किससे चाहिए आजादी?
गणतंत्र दिवस की राष्ट्रीय परेड के बिम्ब अब भी आंखों और मानस में बसे हैं। बदलते, बुलंद और शक्तिशाली भारत के कई जीवंत दृश्य ‘कत्र्तव्य पथ’ पर देखे। सैनिकों और जवानों के बेहद रोमांचक, अभूतपूर्व, अकल्पनीय, अद्भुत और असंभव-से करतब देखे, तो आसमान में लड़ाकू विमानों की कलाबाजियां भी देखी। विभिन्न दस्तों और मोर्चों का नेतृत्व करती युवा नारी-शक्ति को तनकर परेड करते देखा, तो कुछ पुरानी वीरांगनाएं याद आ गईं। एक संवैधानिक यथार्थ आंखों के सामने मौजूद था कि एक औसत आदिवासी महिला, देश की महामहिम राष्ट्रपति एवं सेनाओं की सुप्रीम कमांडर के तौर पर, परेड की सलामी ले और उन्हें सलामी दे रही थीं। बरबस ही उनके हाथ तालियां बजाने लगते थे मानो किसी को शाबाश दे रही हों! भारतीय लोकतंत्र और गणतंत्र का इससे खूबसूरत और जीवंत बिम्ब और क्या हो सकता है? परमवीर चक्र, अशोक चक्र, महावीर चक्र विजेता हमारे रणबांकुरे योद्धा जब जीवंत रूप में सामने से गुजऱे, तो लगा कि वे दुनिया के नए अजूबे हैं। कोई आम नागरिक, जवान और सैनिक देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता के लिए इस कदर दुश्मन से भिड़ सकता है और विजयी भाव के साथ जि़ंदा लौट सकता है, तो इससे बड़ी देशभक्ति की मिसाल और क्या होगी? भारत के चौतरफा विकास की गति कितनी तेज़ है, आविष्कार कितने अभिनव हैं, अंतरिक्ष में कितनी ऊंचाई तक छलांगें लगाई जा चुकी हैं, अस्त्र-शस्त्र के साथ-साथ अध्यात्म, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता, समाज, कला आदि की भी कई झांकियां देखीं, युवा लड़कियों और लडक़ों का सामूहिक नृत्य बेहद कलात्मक और तालबद्ध था। ऐसे भारत पर बलिहारी कौन नहीं जाएगा? बहरहाल ‘गणतंत्र दिवस’ के जश्न और समारोहों को देशभर के लोगों ने भरपूर जिया। संविधान को पढऩे और जानने की इच्छाएं प्रबल हुईं।
संविधान को लिखने में 2 साल 11 माह 18 दिन लगे थे। एक लाख से अधिक शब्दों वाला हमारा संविधान दुनिया में सबसे बड़ा और व्यापक है, लेकिन हमारे गणतांत्रिक अस्तित्व और देशभक्ति के साथ एक दुर्भाग्य और विडंबना भी चिपके हैं कि महान भारत में ‘गद्दारों’ और ‘देश-विरोधियों’ की एक जमात भी सक्रिय रही है। प्राचीन इतिहास और घटनाओं को हम भुला भी दें, तो आजकल बीबीसी के एक वृत्तचित्र के जरिए देश को तोडऩे, आज़ादी के नारे बुलंद करने, भारत को बदनाम करने और प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ एक क्षुद्र राजनीति खेलने की मुहिम जारी है। दिल्ली के जेएनयू, जामिया में भी प्रस्तावित, चंडीगढ़ के पंजाब, कोलकाता के जादवपुर और प्रेसीडेंसी, केरल के विभिन्न विश्वविद्यालयों में, युवाओं की एक जमात को, बीबीसी का वृत्तचित्र दिखाया गया है। कांग्रेस की छात्र शाखा और वामपंथियों के छात्र दल इस मुद्दे को बरगलाने और मोदी-विरोधी अभियान को तेज़ करने में जुटे हैं। यह करते हुए वे भारत पर कलंक थोपने की कवायद तो कर ही रहे हैं, बल्कि देश की सर्वोच्च अदालत, संविधान, कानून और न्यायिक आयोगों के निष्कर्षों को भी ठेंगा दिखा रहे हैं। जिस ब्रिटिश संसद के प्रति बीबीसी जवाबदेह है, उसके प्रधानमंत्री ऋषि सुनक और अधिकांश सांसद भारत के पक्षधर हैं और बीबीसी की पूर्वाग्रही मानसिकता की भत्र्सना कर रहे हैं। अमरीका और यूरोपीय देश भी भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ खड़े हैं। बहरहाल हमारी चिंता और सरोकार यह है कि जो छात्र ‘आज़ादी-आज़ादी’ के नारे वामपंथी अंदाज़ में गा रहे हैं, दरअसल उन्हें आज़ादी किससे चाहिए?
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