शेरजंग : क्रांतिकारी से लेखक तक का सफर

By: Jan 28th, 2023 7:42 pm

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

राजेंद्र राजन, मो.-8219158269

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -49

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

-(पिछले अंक का शेष भाग)
सन् 1938 से 1940 तक शेरजंग ने कुछ नहीं लिखा। रिहा होते ही उन्होंने जंगलों और पहाड़ों में घूमना शुरू किया। प्रजामंडल का काम भी करते थे। कुछ ही समय पश्चात वह देहरादून में जाकर ट्रेड यूनियन के काम में लग गए और साथ में कम्युनिस्ट पार्टी की पत्रिका ‘चिंगारी’ में काम करने लगे। देहरादून से दिल्ली आए अभी तीन-चार महीने ही हुए थे कि दूसरे विश्व युद्ध के छिड़ जाने के कारण सन् 1940 में राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं और पुराने क्रांतिकारियों को नज़रबंद कर दिया गया। नजरबंदी की इस अवधि में शेरजंग ने तीन पुस्तकें लिखीं: ‘कार्लमाक्र्स की जीवनी और शिक्षा’, ‘कम्युनिस्ट रूस का इतिहास’ तथा एक कविता संग्रह ‘एक और अनेक क्षण’। पहली दो किताबें उर्दू में थीं जो भारत के बंटवारे से पहले लाहौर से छपी थीं। ‘एक और अनेक क्षण’ नामक कविता संग्रह कुछ वर्षों पश्चात सन् 1951 में सरस्वती प्रेस, बनारस से प्रकाशित हुआ।

चार वर्षों की कैद के बाद वे सन् 1944 में बरेली से रिहा होकर दिल्ली आए। आते ही पूरी सक्रियता के साथ राजनीतिक और सामाजिक कार्यों में जुट गए। उन दिनों वे पुस्तकों को नियमित रूप से पढ़ते थे, लेकिन कुछ लिख नहीं पाये। सन् 1961-62 में आयु ने उन पर अपना प्रभाव डालना शुरू किया और उनके लिए पूरे जोश के साथ राजनीतिक व सामाजिक काम करना कठिन हो गया। उन्होंने पुन: अपने आपको पूर्णत: पढऩे-लिखने में लगा दिया। लिखना शेरजंग की मानसिक बाध्यता बन गई थी। वे लिखते थे, किंतु उसे प्रकाशित करवाने के लिए भाग-दौड़ नहीं करते थे। उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि उनके लेख प्रकाशित होंगे या नहीं। वे लिखते थे क्योंकि लिखने से उन्हें आनंद मिलता था। उन्होंने वन्य जीवन पर बहुत कुछ लिखा। उनकी कई पुस्तकों की पांडुलिपियां अप्रकाशित रहीं, जैसे गालिब की $गज़लें (हिंदी अनुवाद), हाफिज़ की $गज़लें (हिंदी अनुवाद), नीहूंचे का आदिमानव (जर्मन पुस्तक का हिंदी अनुवाद)। वृद्धावस्था में स्वास्थ्य के ढल जाने पर भी वे दिन में कुछ घंटे नियमित रूप से पढऩे-लिखने में लगाते थे। वे प्राय: रात को लिखते थे जिससे कि रात की शांति में वे अपने आपको एकाग्र कर निर्विघ्न रूप से काम कर सकें।

