गुरु पुत्रों की शहादत व वीर बाल दिवस

मोती लाल मेहरा परिवार समेत जि़न्दा जी कोल्हू में पेर दिया गया। गुरु गोबिंद सिंह जी को बाद में इस बात का पता चला तो उन्होंने सामने बैठी संगत की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘इन पुत्रन के सीस पर वार दिए सुत चार। चार मुए तो क्या हुआ, जब जीवत कई हज़ार।’ भारत सरकार ने इस दिन को वीर बाल दिवस घोषित किया है…

भारत सरकार ने दशम गुरु श्री गोबिंद सिंह जी के पुत्रों के बलिदान पराक्रम को देश भर में वीर बाल दिवस के तौर पर मनाने का निर्णय किया है। मध्यकालीन भारत के इतिहास का यह एक ऐसा अध्याय है जिसके पढऩे से रक्त खौलने लगता है। यह अध्याय सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में लिखा गया था। लिखने वालों ने अपनी ही काया पर, अपने ही रक्त से, तलवारों की नोक से यह अध्याय लिखा था और लिखने वाले थे दशम गुरु श्री गोबिंद सिंह जी के चार सपूत। उन दिनों उत्तरी भारत के अधिकांश हिस्सों पर मध्य एशिया के मुगलों का शासन था। गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता श्री तेग बहादुर जी की शहादत हो चुकी थी। उन्होंने मुगल सत्ता के अत्याचारी शासन का विरोध किया था। पस्त हो रहे भारतीयों में आशा की चिंगारी जलाने की जरूरत थी। वही चिंगारी मुगलों के अत्याचारी साम्राज्य को जला सकती थी। लेकिन यह चिंगारी जलाने के लिए किसी महापुरुष को अपना बलिदान देना होगा। तब गोबिंद सिंह जी ने जो उस समय बाल आयु के ही थे, अपने पिता को कहा था कि आपसे बड़ा महापुरुष इस समय हिंदुस्तान में कौन है? इन्हीं गोबिंद सिंह जी ने मुगलों से निपटने के लिए 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की थी। इसके बाद मुगलों की खालसा पंथ से निरंतर झड़पें होने लगीं।

मुगल सेना ने आनंदपुर को घेर लिया था। गुरु गोबिंद सिंह जी बीस दिसम्बर 1704 को अपने साथियों समेत आनंदपुर साहिब से निकल गए। मुगल सेना पीछा करने लगी। गुरु जी के छोटी उम्र के चार सुपुत्र अजीत सिंह, जुझार सिंह, फतेह सिंह व ज़ोरावर सिंह उनके साथ थे। मुगल सेना पीछा कर रही थी। सरसा नदी पर भयंकर लड़ाई शुरू हो गई। नदी में भयंकर बाढ़ आई हुई थी। रात्रि के अन्धेरे में सरसा नदी पार करते समय परिवार बिखर गया। दो बेटे अजीत सिंह व जुझार सिंह गुरु जी के साथ थे। दूसरे दो बेटे ज़ोरावर सिंह व फतेह सिंह अपनी दादी मां गुजऱी जी के साथ पश्चिम की ओर चलते हुए अलग हो गए। गुरु गोबिंद सिंह जी अपने दोनों सुपुत्रों और चालीस साथियों के साथ चमकौर पहुंच गए। वहां एक कच्ची हवेली में मोर्चा संभाला। मुगल सेना पीछा कर रही थी। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध शुरू हो गया। दरअसल इसे युद्ध या लड़ाई कहना बेमानी होगा। कहां मुगल सेना का संख्याबल और कहां गुरुजी के चालीस रणबांकुरे। कोई समानता नहीं थी। यह तो देश और धर्म की रक्षा के लिए भारतीय इतिहास में लिखा जाने वाला स्वर्णिम अध्याय था जो गुरु जी के साथी अपने रक्त से लिख रहे थे। लेकिन अभी इस अध्याय का शीर्षक लिखा जाना बाक़ी था। वह लिखा दोनों गुरु पुत्रों अजीत सिंह और जुझार सिंह ने । अजीत सिंह की उम्र उस समय 17 साल और जुझार सिंह की 14 साल थी। अजीत सिंह ने अपने पिता से युद्धस्थल पर जाने की अनुमति मांगी। गुरुजी जानते थे कि युद्धभूमि में जाने का क्या अर्थ है। लेकिन जिन्होंने स्वयं नौ साल की उम्र में अपने पिता को दिल्ली में जाकर मुगल बादशाह से टक्कर लेने के लिए कह कर इतिहास रचा था, वे अपने बेटे को कैसे रोक सकते थे? गुरुजी एक ऊंची टेकरी पर बैठे सब कुछ देख रहे थे। अजीत सिंह के शौर्य प्रदर्शन से वे अभिभूत थे। अजीत सिंह का शरीर क्षत विक्षत हो चुका था। अन्याय से लडऩा ही धर्म है। वे अपने धर्म का पालन कर रहे थे।

