नई सरकार, नए आईने-16

By: Dec 8th, 2022 12:05 am

हिमाचल जिन पहाड़ी बोलियों के सेतु पर विशाल होता गया, आज उन्हीं की संकीर्णता आड़े आ रही है, वरना अब तक प्रदेश का प्रतिनिधित्व करती एक हिमाचली भाषा का सूरज हर ओर चमक रहा होता। देश के विभाजन ने जिस तरह हिंदोस्तानी भाषा के उभरते क्षितिज को दफन कर दिया, उसी तरह पंजाब से भाषाई आधार पर हिमाचल में मिलेेे इलाकों की बोलियों को भाषा का संगम नहीं मिला। हम हिमाचल की भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक विशालता में कहीं भाषाई संकीर्णता या दरिद्रता ओढक़र बोलियों के क्षेत्रवाद में प्रसन्न हैं, जबकि अन्य राज्यों ने अपने भीतर हर तरह का सामंजस्य पैदा करने के लिए संस्कृति, लोक संस्कृति, लोक कलाओं, लोक गीत-संगीत और बोलियों-भाषा की विविधता का सम्मिश्रण करते हुए राज्य के गौरव का रास्ता चुना और एक इकाई के रूप में पहचान बनाई। हिमाचलियत का अर्थ किसी एक क्षेत्र के खान-पान, भाषा व रस्मों रिवाज में ढूंढ कर हम नहीं निकाल सकते, इसलिए हर पहलू को एक कॉमन प्लैटफार्म पर समाहित करके सर्वमान्य बनाना होगा। एक समय था जब पहाड़ी क्षेत्र पंजाब में थे, तो भाषाई उत्कृष्टता के कारण वर्तमान कांगड़ा, हमीरपुर, कुल्लू व लाहौल-स्पीति से पंजाबी में लेखन हुआ। दूसरी ओर जालंधर रेडियो स्टेशन से ‘पर्वत की गूंज’ कार्यक्रम में इन क्षेत्रों की भाषाई अभिव्यक्ति के स्रोत लोक गीत-संगीत में सामने आए।

आज हिमाचल में भाषाई समानता के प्रारूप में तमाम लोकगायकों ने ऐसी जमीन तैयार की है, जो सिरमौरी नाटी से कांगड़ा को नचा देती है, तो शिमला-कुल्लू की ठेठ शैली में संगीत को हमीरपुर-ऊना तक बांध देती है। अगर कुलदीप शर्मा ‘बडिय़ां जो तुडक़ा’ लगाते हुए कांगड़ा-चंबा की बोली को सार्थक कर सकते हैं, तो लेखन की शब्दावली में सारे हिमाचल के अर्थ एक हो सकते हैं। हिमाचली बोलियां एक दूसरी से दूर बैठकर केवल हाशिए ही पैदा करेंगी, जबकि धीरे-धीरे हर क्षेत्र की अभिव्यक्ति में हिंदी और अंगे्रजी के बढ़ते प्रचलन ने मां से उसकी मातृभाषा छीन ली है। हिमाचल के पचास प्रतिशत आबादी की बोलियों को स्वीकार करके पंजाबी परवान चढ़ गई, जबकि बोलियों के 73 प्रतिशत हिस्से से हिमाचली भाषा का उद्गम सुनिश्चित है। जम्मू-कश्मीर ने उर्दू के साथ कश्मीरी, डोगरी, बाल्टी, पंजाबी, हिंदी, लद्दाखी, पहाड़ी या कोहिस्तानी भाषाओं के प्रति सरोकार दिखाए, तो यह क्षेत्रीय संस्कृति के विकास के प्रति ईमानदारी है। अगर भाषा से ही बचपन का विकास संभव है, तो मातृ बोलियों के समीप खड़ी भाषाओं को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। हिमाचल के संबंध में डोगरी, पंजाबी व उर्दू को सामीप्य में देखना होगा। जरा गौर करें शिमला, धर्मशाला, मंडी, नाहन या अन्य शहरों में घूमते हमारे कानों से कौन सी भाषाएं टकरा रही हैं। क्या वहां हम अपनी बोलियों के प्रतिनिधि हैं या अब हर शहर के कई कोनों में राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी या तिब्बती भाषाएं दौड़ती हुई हमसे मिल जुल रही हैं। हिंदी-पंजाबी व अंग्रेजी का हमसे मेलजोल व्यावहारिक स्तर तक पहुंच गया है। भाषा को केवल बोली के संदर्भों में नहीं देखा जा सकता।

अगर ऐसा होता तो आज की हिंदी वर्तमान स्थिति तक नहीं पहुंचती और न ही पंजाबी, डोगरी, मराठी या गुजराती जैसी अनेक भाषाएं कभी अस्तित्व में आतीं। भाषा के अस्तित्व की पहचान के लिए साहित्यक रचनाओं और शब्दावली का विस्तार जरूरी है। हिमाचली भाषा बनाते हुए हम पंजाबी और डोगरी की सहजता में संवरते हिमाचल के 73 प्रतिशत क्षेत्रफल को बोलियों के अंकगणित में नहीं फंसा सकते। हिमाचल की कई बोलियों में लफ्जों का प्रभाव व आवाज का जादू है, जिससे सिंचित भाषा का संगठन संभव है। यह हिमाचली भाषा के व्याकरण की जरूरत भी रहेगी कि हम इसकी पूर्णता के लिए अनेक बोलियों का एक संगम पैदा करके भाषा का शिष्टाचार पैदा करें। यहां सवाल किसी एक बोली की शुद्धता या वर्चस्व से निकली भाषा के आधिपत्य का नहीं, बल्कि परस्पर भाषाई साझेदारी का फलक ऊंचा करने की आवश्यकता को समझना होगा। जो काम हिमाचली लोक गायक कर रहे हैं, वह साहित्यकार क्यों नहीं कर सकते और जो श्रोता बनकर हम यानी हिमाचली पूरे प्रदेश के गीतों को अंगीकार कर सकते हैं, उसे कॉमन भाषा के प्रारूप में स्वीकार करने में दिक्कत क्या है। दरअसल भाषा को सियासत का प्रश्रय इस नीयत से चाहिए कि यह हिमाचली संवेदना का पथ बने। हिमाचल के गौरव का संगठित स्वरूप जब तक खान-पान, गीत-संगीत तथा भाषाई उद्गार के राज्यीय सेतु से नहीं गुजरेगा, हमारी पहचान की एकरूपता स्थापित नहीं होगी। यह प्रक्रिया साहित्य की अभिलाषा और परिभाषा से पूर्ण होगी। हिमाचल साहित्य का विस्तार ही हिमाचली भाषा के संस्कार पैदा करेगा और इसके लिए सामूहिक प्रयास ही क्षेत्रवाद के नारों को समाप्त कर पाएंगे।


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