पुलिस स्टेशन में कविता

By: Dec 5th, 2022 12:02 am

पुलिस अधिकारी के सपने में एक दिन कविता क्या आई, अब वह कविमय दृष्टि से अपराध को भी देखने लगा है। वह सडक़ पर ट्रैफिक जाम से विचलित नहीं होता। उसे लगता है कि वहां वाहनों के बीच कोई प्रतिस्पर्धा न होकर अलग-अलग कविताएं पां पूं कर रही हैं। हर अपराधी को सर्वप्रथम वह कविता की दृष्टि से देखता और इसी भाव से वह जिला की व्यवस्था करने लगा है। सबसे अधिक मजा मीडिया लेने लगा है। दरअसल पुलिस अधिकारी की प्रेस कान्फें्रस और कवि सम्मेलन में फर्क सिर्फ इतना है कि यहां हर कविता वर्दी से निकल रही है। डर यही है कि अगर पत्रकार भी कवि बन गए, तो पुलिस से उस स्थिति में पूछा क्या जाएगा। जाहिर है कवि होते-होते पुलिस अधिकारी गायक भी बन गया। पहली बार उसकी देखरेख में वर्दी का तरन्नुम, कार्यालय की दीवारों के भीतर रहना पसंद कर रहा था। कवि की कल्पना की तरह पुलिस के साहब भी कल्पनाओं मेें अब कानून व्यवस्था की सीटियां बजाते हैं। उनकी चयनित कविताएं थानों में चस्पां कर दी गईं और हिदायत यह थी कि जो कोई रिपोर्ट दर्ज कराने आए, उसे कोई न कोई कविता सुना दी जाए। कविता के भय से लोग अब छोटी-मोटी शिकायत के लिए पुलिस थानों का रुख नहीं करते। पुलिस से ज्यादा पुलिस की कविता चर्चित हो रही थी और इधर पारंपरिक कवि चिंतित होने लगे कि अगर पुलिस व्यवस्था में कविता की लय घर कर गई, तो वे भाषा-संस्कृति विभाग का पारिश्रमिक कैसे ले पाएंगे।

उधर उड़ती खबर राज्य मुख्यालय तक पहुंच गई और जहां भाषा-संस्कृति विभाग ने कड़ा संज्ञान लेकर आपत्ति दर्ज करवा दी। गृह विभाग को याद दिलाई गई कि अगर कविता सदा-सदा के लिए पुलिस के कब्जे में चली गई, तो भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग और अकादमी करेंगे क्या। ले-देकर एक कविता ही तो है जो विभाग और अकादमी को चला रही है। इनकी वजह से प्रदेश में हर साल सौ नए कवि पैदा हो रहे हैं और इसलिए बिना श्रोताओं के भी सरकारी कवि सम्मेलन भरे-भरे या हरे-भरे लगते हैं। उधर पहली बार पुलिस मुख्यालय में कविता की प्रासंगिकता पर चिंता हुई, तो सारे प्रदेश के एसपी बुला लिए गए। सर्वप्रथम कवितामय पुलिस अधिकारी ने बताया कि कल्पना में जीना किस तरह पुलिस को सुर और ताल में रख सकता है। सारा पुलिस महकमा सोचने पर विवश हुआ कि आखिर बिना पहरे और बिना चेहरे के कविता इतनी प्रभावशाली भी हो सकती है कि क्राइम, लूट, मिलावट, सडक़ दुर्घटना, फरेब और तमाम काले कारनामे खामोश हो जाएंगे। अब पुलिस ने अपने आधुनिक प्रयोगों की फेहरिस्त में कविता को भी जोड़ लिया। अभियान में जुटी पुलिस के दिमाग को यकायक कविता ने इतना झकझोड़ दिया कि उसने प्रदेश के कवियों को काम पर बुला लिया। अब हर थाने के अधीन आने वाले कवि चिन्हित किए जाने लगे और जब कभी चोरी चकारी की खबरें आतीं, संबंधित थाना कवि सम्मेलन करवा देता।

हमारे जिला के पुलिस अधिकारी ने हमें इज्जत दी और हम भी थाने के कवि सम्मेलन में पहुंच गए। कवियों के लिए वाकई थाने महफूज हैं, यह अब कहीं जाकर पता चला। कवि थाने में अपनी रटी रटाई और चुराई गई पंक्तियों के साथ पहुंचे थे। उन्हें हर्ष यह था कि चाहे सरकारी, सामाजिक या सांस्कृतिक व्यवस्था स्थान दे या न दे, लेकिन जब तक कविता पुलिस महकमें के सपने में आती रहेगी, वे पुलिस थाने में पांव जमाते रहेंगे। अब धारा 144 नहीं लगाई जाती, बल्कि जहां भय होता है कि भीड़ अनियंत्रित होगी, वहां कवि सम्मेलन करवा दिया जाता। कवियों के आने की सूचना मात्र से लोग छंट जाते हैं। यहां तक कि पिछले दिनों थाने में कैद किए गए अपराधियों के सामने बार-बार कवि सम्मेलन करवा कर पुलिस ने उनसे भी तौबा करवा दी। मैंने खुद एक चोर को जब चौबीस बार वही घिसी पिटी कविता सुनाई तो वह मेरे पांव में लेट कर क्षमा मांगने लगा। आज उसने चोरी करना छोड़ दिया, तो उसकी वजह मेरी कविता है। अब हर बार पुलिस अपराधियों की तादाद से कहीं अधिक कवियों को पकड़ कर लाती है और इस तरह थाने में बंद अपराधी तमाम कविताएं सुन-सुन कर तौबा कर लेते हैं। आजकल कविता इस देश से अपराध भगाने के काम आ रही है। हो सकता है कल पुलिस भर्ती में कवि होना अनिवार्य कर दिया जाए।

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक


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