‘बापू, तुम गए जब से…’

By: Jan 30th, 2023 12:05 am

हम भाग्यशाली हैं कि ‘गांधी’ भारत में पैदा हुए, जिन्होंने अपने जीवन आदर्शों से मानव जीवन को नए आयाम दिए। अहिंसा, सत्य, स्वदेशी, असहयोग व स्वराज जैसे नए व अनूठे मंत्र दिए। गांधी आज भारत की ही नहीं, पूरी मानवता की अमूल्य धरोहर हैं। उन्हें गए 75 वर्ष जरूर हो गए हैं, पर उनके जीवन द्वारा जिन कालजयी मूल्यों की स्थापना हुई है, वो शाश्वत हैं व 75 सौ वर्षों बाद भी अक्षुण्ण रहेंगे। गांधी हमारी थाती हैं। आइये! इसे संजो कर रखें। झूठे आडंबरों, दिखावे के शोर में इसे न गंवायें, अन्यथा यह हमारा दुर्भाग्य ही होगा, क्योंकि संभवतया दूसरा महात्मा पुन: इस धरा पर पैदा न हो जो कि त्रस्त मानवता के लिए मरहम का काम कर सके। गांधी पशुओं पर हिंसा के भी खिलाफ थे। वे गौमाता के संवर्धन के लिए काम करने के पक्ष में थे। पंचायतों को वह स्वतंत्र इकाई के रूप में उभारने के पक्ष में थे। वे पंचायतों को इतनी शक्तियां देने के पक्ष में थे ताकि वे आत्मनिर्भर काम कर सकें…

महात्मा गांधी के जाने पर ‘गोपाल दास नीरज’ की लिखी ये पक्ंितयां शायद आज हमने बिसार दी हैं- ‘‘खो दिया हमने तुम्हें तो पास अपने क्या रहेगा, कौन फिर बारूद से संदेश चंदन का कहेगा, तुम गये जब से न सोई इक पल गंगा तुम्हारी’’। 30 जनवरी 2023 को बापू का 75वां बलिदान दिवस है। परंतु क्या यह दुखद नहीं कि 30 जनवरी व 2 अक्तूबर को रस्मी तौर पर इन्हें याद करने के अलावा हम आज कितना गांधी के ‘मूल्यों’ और ‘दर्शन’ का पालन करते हैं? गांधी के सत्य, अंहिसा, अस्वाद, अपरिग्रह, अस्तेय, सर्वधर्म समभाव व सहिष्णुता, अंत्योदय आदि जिन आदर्शों के लिए गांधी जिए भी और प्राण भी दिए, शायद! हमारे जीवन से वे मूल्य तिरोहित हो चुके हैं। हां! गांधी आज सर्वसुलभ अवश्य हैं, ‘‘सबके’’ काम आते हैं। मजबूरी का नाम ही ‘महात्मा गांधी’ बन गया है। बापू, इतने प्रचारित हैं कि यदि स्वर्ग से स्वयं झांककर देखेंगे तो वह यही समझेंगे कि सच में ‘‘गांधी युग’’ आ गया है। परंतु वास्तविकता शायद यह है कि गांधी आज एक ‘‘आवश्यक मजबूरी’’ बन कर रह गये हैं। बाहरी तौर पर ज़रूर हम मंचों व सभाओं में ‘गांधीगिरी’ का ढोल बजाते हैं, परंतु वास्तविक जीवन में गांधी के मूल्यों को उतारने से कतराते हैं। गांधी का नाम जपकर कई ‘रद्दू’ ‘‘राधेश्याम’’ बन गये और उनके आशियानों की दीवारों पर टंगे ‘गांधी’ अकेले टुकर-टुकर अपने आदर्शों को नीलाम होते देखते हैं। गांधी का राष्ट्रवाद- पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति तक का अभ्युदय करना था। पर आज सत्य यही है कि भारत की 70 प्रतिशत जी.डी.पी. लगभग 1 फीसदी लोगों के हाथ में है। अमीर-गरीब की खाई और चौड़ी होती जा रही है। क्या गांधी ने ऐसे ही ‘रामराज्य’ की कल्पना की थी? प्रगति की इस अंधी दौड़ में राजनीतिक, लोकतांत्रिक, सामाजिक व भावनात्मक मूल्यों का क्षरण जीवन में बढ़ता जा रहा है।

