उदासीन मतदाता के मायने

By: Dec 7th, 2022 12:05 am

एग्जिट पोल अंतिम जनादेश नहीं है, बल्कि एक अनुमान है। उसके जरिए मतदान और औसत मतदाता के रुझान का संकेत मिलता है। एक निश्चित वैज्ञानिक और गणितीय प्रणाली के आधार पर अनुमान का निष्कर्ष निकाला जाता है। वह गलत भी साबित हो सकता है, लेकिन भारत में एग्जिट पोल अमूमन अंतिम जनादेश की झलक देने में सफल रहे हैं। एग्जिट पोल से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है-शहरी मतदान लगातार घटना। लोकसभा चुनाव से लेकर नगर निगम के चुनावों तक मतदान कम होता जा रहा है। चुनाव आयोग भी मानने लगा है कि यह शिमला से सूरत तक शहरी मतदाताओं की ऐसी उदासीनता है, जो अटूट और अक्षुण्ण रही है। यह मतदान शहर के आसपास ग्रामीण इलाकों के मतदान की तुलना में काफी कम रहा है। यहां तक कि दिल्ली नगर निगम के चुनाव में राजधानी की सम्पन्न और मध्यवर्गीय जमात मतदान करने घर से ही नहीं निकली। संविधान ने हमें बेहद महत्त्वपूर्ण मताधिकार प्रदान किया है, लेकिन शहरी वर्ग उसके प्रति उदासीन दिख रहा है।

देश की आज़ादी के बाद, पहले तीन दशकों के चुनावों में, यह उदासीनता नहीं थी। शहरी वर्ग की भागीदारी खूब थी। संभव है कि तब देश बन रहा था। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं आकार ले रही थीं। सरकारों और शासन के प्रति मोहभंग के भाव पैदा नहीं हुए थे। देश के प्रति एक जज़्बा महसूस किया जा सकता था, लेकिन 1980 के दशक से शहरी और ग्रामीण मतदाताओं के बीच का अंतर और फासला चौड़ा और गहरा होता चला गया। अपवाद के तौर पर एक-दो लोकसभा चुनाव को छोड़ा जा सकता है। अलबत्ता विधानसभा और स्थानीय निकाय के चुनावों के प्रति शहरी मतदाता उदासीन और नाराज़-सा रहा है। मताधिकार हमारे लोकतंत्र की बुनियाद है। यदि मतदान कम होता रहा और 25-30 फीसदी वोट हासिल करने वाली पार्टी सत्तारूढ़ होकर शासन करती रही, तो वह भी लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ होगा। सरकारें अस्थिर रहेंगी और दलबदल जारी रहेगा, तो उससे भी लोकतंत्र का उल्लंघन होता रहेगा। बल्कि लोकतंत्र एक हद तक मज़ाक बनकर रह जाएगा। बेशक शहरी मतदाता की उदासीनता भी ‘अप्रासंगिक’ नहीं है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उसकी 60 फीसदी से अधिक की हिस्सेदारी है। करों का बेहद अधिक हिस्सा शहरी नागरिक ही अदा करता है। वह देश की अर्थव्यवस्था और चौतरफा व्यवस्था की रीढ़ है। बेहद अहम सवाल यह है कि शहरी मतदाता, ग्रामीण वोटर की तुलना में, इतना उदासीन क्यों है?

क्या वह राजनीतिक दलों और शासन की प्राथमिकताओं से नाराज़ है? क्या राजनीतिक और चुनावी ब्लूप्रिंट और सेवाओं में शहरी और मध्यवर्गीय जमात को उपेक्षित रखा जा रहा है? जब अंतिम जनादेश सार्वजनिक होंगे, तब भी इन सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे। गुजरात, हिमाचल और दिल्ली नगर निगम के चुनावों में शहरी वोटर की भागीदारी काफी कम हुई है। यदि यह कमी 7-10 फीसदी तक सामने आई है, तो बेहद गंभीर समस्या है। एग्जिट पोल के अनुमान हैं कि गुजरात में शहरी मतदाता की उदासीनता के बावजूद भाजपा लगातार सातवीं बार सत्तारूढ़ हो रही है, हिमाचल में अनुमानों के विरोधाभास सामने आए हैं और दिल्ली नगर निगम में भाजपा की 15-साला सत्ता को तोड़ कर ‘आप’ के दो-तिहाई सीटों के साथ सत्ता में आने के आसार हैं, तो हमें ऐसे जनादेश ‘अद्र्धसत्य’ लगते हैं। राजनीतिक वैज्ञानिकों ने सर्वेक्षणों और चुनाव डाटा का इस्तेमाल कर यह जानने की कोशिश की है कि शहरी इलाकों में मतदान कम क्यों होता जा रहा है? कोई ठोस निष्कर्ष तो सामने नहीं आया है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में राजनीतिक दलों का फोकस ज्यादा रहा है, गांववाले समूह में मतदान की ओर प्रवृत्त होते हैं, ग्रामीणों पर नेताओं का सीधा प्रभाव भी ज्यादा होता है, लिहाजा ग्रामीण इलाकों में मतदान ज्यादा होता रहा है। शहरी इलाकों में गरीब लोग भी होते हैं। वहां राजनीतिक हस्तक्षेप और मदद की ज्यादा जरूरत होती है। शायद वह मदद शहरों में कम है या नगण्य है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App