गरीब के जख्म हैं बेशर्म

By: Jan 30th, 2023 12:05 am

जरूरी नहीं अभद्र लोग बेशर्म भी हो जाएं या हर बेशर्म को अभद्र होने का मौका मिल जाए। अभद्रता और बेशर्मी में अजीब सी प्रतिस्पर्धा सदियों से रही है। हर युग ने जिन्हें कबूल कर लिया, वे भद्र हो गए, इसलिए हमारे देश में स्वीकार्य होना खुद को भद्र बनाना है। अचानक एक दिन मोबाइल कैमरे में दो सेल्फियां लडऩे लगीं। पहली बार एक सेल्फी दूसरी को अभद्र मान रही थी, तो दूसरी पहले वाली को बेशर्म कह रही थी। दोनों सेल्फियां अलग-अलग फिल्मों से प्रभावित थीं। वैसे जबसे सेल्फी क्रेज बढ़ा है, हम सभी फिल्मी हो गए हैं। अब समाज का भद्र प्रदर्शन, हर गतिविधि और अवसर में एक अदद सेल्फी ही तो है। दरअसल भारत का स्वच्छता अभियान भी सेल्फियों के कारण नाम कमा गया। उन दोनों सेल्फियों को अपने ही चेहरे पसंद आ रहे थे, तो यह झगड़ा दो लोगों के बीच पहुंच गया। सेल्फी के कारण वे दोनों आपस में लड़ कर ये तय कर रहे थे कि आखिर बेशर्म है कौन। वैसे वे दोनों एक-दूसरे को जन्म से ही अभद्र मानते आए थे, लेकिन अब फैसला बेशर्म होने का था। उनके जन्म की स्थिति, जन्म के कारण और जीने की परिस्थिति भद्र नहीं थी। देश को सदियों ने उनकी जाति को भद्रता से इतना दूर कर रखा था कि वहे न खड़े होकर और न ही बैठ कर भद्र नजर आते हैं। उनके वस्त्र और खाने की वस्तुओं में हमेशा से यह द्वंद्व रहा कि किसी को पता न चले कि वे वर्षों से जी कैसे रहे हैं। वे खुद ही लडक़र घायल होते रहे, लेकिन घोषित भद्र पुरुषों को केवल जख्म पसंद थे। वे भद्र समाज की आंखों के कारण अपना लहू बहाते रहे ताकि देखने वालों की पसंद उन्हें भद्र मान ले। आज बहते खून को देखने में बेशर्मी है कहां, बल्कि ऐसे खून में मानवता पहचानने की कोशिश में जरूर अभद्रता हो सकती है। इसलिए खुद में अभद्रता ढूंढते वे दोनों अब अपने ही जख्मों को बेशर्म मानने लगे हैं।

ये गरीब के जख्म हैं, इसलिए बेशर्म हैं। ये देश के जख्म हैं, इसलिए बेशर्म हैं। सेल्फियां पूरी तरह दोनों को लड़ा चुकी थीं, फिर भी उन्होंने एक-दूसरे को हारा हुआ मान कर, लड़ाई बीच में ही छोड़ दी, ताकि एकजुटता से देखा जाए कि देश की भद्रता आखिर है कहां। उन्होंने देखा कि जो गरीबों और गरीबी के दुखों को एकजुटता से देख रहे थे, वे सभी भद्र थे, लेकिन उन्हें अपने लिए और बुजुर्गों के किए पर शर्म आ रही थी। उन्हें लगा कि जो लोग रेलवे की पटरियों पर निवृत्त होते हैं, वे सभी बेशर्म हैं। फटे कपड़ों से झलकती गरीबी बेशर्म है, लेकिन शरीक को ढांप नहीं पाती अमीरी भद्र है। बेशर्म तो वे खेत हैं, जिन्हें बो कर भी किसान को आत्महत्या करनी पड़ती है। हद तो यह कि देश में ईमादारी की बेशर्मी अभी भी है। देश जहां तक चल रहा है, उससे अलग भी कोई ईमानदार कुछ कह रहा है तो यह राष्ट्र के प्रति अभद्रता है। बीयर बार में किया गया नशा भद्र है, लेकिन गांव के नाले से पीया गया पानी कितना अभद्र है। देश में चारों तरफ भद्र बढ़ रहे है। भद्र वही हैं जो हर दिन बेशर्मी से आरोप लगा सकें। आज सत्य बेशर्म और झूठ भद्र हो रहा है तो इसलिए क्योंकि हमें देश से हर सूरत अभद्रता भगानी है। वे दोनों अपनी सेल्फियों को सुधारने के लिए अब भद्र होना चाहते हैं। उन्हें मालूम हो चुका था कि कोई काम बेशर्मी से लगातार किया जाए, तो देश और समाज उसे ही भद्रता से स्वीकार कर लेता है। वे अब बेशर्मी के साथ सेल्फी खींचते हैं और भद्रता के साथ इसका प्रचार करते हैं। उन्हें मालूम हो चुका है कि बेशर्मी के साथ किए गए प्रचार को जनता भद्र कार्य मानती है। हर भद्र कार्य के पीछे की बेशर्मी से सीखना होगा। अक्सर हम जिस भद्रता के साथ नेताओं के वजूद को स्वीकार कर रहे हैं, उसके पीछे यथासंभव बेशर्मी के साथ किया गया प्रयास ही तो है। अब वे दोनों भी बेशर्मी के साथ प्रयासरत हैं और इसीलिए अपने भीतर अभद्रता को लेकर किसी भी लड़ाई के बारे में नहीं सोचते।

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक


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