गणतंत्र के अद्र्धसत्य

By: Jan 26th, 2023 12:03 am

आज हमारे देश का ‘गणतंत्र दिवस’ है। हमारा देश लोकतांत्रिक है, लेकिन गणतंत्र तब बना, जब हमने अपने संविधान को ग्रहण किया, लिहाजा आज ‘संविधान दिवस’ भी माना जाता है। भारत में संविधान और उसके नागरिक ‘सुप्रीम’ हैं, क्योंकि संविधान ‘हम भारत के लोग…’ पर आधारित है। देश के नागरिकों को मौलिक अधिकार हासिल हैं। असंख्य अन्य अधिकार भी प्राप्त हैं। प्राथमिक स्तर पर नि:शुल्क शिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, जीवन जीने का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, आजीविका कमाने और देश में कहीं भी आने-जाने या बसने का अधिकार, मताधिकार आदि के जरिए असली ताकत ‘आम नागरिक’ के हाथ में है, लिहाजा भारत लोकतंत्र के साथ-साथ गणतांत्रिक और संवैधानिक देश भी है। संविधान के रचनाकार डॉ. अंबेडकर ने बार-बार चेताया था कि नागरिक को सिर्फ ‘मतदाता’ ही नहीं बनना है। यदि मतदाता ही बना रहा, तो राजनेता और कानून बनाने वाले ज्यादा ताकतवर होते जाएंगे और नागरिक कमज़ोर होता जाएगा। निर्वाचित जन-प्रतिनिधि की जवाबदेही भी मतदाता को ही तय करनी है। बेशक 1950 से भारत एक गणतांत्रिक देश है, लेकिन संविधान का कई बार उल्लंघन किया गया है अथवा कुछ छिद्रों का दुरुपयोग किया गया है। ताज़ा ख़बर तेलंगाना की है, जहां की चंद्रशेखर राव सरकार ने राज्यपाल टी. सुंदरराजन को कहा है कि वह अपना अलग ‘गणतंत्र दिवस’ समारोह मनाएं। जबकि राज्य सरकार राज्यपाल के नाम पर ही संचालित की जाती है, ऐसा संविधान में प्रावधान है। यानी इस साल तेलंगाना में दो अलग-अलग, अधिकृत ‘गणतंत्र समारोह’ मनाए जाएंगे। यह दो शीर्षतम संवैधानिक पदासीन हस्तियों के बीच कटुता और रूखेपन की पराकाष्ठा है।

यह गणतंत्र दिवस के राष्ट्रीय महत्त्व, गरिमा और संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन भी है। बेशक राज्यपाल ने उन 8 विधेयकों पर अपनी सहमति नहीं दी है, जिन्हें विधानसभा में पारित किया गया था। राज्यपाल बनाम कार्यपालिका की यही स्थितियां केरल, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में भी देखी गई हैं। राजधानी दिल्ली में तो उपराज्यपाल बनाम मुख्यमंत्री का टकराव गालियों और अभद्र भाषा तक पहुंच चुका है, लेकिन उनके मायने ये नहीं हो सकते कि राज्यपाल और सरकार अलग-अलग गणतंत्र दिवस मनाएं। गणतंत्र का पहला और बेहद गंभीर अद्र्धसत्य यही है। बेशक ब्रिटिश हुकूमत के दौरान गवर्नर साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी सत्ता का एजेंट होता था, लेकिन गणतांत्रिक और संवैधानिक भारत में राज्यपाल, देश के राष्ट्रपति का, अधिकृत प्रतिनिधि होता है, जिसकी अनुशंसा भारत सरकार करती है। संविधान के अनुच्छेद 200 में स्पष्ट उल्लेख है कि सदन द्वारा पारित बिलों पर राज्यपाल को सहमति किस तरह देनी है, लेकिन संविधान में उसकी समय-सीमा तय नहीं है, नतीजतन अलग-अलग पक्षों के राज्यपाल कुंडली मार कर बैठ जाते हैं और बिल लटक कर रह जाते हैं। बहरहाल दूसरा अहम उदाहरण संसद का है। संसद में सत्ता और विपक्ष के बीच समन्वय, सौहाद्र्र के समीकरण आजकल नगण्य हैं। पूरा सत्र हंगामों की बलि चढ़ जाता है। ध्वनि-मत से कुछ बिल पारित कर लिए जाते हैं, लेकिन पर्याप्त बहस के बिना बिल पारित करना भी बेमानी है। यह भी गणतंत्र और संविधान के अद्र्धसत्य की अहम मिसाल है।


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