उनके लिखने का अपना ही ढंग था। वे शब्दों को उस समय तक पन्ने पर नहीं उतारते थे जब तक वे उनके भाव को सही प्रकार से व्यक्त नहीं कर पाते थे। चुपचाप बैठे, कलम को हाथ में लिए वे सही शब्द अथवा वाक्य की लय का इंतजार करते थे। वे उसी समय लिखते थे जब उनके विचार को सही शब्द रूप मिल जाता। इसमें बहुत समय लगता था, इसके लिए एकाग्रता ही नहीं धीरता और सहनशीलता का होना भी ज़रूरी था, परंतु परिणाम सदा संतोषजनक होते थे। क
भी-कभी शब्दों का प्रवाह बहुत सरल और सहज होता था। उनके विचार बड़ी सरलता और सहजता के साथ कागज़ पर अंकित होते जाते थे और सुंदर पंक्तियों व लेख की रचना हो जाती थी। लिखने का आनंद ही उनके लिखने की प्रेरणा थी और वही उनका पुरस्कार भी। शेरजंग की लेखनी के महज़ अज्ञेय ही मुरीद नहीं थे। हिंदी के एक अन्य महान लेखक जैनेंद्र ने 1937 में एक लेख में शेरजंग की एक रीति पुस्तिका ‘लोरजा’ का आलोचनात्मक परिचय दिया। जैनेंद्र लिखते हैं, ‘चौधरी शेरजंग अब भी जेल में हैं। सन् 1932 में जेल में ही उनसे मिलना हुआ। वह अंग्रेजी में कविता करते हैं, उर्दू में भी कविता करते हैं और उनकी अंग्रेजी-उर्दू की रचनाओं का रसास्वादन सन् 32 में ही पा सका। तब वह भलीभांति हिंदी जानते थे, यह भी मैं नहीं कह सकता। आज सन् 37 में इन कविताओं को देखकर मुझे बहुत आश्चर्य और बहुत प्रसन्नता है। कविताओं को तो खुद पाठक देखेंगे ही। मुझे उस बारे में कहना क्या है? मुझ अनाड़ी को भी उनमें पद-लालित्य और स्वर-माधुर्य दीख गया है।

काव्य से अधिक उसे रीति-काव्य कहिए। अर्थ-गरिमा प्रमुख नहीं, भावना की तरलता और मंजुलता इन गीतों में प्रकट होकर सामने आई है। मधुर पदों की लडिय़ां आपको इतनी मिलेंगी कि शायद मांग से ज्यादा और उनके लिए, मैं नहीं जानता कि पाठक क्यों और भी उनका कृतज्ञ नहीं हो सकता।’ ‘लोरजा’ शेरजंग की हिंदी कविताओं का पहला संग्रह है। उस समय शेरजंग लाहौर सैंट्रल जेल में आजीवन कारावास के दिन काट रहे थे। इसी कारण उनकी यह पुस्तक सन् 1937 में ‘मृणाल’ के नाम से प्रकाशित हुई। बंदीगृह का जीवन सदा और सबके लिए अत्यंत कष्टदायी होता है। लौह सलाखों और प्राचीरों से घिरा शरीर, गंदगी, निर्दयता, क्रूरता व अत्याचारों से भरा वातावरण हृदय और मन, दोनों को ही असहनीय पीड़ा को भी अपने में समाए रखते हैं। उस असहनीय पीड़ा में भी कविताओं की रचना करना उनकी प्रखर बुद्धि और उनकी असाधारण कल्पना शक्ति का चमत्कार है। उन्होंने कारावास की काल कोठरियों में मृत्यु मांगी तो गाकर, अंधकार को झुठलाया तो सपने संजोकर। उनका एक पद्य:- ‘लुप्त हुआ दिन का उजियाला।/सो जा आशा स्पन्दन सो जा।।/विधुर हृदय के क्रन्दन सो जा।/झलका दे सपनों की हाला।।’ उनकी प्रत्येक कविता जेल के कलुषित वातावरण, लौह सलाखों, प्राचीरों और अंधकार की खुली तस्वीर है। उसके साथ-साथ उनकी कल्पना की उड़ान उन्हें उस नरक से निकाल कर उस प्राकृतिक सौंदर्य में भी ले जाती है, जिसकी गोद में उनका बचपन और किशोरावस्था बीती थी।

