नवनिर्माण की आचार संहिता

By: Jan 27th, 2023 7:26 pm

शिमला हाई कोर्ट का यह फैसला हिमाचल के अस्तित्व को जीवन प्राण देने का मूलमंत्र है और इसे व्यावहारिक शक्ल देने की अतीव आवश्यकता है। माननीय अदालत ने हिमाचल के पहाड़ों को कुरेद रही प्रवृत्ति, अंधाधुंध व बेतरतीब निर्माण और टीसीपी कानून की अनिवार्यता को लेकर कड़े संदेश दिए हैं। अपने एक अहम फैसले में हाई कोर्ट ने विकासात्मक तथा भवन निर्माण जैसी गतिविधियों के लिए पहाड़ों के कटान पर एक तरह से रोक लगा दी है। प्लानिंग एरिया व क्षेत्र विशेष विकास योजना से बाहर पहली बार मनमानी पूर्वक हो रहे निर्माण के हाथ पकड़े हैं तथा इसे व्यवस्थित करने के दिशा-निर्देश जारी किए हैं। अब ग्रामीण क्षेत्रों को भी पहाड़ चीरने की खुली छूट नहीं मिलेेगी और यह भी कि सडक़ों के किनारे किसी भी तरह कि निर्माण को हद से आगे बढऩे की अनुमति नहीं होगी। ग्रामीण इलाकों में भी रिहायशी भवनों का निर्माण में पार्किंग के अलावा अधिकतम सीमा तीन मंजिल रखी है तथा इन्हें सडक़ से तीन मीटर की दूरी पर ही बनाया जा सकता है। वन भूमि से भी निर्माण की दूरी पांच मीटर रखी गई है। इस फैसले का सबसे अहम बिंदु यह है कि अदालत टीसीपी विभाग को प्रदेश के विकास नक्शे का प्रमुख संरक्षक बनाना चाहती है और इसलिए पहाड़ की खुदाई से पहले इसकी अनुमति की बाध्यता भी जुड़ रही है। माननीय अदालत ने टीसीपी निदेशक को साल के भीतर क्षेत्रीय आधार पर तमाम जिलों की योजना बना कर ‘नो डिवेलपमेंट जोन’ घोषित करने की हिदायत भी दी है। यानी अब हिमाचल में नवनिर्माण के सारे खाकों की निगरानी टीसीपी विभाग करेगा। यह लगभग समाप्त समझे जा रहे विभाग का पुनर्जीवन ही होगा कि इसे अदालती संबल मिल रहा है। पाठकों को याद होगा कि हमने इन्हीं कालमों में ‘हिमाचल के जोशीमठ’ के तहत इन्हीं चिंताओं का जिक्र किया था और इसी परिप्रेक्ष्य में पिछले हफ्ते पाठकों से जब पूछा कि ‘क्या जोशीमठ से सबक लेते हुए सारे हिमाचल में टीसीपी एक्ट लागू होना चाहिए,‘तो इसके जवाब में अठासी प्रतिशत लोगों ने हामी भरी है कि पूरे प्रदेश में इस कानून को लागू करके निर्माण गतिविधियों पर नियम लागू किए जाएं। हमारा भी मानना है कि अब सारे हिमाचल को ग्राम एवं नगर नियोजन कानून के दायरे में ला कर निर्माण की आचार संहिता लागू की जाए तथा पूरे परिवेश को संबोधित करते हुए प्राकृतिक संरचना व दृश्यावलियों को बचाया जा सके। विडंबना यह भी है कि सार्वजनिक निर्माण में भी परिवेश और टीसीपी कानून की शर्तें अमल में नहीं आतीं। व्यावसायिक गतिविधियों ने न केवल पहाड़ का सौदा कर लिया, बल्कि निर्माण सामग्री के नाम पर भी प्राकृतिक संसाधनों की लूट से सारा परिवेश खोखला हो रहा है। आश्चर्य यह कि जिस टीसीपी कानून से हिमाचल के विकास का मॉडल तया होना था या शहरीकरण के दबाव में ग्रामीण परिवेश को बचाना था, वहां सियासी तौर पर इच्छाशक्ति हार गई। भले ही अब एक से बढक़र पांच नगर निगम हो गए या कल इनकी संख्या आठ या इससे भी अधिक हो जाए, लेकिन विडंबना यह कि शहरों के साथ लगते गांवों को हम कानूनी तौर पर या व्यवस्थित ढंग से निर्माण की आदर्श पद्धति से छूट दिलाना चाहते हैं।

प्राय:शहरों के दायरे के बाहर दर्जनों गांव खुद में निर्माण की मशीनरी व आर्थिक लाभ उठा कर भी यह नहीं चाहते कि उन पर योजनाबद्ध या कानूनी मंजूरियों का कोई दायरा बने। परवाणू से शिमला के बीच एक बहुत बड़ा व्यापारिक क्षेत्र तो विकसित हुआ, लेकिन इसने एक ओर पहाड़ को बुरी तरह प्रताडि़त किया, तो दूसरी ओर घाटी की तरफ ढलान को भी कंक्रीट से चिन दिया। दोनों ही दिशाओं में प्रकृति विरोधी कार्यों के साथ-साथ भविष्य को संवारने के संकल्प भी हार गए। इसी तरह विद्युत परियोजना क्षेत्रों, नए संस्थानों के विकास तथा सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के आसपास बढ़ती व्यावसायिक गतिविधियों ने सारा पर्यावरण छीन लिया है। दुर्भाग्यवश सरकार की ओर से भी बड़े संस्थानों की जमीन की खोज जब पर्वत से छीन कर पूरी होती है, तो वहां जेसीबी का युद्ध तांडव मचाता है। इस भयानक परिदृश्य से बचाने के लिए केवल डंडा नहीं, नए विकल्प भी चाहिएं। पहले तो सरकार को प्रदेश भर में नए शहर तथा निवेश केंद्र विकसित करने चाहिएं ताकि आवासीय तथा व्यापारिक गतिविधियां व्यवस्थित हो जाएं। सरकार प्रमुख शहरों में नए बाजार, ट्रांसपोर्ट नगर तथा मंडियां विकसित करे। हिमाचल में नवनिर्माण की योग्य जगह पर वन विभाग कुंडली मार कर बैठा है। राज्य की 70 फीसदी भूमि पर वन विभाग की मिलकीयत है, जिसेे घटा कर कम से कम 50 प्रतिशत करें, तो अतिरिक्त बीस प्रतिशत भूमि पर भविष्य की पैरवी करते हुए सार्वजनिक व निजी क्षेत्र का उत्थान बिना पहाड़ को काटे या पर्यावरण को बिगाड़े हो सकता है।


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