वोटों की राजनीति और स्वतंत्रता सेनानी

By: Jan 28th, 2023 12:04 am

आश्चर्य की बात यह है कि राजनीतिक दल जहां अन्य स्वतंत्रता सेनानियों पर दावेदारी को लेकर विवादों में घिरे रहते हैं, वहीं भगत सिंह की शहादत को मुद्दा बनाने से कतराते रहे हैं। दरअसल राजनीतिक दलों के नेताओं को अंग्रेजी शासन व्यवस्था के खिलाफ ब्रिटिश संसद में बम फोड़ कर अपनी आजादी की मांग करने वाले भगत सिंह की पैरोकारी से घबराहट होती है। राजनीतिक दल भगत सिंह को आदर्श के तौर पर स्थापित नहीं करना चाहते। राजनीतिक दलों को भगत सिंह की शहादत फायदे का सौदा नजर नहीं आती। उनको डर है कि कहीं देश के युवा अंग्रेजों की तरह मौजूदा व्यवस्था के विरोध में भगत सिंह की तरह बगावत पर नहीं उतर आएं। यही वजह है कि राजनीतिक दल भगत सिंह की जयंती और पुण्यतिथि पर महज औपचारिकता पूरी करते हैं। दल भगत सिंह की मूर्तियों का विस्तार करने से कतराते रहे हैं…