शेरजंग का आजादी की लड़ाई में योगदान

कारावास ने उनके शरीर को अवश्य जकड़ा, परंतु मन को नहीं। वे सपने सजोते रहे, कल्पना के सहारे वनों, पर्वतों के सुंदर दृश्यों में भ्रमण करते रहे। वास्तविकता और कल्पना से संबंधित उनके दो पद्य हैं:-‘लोह शिलाखाओं के पीछे/पाहन प्राचीरों के नीचे/इस निर्दयता की जगती में/शिकलों की झन-झन के पीछे/मतवाली मुस्कान-स्पर्श से/रच डालेगी आसवशाला/दूर कहीं से कोकिल का स्वर/प्रांगण में नित करता आकर/आम्रनिकुंज-निसुप्त सघनता/भर-भर कर निज स्वर में लाता/पर इस गायन मुखरित जग में/सखि, मैं विश्व-विहीन अकेला।’ जैसा पुस्तक का नाम है, वैसी ही इस पुस्तक में भिन्न-भिन्न भावों और रसों की लहरें आती हैं और जाती हैं। दु:ख-पीड़ा, आशा-निराशा, विरह-मिलन आदि का चढ़ाव-उतार इस कविता संग्रह की विशेषता है। प्रारंभिक कविताओं की भाषा जटिल है, किन्तु जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, भाषा सरल होती जाती है।

इसी प्रकार कवि की रचनाएं भी निराशा और अंधकार से धीरे-धीरे बाहर निकल कर आशा और आत्मविश्वास की ओर बढ़ती जाती हैं। इसके कुछ उदाहरण: ‘निकल चला था जीवन में से/मानव जाति का गौरव/दया, प्रेम, उत्साह, न्याय शम/हो बैठे थे सब नीरव/साहस इस अंधेरे जग में/होम हुत्साहन-सम उगावल/जीवन प्रेरित मृदु स्मित लेकर/आई वह सुंदर निर्मल।/मृत प्राणों को मृदु पीड़ा ने/दे डाला जीवन वरदान।/अभिलाषाएं जाग उठी फिर/आशा ने फिर छेड़ी तान।’ उनकी पहली किताब 1935 में माहशेर ख्याल दिल्ली से छपी थी। यह एक उर्दू उपन्यास था जिसका शीर्षक था ओरेको परीना। दो साल बाद 1937 में उनका पहला काव्य संकलन ‘लोरजा’ नाम से छपा, शारदा मंदिर दिल्ली से। इससे अभिभूत होकर जैनेंद्र ने एक लेख 1937 में विशाल भारत में लिखा : लोरजा का आलोचनात्मक परिचय। तीसरी किताब 1947 में छपी। माक्र्स की जीवनी व शिक्षा नाम से उर्दू में 1948 में लाहौर के किताब मंजिल प्रकाशक से उनकी अंग्रेजी भाषा में किताब प्रकाशित हुई, ‘हिस्ट्री ऑफ कम्यूनिस्ट रशिया’ सरस्वती प्रैस, बनारस से 1951 में हिन्दी कविताओं को संग्रह प्रकाशित हुआ, एक और अनेक क्षण। हिंदी पाकेट बुक्स व लंदन के रॉबर्ट हाल से अंग्रेजी भाषा में एक किताब छपी, ‘ट्रिस्ट विद टाइगरस।’ ओरिएंट लौंगमैन दिल्ली के प्रकाशन संस्थान से 1970 में ‘रैम्बलिंगस इन टाइगरलैंड’ पुस्तक छपी तो पीपुलस पब्लिकिशंग हॉउस नयी दिल्ली से 1978 में गनलोर नाम से आठवीं किताब छपी। 1991 में बी.आर. पब्लिशिंग हॉउस दिल्ली से प्रिजन डेज़ नाम से जेल में बिताए 14 सालों की कहानी बयान करती है। इसका अनुवाद उनकी पत्नी निर्मला शेरजंग ने 2000 में किया था, ‘कारावास के दिन’ नाम से। इसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है। साल 1996 में शेरजंग के मरणोपरांत 2005 में एक और किताब छपी ‘दस स्पेक जुरूस्थरा।’ कुल 10 किताबों के रचियता की तीन किताबों की पाण्डुलिपियां अप्रकाशित रहीं।