उसी का पालन करते हुए अजीत सिंह ने धरती मां की गोद में शहादत प्राप्त की। गुरु गोबिंद सिंह जी की आंखों के सामने यह इतिहास लिखा गया। ‘सुख दुख सम करि जानै’। लेकिन अभी इस अध्याय का अंत कहां हुआ था? अब चौदह साल का जुझार सिंह गुरुजी से युद्धभूमि में जाने की आज्ञा मांग रहा था। भाई का अनुगमन करते हुए वह भी कुछ समय के लिए बादलों में बिजली की तरह गरजा और फिर अस्त हो गया। महाकाल का यह कौतुक गुरुजी ने स्वयं अपनी आंखों से देखा। लेकिन देश धरा को मुगलों से मुक्त करवाने का यह प्रयास क्या आज ही समाप्त हो जाएगा? गुरुजी अपने बचे खुचे साथियों के साथ मुगल सेना की उस घेराबंदी को धता बताते हुए निकल गए। महाकाल को भी आभास हो गया था, धर्म की रक्षा हेतु लड़ी जाने वाली यह लड़ाई लम्बी चलने वाली थी। उधर सरहिन्द में इसी अध्याय का दूसरा हिस्सा लिखा जा रहा थ । सरहिन्द के सूबेदार ने गुरुजी के दूसरे दोनों सुपुत्रों ज़ोरावर सिंह और फतेह सिंह को उनकी दादी मां गुजऱी जी समेत दस पौष को बन्दी बना लिया था। ज़ोरावर सिंह 9 साल के थे और फतेह सिंह 7 साल के थे। वहां उन्हें उनकी दादी मां समेत ठंडे बुर्ज में रखा गया। पौष का महीना। शरीर को चीरती और सांस को भी जमा देने वाली सर्द हवा। चारों तरफ से हवा के लिए कोई अवरोध नहीं। दादी मां गुजऱी दोनों बच्चों को सीने से लगा कर बालकों को ठंड से बचाने का असफल प्रयास कर रही थीं। लेकिन जो बुर्ज ग्रीष्म ऋतु में भी ठंडा रहता हो, शरद ऋतु में वह कितना क़हर ढा रहा होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। मुगलों ने सोचा यदि ये दोनों बालक मुसलमान बन जाते हैं तो प्रथम गुरु नानक देव जी से चला यह अभियान स्वयंमेव समाप्त हो जाएगा। सरहिन्द के सूबेदार को लगता था इन छोटे बच्चों को मतान्तरित करना तो ज्यादा मुश्किल नहीं होगा। दूसरे दिन दोनों बच्चों को कचहरी में काज़ी के सामने पेश किया गया। इन सैयद काजियों ने, जो प्रथम गुरु श्री नानक देव के पीछे हाथ धो कर पड़ गया था, पूछा था, तुम ने मस्जिद में आकर नमाज़ क्यों नहीं पढ़ी? ऐसे ही किसी काज़ी ने पंचम गुरु श्री अर्जुन देव जी को अमानुषिक सजा देने की तजवीजें निकाली थीं। एक काज़ी नवम गुरु श्री तेग बहादुर जी का सिर क़लम कर देने का आदेश दिल्ली के चान्दनी चौक में दे रहा था। और अब एक काज़ी दशम गुरु के बच्चों को इस्लामी न्याय समझा रहा था। वह न्याय था प्राण रक्षा के लिए अपनी परम्पराएं छोड़ दो। विरासत त्याग दो और पुरुखों को नकार दो। अपना मजहब बदल लो। एक बालक नौ साल का था और दूसरा सात साल का था। माता पिता बिछुड़ गए थे। कहां हैं, कुछ पता नहीं था। ठंडे बुर्ज में दादी मां की गोद में छिप कर रात काटी थी। लेकिन सरहिन्द के सूबेदार को आश्चर्य हुआ, इस सबके वाबजूद गुरु पुत्रों ने अपना परम्परागत मजहब त्यागने से इंकार कर दिया था। दूसरे दिन काज़ी ने मुगल सत्ता का न्याय सुना दिया। मृत्युदंड। अपराध? अपना मजहब बदलने से इंकार। लेकिन मृत्युदंड कैसे क्रियान्वित किया जाएगा? अरब के न्याय में इसका भी प्रावधान था। जि़न्दा ही दीवार में चिनवा कर। 12 पौष को यह दंड क्रियान्वित कर दिया गय ।

दादी मां गुजऱी जी ने भी समाधि लगा कर प्राण त्याग दिए। लेकिन इन्हीं तीन दिनों में एक और और घटना भी घटित हुई थी। एक था मोती लाल मेहरा। उसको पता चला कि दो गुरु पुत्र भूखे प्यासे ठंडे बुर्ज में कैद किए गए हैं। उससे रहा नहीं गया। उसने किसी तरीके से उनके लिए दूध की व्यवस्था कर दी। सूबेदार को पता चल गया। सैयद काज़ी ने इस अपराध का भी दंड सुना दिया। मोती लाल मेहरा को परिवार समेत कोल्हू में पेर दिया जाए। मोती लाल मेहरा परिवार समेत जि़न्दा जी कोल्हू में पेर दिया गया। गुरु गोबिंद सिंह जी को बाद में इस बात का पता चला तो उन्होंने सामने बैठी संगत की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘इन पुत्रन के सीस पर वार दिए सुत चार। चार मुए तो क्या हुआ, जब जीवत कई हज़ार।’ भारत सरकार ने इस दिन को वीर बाल दिवस घोषित किया है। कहा जाता है आज भी सरहिन्द के लोग पौष मास में चारपाई पर नहीं सोते। जमीन पर सोते हैं। यह कल्पना करते हुए कि उन किशोर बालकों ने सर्दी की वे रातें ठंडे बुर्ज में सर्द फर्श पर कैसे काटी होंगी? मैंने भी प्रण किया है कि पौष मास यानी दिसंबर की 26 तारीख को जमीन कर सोऊंगा। गुरु पुत्रों को श्रद्धांजलि।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल: kuldeepagnihotri@gmail.com


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