भी विश्रृंखलता, अव्यवस्था और असंबद्धता नहीं है।

लेखक राजेंद्र राजन ने अतीत की स्मृतियों के सहारे दस वर्ष के अपने अतीत को तथा उससे भी कुछ पहले के वर्षों को जिस संलग्नता और निर्वैयक्तिकता से रूपायित किया है, उसमें संवेदनशीलता, बौद्धिकता के सहारे निजी जीवन और साथ में आए किरदारों से संबद्ध घटनाओं का जो ताना-बाना बुना है, वह अपने में सांद्र, प्रखर और मानवीय है। अपनी मूल संवेदना में यह आत्मकथात्मक संस्मरणात्मक औपन्यासिक कृति जीवन के कटु-मधुर अनुभव, जीवन संघर्ष, सृजनशीलता के संकट, आजीविका और कैरियर बनाने का संघर्ष, निजी जीवन के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष जिस प्रामाणिकता के साथ विभिन्न घटनाओं का सूत्रों के साथ परत दर परत अनावृत हुए हैं, वे राजेंद्र राजन की संवेदना की गहराई, भाषा कौशल, चमत्कार और कथा कहने युक्तियों को गहराई से सामने लाती है। च्शहर दर शहरज् लेखक राजेंद्र राजन की सतत बेचैनी से ज्यादा संघर्षपूर्ण सृजन की जि़द का अलाप भी है। लेखक की संघर्षशीलता, व्याकुलता, व्यग्रता, संवेदना और जीवन दृष्टि अपने समकालीन लेखकों, कलाकारों, साहित्यिक परिवेश, जीवन की विसंगतियों, विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हुए जीवन के अनुभवों, जिए गए जीवन की एक एक स्मृति के संसार को जिस जीवंतता और प्राणवता से च्शहर दर शहरज् में विन्यस्त किया है, वह जिज्ञासा पूर्ण, कौतूहल वर्धक तो है ही, लेखक की कर्मठता और सक्रियता का बोधक भी है। रोचकता इस कदर कि एक पाठक पूरी रचना पढऩे पर ही दम लेता है। राजेंद्र राजन ने इस पुस्तक में सीधे-सीधे कोई आत्मकथा नहीं लिखी है, फिर भी उनके जीवन के दस वर्षों के कालखंड में उनके जीवन में होने वाले घटनाक्रम को उनके शहर दर शहर भटकते जीवन के संदर्भ में बखूबी जान सकते हैं। यूं लेखक का जीवन और उसकी समाज के प्रति संसिक्ति कथा कृतियों में परोक्ष रूप में कल्पना के आवरण में रूपायित होती है। कविता, कहानी, उपन्यास आदि विधाओं में बहुत से आत्मीय जीवन के अनुभव रूपांतरित होकर आते हैं, जिसे हम फिक्शन का यथार्थ कह सकते हैं। परंतु राजेंद्र राजन ने इस आत्मकथात्मक संस्मरणात्मक कृति में यथार्थ को फिक्शन में रूपांतरित न कर सीधे-सीधे जीवन संघर्ष को भाषा की सुघड़ता और प्रांजलता के साथ चौबीस अध्यायों में क्रमिक रूप में व्यंजित किया है। बीच-बीच में लेखक ने सृजन साधना, सृजन और लेखन की चुनौतियों, सृजन की मनोभूमि और सृजन की प्रक्रिया को लेकर भी अपने जीवन प्रसंगों की अवतारणा करते हुए विवेचित किया है। लेखक सन् १९७५ में चंडीगढ़ के सेक्टर ११ के कॉलेज से स्नातक की उपाधि ग्रहण करने से लेकर सन १९८५ में नाहन में डीपीआरओ के पद पर नियुक्ति तक के दस वर्षों के कालखंड में जिस संघर्ष से गुजरा तथा जिन व्यक्तियों, साहित्य सर्जकों, कला मर्मज्ञों, पत्रकारों, संपादकों के संपर्क में आया, उनसे संबद्ध संस्मरणात्मक घटनाएं इस कृति में क्रमिक रूप में विद्यमान हैं। बीच-बीच में लेखक सृजन साधना, आजीविका के लिए संघर्ष करते हुए कभी टाइपिंग में कैरियर की तलाश करते हैं, तो कभी सेल्समैनी, आढ़ती की मुंशीगिरी, कपड़ा नापने की नौकरी, तो कभी शॉर्टहैंड स्कूल में कैरियर की संभावना देखते हैं। चंडीगढ़, अमृतसर, अंबाला आदि शहरों में भटकते हुए आजीविका के साथ साहित्य सृजन, पत्रकारिता, कला के प्रति प्रेम की छटपटाहट और उसमें भी कुछ करने की महत्त्वाकांक्षा परिलक्षित होती है।
                                                                                                                                               -डा. हेमराज कौशिक

ख्वाहिशों के पंखों पर साहिल की कविताएं

साहित्यकार डा. धर्मपाल साहिल लघु कविता संग्रह च्ख्वाहिशों के पंखों परज् लेकर आए हैं। अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित इस कविता संग्रह की कीमत ३०० रुपए है। कवि इसके बारे में कहते हैं कि च्मुझमें कितना कौनज् (लघु कविता संग्रह) की कविताओं को सुधि पाठकों की मिली स्वीकृति के बाद पुन: च्ख्वाहिशों के पंखों परज् (काव्य संग्रह) के माध्यम से पाठकों के कटघरे में खड़ा होने का हौसला किया है। इस बार अलग-अलग विषयों को चार-चार लघु कविताओं में समेटने का प्रयास किया है। च्ख्वाहिशों के पंखों परज् उड़ान भर कर मन-महल की बाहरी व भीतरी प्रकृति की थाह लेने की कोशिश की है। एक जैसे परिवेश, एक से वातावरण, एक सी दुर्घटनाओं, एक सी पीड़ाओं तथा एक सी अनुभूतियों से गुजरते हुए मन के दरिया में एक से विचारों वाली लहरों का उठना स्वाभाविक है।

इसलिए रचनाओं में विचारों का मेल मात्र संयोग ही समझा जाएगा। साहित्यकार ज्ञानप्रकाश पीयूष कहते हैं कि संग्रह में स्थित समस्त लघु कविताएं भावपूर्ण, सरस, रोचक, ज्ञानवद्र्धक, पठनीय और प्रभावशाली हैं। महाकाव्य, खंडकाव्य या बड़ी कविताओं की अपेक्षा समयाभाव के इस दौर में इन लघु कविताओं को पढऩा ज्यादा सुगम रहेगा। विषय बिंदुओं से सुसज्जित होने के कारण सुधीजन अपनी रुचि की प्राथमिकता के आधार पर भी इन्हें पढक़र इनका रसास्वादन कर सकते हैं। बर्फ नामक कविता में जल का अस्तित्व देखिए : च्जल, वाष्प/बर्फ की/अजब कहानी है/मात्र दृष्टिभ्रम है/वुजूद सभी का/पानी है।ज् इसी तरह चांदनी का योगदान देखिए : च्दिन भर की/मशक्कत के बाद/जब टूटता है बदन/मां की तरह गोद में/ले लेती है/रात को चांदनी।ज् कविता संग्रह की अन्य कविताएं भी विविध विचारों व भावों को लिए हुए हैं। आशा है पाठकों को ये कविताएं पसंद आएंगी।
                                                                                                                                                         -फीचर डेस्क


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