दिल्ली दंगों पर नियंत्रण
सन् 1947 को जब देश को आजादी मिली तो शेरजंग 41 साल के थे जिसमें से 14 साल वे जेलों में रहे। दिल्ली में उन्हें किंगसवे कैंप में पाकिस्तान से दिल्ली आ रहे शरणर्थियों के पुनर्वास का दायित्व सौंपा गया। पंडित नेहरू ने शेरजंग को लोकल मैजिस्ट्रेट नियुक्त किया। चांदनी चौक के टाऊन हाल में उन्होंने रिलीफ कमेटी का कार्यालय खोला। हिन्दू और मुसलमानों के मध्य शत्रुता, वैमनस्य व घोर तनाव को दूर करने के उनके दूरदर्शितापूर्ण प्रयासों का उस वक्त देश भर की अखबारों ने नोटिस लिया। दिल्ली दंगों के बारे में शेरजंग के बेटे कर्नल शैलेश जंग एक लेख में अपने पिता से जुड़ा एक किस्सा कुछ यूं बयान करते हैं, ‘दिल्ली में रिज के समीप एक मस्जिद को दंगाइयों ने आग लगा दी थी। मस्जिद में एक मौलवी आग की लपटों में घिर गये। जब पिताजी ने मस्जिद से धुएं के गुब्बार को निकलते देखा तो वे मस्जिद के भीतर गये और कड़े संघर्ष के बाद मौलवी को बाहर निकाला। सुरक्षित। उसी क्षण एक आदमी झाडिय़ों के पीछे छुपा हुआ था जिसने मेरे पिता जी पर गोली चला दी। शेरजंग ने तुरंत उसे काबू कर लिया और इस बात के लिये उसकी जमकर पिटाई की कि वो एक नाकाबिल निशानेबाज था। उसने शेरजंग जैसे शीर्ष निशानेबाज को मिस कर दिया था। पिताजी ने उस आदमी को मौत के घाट उतारने की बजाय पुलिस के हवाले कर दिया था।’

कश्मीर में मिलीशिया कोर का गठन
यह बात सचमुच हैरतअंगेज है कि शेरजंग के महान व चमत्कारी व्यक्तित्व व कारनामों से अनेक महान विभूतियां अभिभूत रही जिनमें अज्ञेय, जैनेंद्र, बटुकेश्वर दत्त, इंद्र कुमार गुजराल और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू शामिल हैं। यह शेरजंग के अदम्य साहस और पराक्रम का ही परिणाम था कि नेहरू ने उन्हें पाकिस्तान के मुजाहिदों के $िखलाफ लडऩे के लिये 25 अक्तूबर 1947 को श्रीनगर भेजा। उन्होंने कश्मीर में स्वयं सेवकों का एक मिलीशिया ग्रुप तैयार किया जिसे कश्मीर नेशनल मिलीशिया के नाम से जाना गया। यह मिलीशिया ग्रुप पाकिस्तान द्वारा युद्ध के लिए भेजे गए अफगान पठानों से लड़ता रहा और विजय प्राप्त की। नेहरू शेरजंग की सेना दक्षता के कायल थे और दिल्ली में जब शेरजंग ने साम्प्रदायिक दंगों पर नियंत्रण पाने में कामयाबी हासिल की तो नेहरू को यह विश्वास हो गया था कि जंगे आजादी का जननायक शेरजंग कश्मीर में युद्ध के हालात पर काबू पा सकता है। कश्मीर की राज्य सरकार ने नेहरू के समक्ष शेरजंग को कर्नल के रैंक से सुशोभित किया था।
-(शेष भाग अगले अंक में)

