‘अछूत’ से ‘रावण’ तक

By: Dec 2nd, 2022 12:05 am

नए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने प्रधानमंत्री मोदी की तुलना ‘100 मुखी रावण’ से की है और अपने ‘अछूत’ होने की पुरानी पीड़ा बयां की है। यह रावण राजनीतिक है, लिहाजा 100 मुखी है। ये दोनों रूपक और तुलनाएं चुनावी परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक और फिज़ूल हैं। कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करती रही है। अब यह परंपरा पुरानी पड़ चुकी है। 1998 से आज तक तीन कांग्रेस अध्यक्ष हुए हैं और तीनों ने प्रधानमंत्री के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया है। दरअसल नेता के किसी भी प्रारूप में मोदी कांग्रेसी नफरत के प्रतीक रहे हैं। 2002 के गोधरा हत्याकांड और फिर गुजरात में सांप्रदायिक दंगों के बाद मोदी के प्रति उपमाएं घृणित और घनीभूत होती गई हैं। हालांकि सभी जांच आयोगों और अंतत: सर्वोच्च अदालत के स्तर पर भी प्रधानमंत्री मोदी ‘निर्दोष’ और ‘साजि़शहीन’ करार दिए गए हैं। बहरहाल अपशब्दों के इस अध्याय को यहीं छोड़ते हैं, क्योंकि इसका विश्लेषण हम कई बार कर चुके हैं। चूंकि आज 1 दिसंबर को गुजरात में प्रथम चरण का मतदान हो रहा है, लिहाजा कांग्रेस अध्यक्ष खडग़े के ‘दलित होने के दर्द’ का विश्लेषण अहम है। बेशक खडग़े जन्म और जाति से दलित हैं, लेकिन बीते 50 सालों से ज्यादा के राजनीतिक जीवन में वह ‘अछूत’ कभी नहीं रहे।

कर्नाटक विधानसभा के लिए वह 8-9 बार विधायक चुने गए। कर्नाटक सरकार में गृहमंत्री सरीखे बेहद महत्त्वपूर्ण पद को सुशोभित किया। कर्नाटक से ही लोकसभा सांसद चुने गए और सदन में नेता प्रतिपक्ष भी बने। आज भी वह राज्यसभा सांसद हैं और अध्यक्ष चुने जाने के बाद उन्होंने नेता प्रतिपक्ष पद छोडऩे की घोषणा की थी। कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार में मल्लिकार्जुन खडग़े केंद्रीय मंत्री भी रहे। इतने संवैधानिक पदों पर सार्वजनिक जीवन जीते हुए क्या कोई राजनेता अथवा व्यक्ति ‘अछूत’ रह सकता है? दरअसल खडग़े ने गुजरात में एक चुनावी जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था-‘प्रधानमंत्री मोदी खुद को गरीब कहते रहते हैं। अरे, हम तो गरीबों के गरीब, अछूत हैं। मोदी की चाय तो लोग पी लेते थे, लेकिन मेरी तो चाय भी नहीं पीता कोई।’ खडग़े का यह बयान अतिशयोक्ति और हकीकत से बहुत परे है। बेशक दलितों के ‘अछूत’ माने जाने का परिवेश खडग़े ने देखा और झेला होगा। उनका जन्म कर्नाटक की निज़ामशाही के दौरान हुआ। यानी राज्य में मुस्लिम हुकूमत थी। देश भी गुलाम था। उसी कालखंड में उनका घर जला दिया गया था, जिसमें उनकी माता जी की त्रासद मौत हो गई थी। मौजू सवाल यह है कि 80 साल पहले के परिवेश और आज 2022 के बीच कोई तुलना की जा सकती है? क्या आज खडग़े के ‘अछूत’ बयान को स्वीकार किया जा सकता है? क्या देश की आज़ादी के बाद, लोकतंत्र के दरमियान, आरक्षण कानून के लगातार लागू किए जाने और दलितों के लिए विशेष कानून बनने के बाद कोई, किसी को, ‘अछूत’ होने का यथार्थपरक एहसास करा सकता है? कदापि नहीं, क्योंकि अछूत कहना अब कानूनन जुर्म है। उसकी सजा दी जाती है।

बेशक कोई अपवाद हो सकता है। अपराध भी अपवाद ही होते हैं। क्या ऐसा संभव है कि खडग़े के लंबे राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में किसी सवर्ण चेहरे ने जानबूझ कर, उनके साथ चाय पीने से इंकार कर दिया हो? हां, यदि कांग्रेस के भीतर ही ऐसा होता है, तो अब वह अध्यक्ष हैं और इस अछूत परंपरा को हटाने का आदेश दें। इसकी बड़ी संभावना है कि उन्होंने गुजरात चुनाव में ‘दलित कार्ड’ खेलने की राजनीति की हो। दलित, मुसलमान, आदिवासी और क्षत्रिय गुजरात में कांग्रेस के निश्चित वोट-बैंक थे। ‘अछूत’ बनाम ‘रावण’ की राजनीति के जरिए उस वोट-बैंक को दोबारा जिंदा नहीं किया जा सकता।


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