‘‘गांधी’’ इस विचार के पोषक थे कि जो ‘सत्य’ का अनुगामी है, वह निश्चय ही अहिंसक होगा, परंतु वास्तविकता यह बन गयी है कि आज उसी की मान्यता है जो बाहर से सत्यव्रत का पाखंड करता है, परंतु असल में असत्य का पुजारी है। निश्चय ही ऐसी व्यवस्था देखने के लिए अगर गांधी आज जिंदा होते, तो कितने व्यथित होते। ‘‘गांधी नाम’’ रटते-रटते हम आज ऐसे ‘‘महापुरुषों’’ को अपना आदर्श बना बैठे हैं, जिनके ‘‘महान कृत्य’’ शर्मसार कर दें। गांधी कोई ‘‘भौतिक शरीर’’ नहीं था अपितु ऐसी ‘‘शाश्वत संस्था’’ हैं जो हमेशा ही ‘शुभ’ व ‘अशुभ’ के पोषकों के मन को आंदोलित करती रहेगी। ‘गांधी’ कभी ‘असामयिक’ नहीं हो सकते, वह देश व काल की सीमाओं से परे हर जगह हैं। नि:संदेह ‘मोहनदास’ से ‘महात्मा’ वही बन सकता है, जिसकी धमनियों में रक्त की जगह ‘सत्य व अहिंसा’ प्रवाहित होती हो, जो एक ‘‘लाठी व लंगोटी’’ में उस समय की सर्वशक्तिमान ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने का साहस कर सकता हो, मानवमात्र व सर्वहारा के उदय के लिए आमरण व्रत रख सकता हो, जिसने ‘व्यष्टि’ को ‘समष्टि’ में समाहित कर दिया हो, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए लालायित ‘‘दिशाहीन’’ व ‘‘मृत’’ आंदोलन में ‘‘संजीवनी’’ फूंक दे। नेहरू ने भी अपनी पुस्तक ‘‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’’ में लिखा था कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में ‘गांधी’ का अफ्रीका से पदार्पण एक सुखद ‘‘ठंडी बयार’’ की तरह था। हम भाग्यशाली हैं कि ‘गांधी’ भारत में पैदा हुए, जिन्होंने अपने जीवन आदर्शों से मानव जीवन को नये आयाम दिए। अहिंसा, सत्य, स्वदेशी, असहयोग व स्वराज जैसे नये व अनूठे मंत्र दिए। गांधी आज भारत की ही नहीं, पूरी मानवता की अमूल्य धरोहर हैं। उन्हें गये 75 वर्ष जरूर हो गये हैं, पर उनके जीवन द्वारा जिन कालजयी मूल्यों की स्थापना हुई है, वो शाश्वत हैं व 75 सौ वर्षों बाद भी अक्षुण्ण रहेंगे। गांधी हमारी थाती हैं।

आइये! इसे संजो कर रखें। झूठे आडंबरों, दिखावे के शोर में इसे न गंवायें, अन्यथा यह हमारा दुर्भाग्य ही होगा, क्योंकि संभवतया दूसरा महात्मा पुन: इस धरा पर पैदा न हो जो कि त्रस्त मानवता के लिए मरहम का काम कर सके। महात्मा गांधी पशुओं पर हिंसा के भी खिलाफ थे। वे गौमाता के संवर्धन के लिए काम करने के पक्ष में थे। पंचायतों को वह एक स्वतंत्र इकाई के रूप में उभारने के पक्ष में थे। वे पंचायतों को इतनी शक्तियां देने के पक्ष में थे ताकि वे आत्मनिर्भर होकर काम कर सकें। इन मूल्यों का महत्व इस बात से भी जाहिर होता है कि इन्हें भारतीय संविधान में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धांतों में गांधीवादी आदर्शों के रूप में शामिल किया गया है। महात्मा गांधी कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन देने के पक्ष में थे जिसका विकास गांवों में भी किया जा सकता है। कुटीर उद्योग ग्रामीण विकास के मूल आधार हैं। ये असंख्य कामगारों को रोजगार उपलब्ध करवाते हैं। इस तरह देश की आर्थिकी में इनका बहुमूल्य योगदान है। शराब सेवन को वह नैतिक, शारीरिक, आध्यात्मिक व आर्थिक क्षति के रूप में देखते थे। इसलिए वह पूरे देश में शराबबंदी के पक्ष में थे। आज भी गांधी के आदर्शों की प्रासंगिकता बनी हुई है।

संजय शर्मा

लेखक शिमला से हैं


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