जड़ों की खो•ा में आत्मा रंजन की जमीन

कवि आत्मा रंजन का ‘जीने के लिए जमीन’ संग्रह दरअसल जीने के एहसास को खोजते हुए अस्तित्व के प्रश्न ढूंढ निकालता है। बहुकोणीय कविताओं का विशाल साम्राज्य बुनते, संवेदनाओं की खुदाई करते या जेहन से ही शब्दों की रस्साकशी करते साहित्य की उत्पत्ति में, कविताएं अभिव्यक्ति का सम्मोहन पैदा करती हैं, तो इनके भीतर संघर्ष भरे मजमून की व्याख्या छिपी है। ‘दृश्य’ कविता में कूड़ा बीनते हाथों में रची-बसी बदबू के बीच जिंदगी की महक और जरूरतों को बटोरती मांसपेशियों का घर्षण साफ है, ‘आप देखना चाहें तो देख सकते हैं/झुकी इस पीठ के उस तरफ की/पस्त दुबली धूसर देह और शक्ल/सदियों से लगातार बलात् धकेला जा रहा जिसे/मनुष्य होने की उसकी अस्मिता से/बहुत नीचे।’ सदियों की छाती पर जैसे कविता सवार हो और पुश्तों का हिसाब हो रहा हो। कविता मोम सी होकर भी लोहे के सांचे में ढले, तो इसके होने की ठोस वजह, पाठक के धरातल को ऊर्जा देती है। आत्मा रंजन कोठरी और कोष्ठक के बाहर निकलती कविता के पालक हैं, तो इसकी परिभाषा में अपने परिवेश की मिट्टी जोड़ते हैं, ‘जहां धूल आती है/मिट्टी आती है/वहां कुछ खुरदरापन/मटमैलापन/आ ही जाता है/चाहे कविता हो या जीवन/लेकिन वहां नमीं की भी रहती ही है/सबसे अधिक संभावना/और अंकुर की भी/उगने और पनपने की।’ इनकी कविता का चित्रण विचारों के कैनवास को विस्तृत आकार देता है।

कविताओं में जड़ों की खोज और पूरे परिदृश्य के सोच का दायरा बढ़ता है, तो सामने आती हैं, ‘जो उठाए हुए है आपका बोझ, दृश्य, खिलौनों में, बहुत सुंदर, सांकलें, असहमति, •िाद, डर, जीने के लिए •ामीन, जैसे शौर्य गाथाओं में स्त्री, कुछ आवाजें, किताब का सपना, थपकी और जड़ें’ जैसी बेहतरीन रचनाएं। घास में कविता का व्याकरण ढूंढते कवि अपने हाथों में प्रकृति के बिंब लिए वह सब कुछ लिख रहे हैं, जो कविता की मौलिकता में विचरते-विचरते मीलों दूर निकल जाता है, ‘जहां कुछ भी नहीं उगता/चट्टान के सख्त सीने पर भी उग आती है घास/कठिनतम में उगने और/जी पाने की दुर्दम्य हिम्मत है वह/बार-बार कुचले जाने के खिलाफ/उठ खड़े होने का नाम है घास…।’ संवेदना के गहरे समुद्र में कविता की आंख से गिरते मोती गिनें या उस दृष्टि का पीछा करें जो बारीकी से पूछ रही है, या कविताएं बहुत सारे प्रश्नों के ढेर को कुरेद कर पूछने की शक्ति प्रदान करती हैं, ‘फिर से कैसी जिद है/कि या तो गाय को खाओ/या गोबर को/दूध का ममता का कोई हवाला नहीं/औरत को देह मानो या देवी/किताब को पूजो या जला डालो/किन्हीं उन्मादी नारों के बीच।’ कविताओं में साहसिक उड़ानें, मसलों की प्रासंगिकता और राष्ट्रीय चिंतन की धाराओं से निकले शब्द गूंज रहे हैं। ‘जीने के लिए जमीन’ का एक भीतरी दर्शन है जिसे हम ‘बड़े लोगों के लिए युद्ध’ के जरिए समझ सकते हैं, ‘बहुत ऊंची उठेंगी दनदनातीं/चक्रवर्ती उनकी लालसाओं की तोपें/शालीन मोहक मुस्कान के नीचे दबी/फट पड़ेंगी •ाहरीली नफरत और क्रूरता की बारूद।’ आत्मा रंजन कविताओं के खेत में भाषा के पुराने औजार ढूंढते हैं, तो लोक परंपराओं का शब्दकोष उनके कंधे पर बैठकर हल चला देता है। इसी बहाने भाषा कुछ आंचलिक बीज चुन लेती है।

‘प्रार्थना की पनाह’ में कवि सदियों की खाल खींचते हुए, सारे आडंबरों की जड़ में पनपते-पलते धर्म की सारी आवश्यकताओं और पाखंडों को निरुत्तर कर देते हैं, ‘सदियों से रहा धर्म का खतरा/धर्म की रक्षा के लिए/लड़े जाते रहे युद्ध सदियों से/धर्म को बचाने में हालांकि वे रहे विफल।’ अनाम सी शिकायतें जो हम सभी की यादों में भरी रहती हैं और कुछ मासूम से संवाद जो कहीं हलक में अटके रहते हैं। टीस से भरे पहलुओं में यही एक कवि की व्यस्तता है। शिल्प सौंदर्य में कविताओं का पाठक मन में उतरने का बोध व मुक्त छंद में विभिन्न रिश्तों का तालमेल, इस संग्रह में कूट-कूट कर भरा है। बादलों सी गडग़ड़ाहट, कहीं नदी की तरह किसी घायल समुद्र की तलाश और तफ्तीश में समाज के टूटे महल, बनती-बिगड़ती छवियां या जीवन के गूढ़ रहस्य, कविता के मार्फत पुकार रहे हैं, ‘एक निर्धारित सरलीकरण से/होते हैं निर्धारित/कि क्या, कौन, क्यों/कितना सार्थक है/कितना निरर्थक।’                                                                                                                                         -निर्मल असो

कविता संग्रह : जीने के लिए जमीन
कवि : आत्मा रंजन
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद
कीमत : 350 रुपए

पुस्तक समीक्षा : छोटी काशी के मंदिरों पर किताब

पत्रकार और लेखक सत्य महेश शर्मा छोटी काशी के मंदिरों पर किताब लेकर आए हैं, जिसका शीर्षक है ‘छोटी काशी का अध्यात्म एवं मूर्तिकला’। इसमें आप छोटी काशी के असंख्य मंदिरों, अध्यात्म व मूर्तिकला से परिचित होंगे। जिज्ञासा प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशित इस किताब की कीमत 250 रुपए है। इस किताब में जिन मंदिरों का ब्यौरा दिया गया है, उनमें शामिल हैं त्रिलोकीनाथ मंदिर, नारदा-शारदा मंदिर, हनुमान मंदिर, पंचवक्त्र महादेव मंदिर, बटुक भैरव मंदिर, अर्धनारीश्वर मंदिर, बाबा भूतनाथ मंदिर, महामृत्युंजय मंदिर, नीलकंठ महादेव मंदिर, रणेश्वर महादेव मंदिर, राज राजेश्वरी मंदिर, माता भद्रकाली मंदिर, महिषासुर मर्दिनी मंदिर, टारना देवी मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर, सिद्धकाली का प्राचीन मंदिर, सिद्धभद्रा मंदिर, जालपा माता मंदिर, सिद्ध गणपति मंदिर, ठगेश्वर महादेव मंदिर, भुवनेश्वरी मंदिर, छिन्नमस्ता चिंतपूर्णी मंदिर, बालकरूपी मंदिर, कामेश्वर महादेव मंदिर, बंगलेश्वरी मंदिर, बाबा कोट मंदिर, चुन्नी-मुन्नी का समाधि मंदिर, जगन्नाथ मंदिर, श्री रामचंद्र मंदिर, भीमाकाली मंदिर, गोसाईं शिव मंदिर, खवासी महादेव मंदिर, एकादश रुद्र मंदिर, अचलेश्वर महादेव मंदिर, वाशणी का शिव मंदिर, वाशणी का श्यामाकाली मंदिर, शीतला माता मंदिर, राधा-कृष्ण मंदिर, नीलकंठ महादेव मंदिर, ताम्रपति महादेव मंदिर, खुआ रानी मंदिर, अमरनाथ मंदिर, माधव राय मंदिर, सनातन धर्म सभा मंदिर, जोगिंद्रा ज्वाला मंदिर, कांगनी का चामुंडा मंदिर, बज्रेश्वरी मंदिर, पराशर मंदिर व कमरुनाग मंदिर आदि। मंडी नगर की पहचान ही इसके मंदिरों की वास्तुकला से है। पुस्तक में विभिन्न धार्मिक परंपराओं के साथ-साथ उनके पीछे की मान्यताओं का भी ब्यौरा दिया गया है। इस तरह यह पुस्तक मंदिरों, अध्यात्म व मूर्तिकला को समर्पित है। अध्यात्म में रुचि रखने वालों के लिए यह एक संग्रहणीय पुस्तक है।                                                                                          -फीचर डेस्क


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