राजनीतिक दल और उनके वैचारिक समर्थक वोटों की फसल काटने का कोई मौका नहीं छोडऩा चाहते। इसके लिए चाहे गढ़े मुर्दे ही क्यों न उखाडऩे पड़े। इतना ही नहीं, दलों की दलदली राजनीति में स्वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानी को भुनाने से परहेज नहीं है। मुद्दा चाहे स्वतंत्रता सेनानियों की जयंती का हो या पुण्यतिथि का या फिर उनकी मूर्तियां लगाने का। बगैर मेहनत के मिले ऐसे मुद्दों को हर कोई राजनीतिक दल लपक कर यह साबित करना चाहता है कि उससे बड़ा देशभक्त कोई नहीं हों। बेशक स्वतंत्रता सेनानी के परिजन राजनीतिक दलों से अपने पुरखों को ऐसी सड़ी-गली राजनीति में नहीं घसीटने की चाहे कितनी ही गुहार लगाते रहें, किन्तु राजनीतिक दलों पर इसका कोई असर दिखाई नहीं देता। उनकी निगाहें सिर्फ स्वतंत्रता सेनानियों की शहादत के बहाने सहानुभूति को समेट कर वोट बैंक में बदलने पर लगी रहती हैं। राजनीतिक दल अपनी सुविधा के अनुसार स्वतंत्रता सेनानियों के विचारों को तोड़-मरोड़ कर पेश करके हक जमाने का दावा पेश करते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि राजनीतिक दल जिन स्वतंत्रता सेनानियों की दुहाई देते हैं, उनके बताए हुए आदर्शों पर चलना नहीं चाहते। ताजा विवाद आजाद हिंद फौज के सेनापति सुभाष चंद्र बोस को लेकर हुआ।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने नेताजी जी की जयंती पर कोलकाता में कार्यक्रम आयोजित किए थे। कोलकाता विश्वविद्यालय में नेताजी की 126वीं जयंती समारोह के मौके पर वर्चुल भाषण देते हुए उनकी पुत्री अनिता बोस ने इस पूरे कार्यक्रम का विरोध किया। बोस ने कहा कि नेताजी धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करते थे। उन्होंने कहा कि मेरे पिता एक ऐसे व्यक्ति थे जो हिंदू थे लेकिन सभी धर्मों का सम्मान करते थे। वे मानते थे कि हर कोई एक साथ रह सकता है। इससे पहले भी अनिता बोस ने दिल्ली के इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति का अनावरण समारोह में यह कहते हुए शामिल होने से इंकार कर दिया था कि उन्हें सम्मानित तरीके से आमंत्रित नहीं किया गया है। हालांकि बोस का बड़ा मुद्दा भाजपा की विचारधारा की खिलाफत से जुड़ा हुआ है। स्वतंत्रता सेनानियों को राजनीतिक दलों के अपने चश्मे से देखने का यह पहला मौका नहीं है। पूर्व में भी नेताजी, भीमराव अंबेडकर, महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल सहित कई स्वतंत्रता सेनानियों और पूर्व राजा-महाराजाओं की छवि भुनाने के प्रयास किए जाते रहे हैं। इनकी दावेदारी को लेकर राजनीतिक दल आपस में उलझते रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बीजेपी सरकार की ओर से भीमराव अंबेडकर के नाम में बदलाव कर भीमराव रामजी अंबेडकर करने पर विवाद पर पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने सत्तारूढ़ पार्टी पर नौटंकी करने का आरोप लगाया। गौरतलब है कि मायावती ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहने के दौरान अपनी सैकड़ों मूर्तियां लगवाई थी। इसको लेकर भाजपा और समाजवादी पार्टी से मायावती की जमकर तकरार हुई। मुलायम सिंह के मूर्तियों पर बुलडोजर चलवाने के बयान पर मायावती भडक़ उठी थी। मायावती ने चेतावनी दी थी कि भविष्य में यदि ऐसी कोशिश हुई तो देश में क़ानून व्यवस्था की स्थिति इतनी खऱाब हो जाएगी कि राष्ट्रपति शासन लगाने की ज़रूरत पड़ जाएगी और इसके लिए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस जिम्मेदार होगी। मुख्यमंत्री रहने के दौरान मायावती के राजनीतिक गुरू कांशीराम की प्रतिमाओं के निर्माण पर सुप्रीम कोर्ट तक विवाद पहुंचा था। इस मुद्दे पर शीर्ष कोर्ट ने प्रतिमाओं पर रोक लगाने के आदेश दिए थे। स्वतंत्रता सेनानियों के दर्जे को लेकर भी राजनीतिक दलों में घमासान मचता रहा है। भारतीय जनता पार्टी जहां वीर सावरकर को महान देशभक्त मानती है, वहीं कांग्रेस उन्हें महात्मा गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने का आरोपी करार देती रही है। भारत जोड़ो यात्रा के महाराष्ट्र पहुंचने पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी ने सावरकर पर बयान देकर नया विवाद खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि विनायक दामोदर सावरकर ने अंग्रेजों की मदद की थी। विरोधी दलों के साथ कांग्रेस के गठबंधन के कुछ साथियों ने भी राहुल गांधी के इस बयान का विरोध किया। सावरकर को लेकर महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी भी विवादित बयान दे चुके हैं। तुषार ने सावरकर पर अंग्रेजों की मदद करने और बापू की हत्या के लिए नाथूराम गोडसे को एक कारगर बंदूक खोजने में भी मदद देने का आरोप लगाया था। इस मुद्दे पर भी खूब वाद-विवाद हुआ।

स्वतंत्रता सेनानियों पर दावेदारी जताने और आजाद भारत में उनका यथोचित सम्मान करने को लेकर राजनीतिक दल आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति करते रहे हैं। देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को लेकर भाजपा गाहे-बगाहे कांग्रेस को घेरती रही है। भाजपा का आरोप है कि जवाहर लाल नेहरू की वजह से कांग्रेस ने कभी भी पटेल के योगदान के साथ न्याय नहीं किया। नेहरू-गांधी परिवार ने पटेल को हाशिए पर रखने का प्रयास किया। इसके पलटवार में कांग्रेस भाजपा के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने का प्रमाण मांगते हुए पटेल को कांग्रेसी नेता बताती रही है। राजनीतिक दलों में छत्रपति शिवाजी पर भी राजनीति करने की प्रतिस्पर्धा रही है। शिवाजी की प्रतिमाओं और जन्मस्थान सहित दूसरे मुद्दों पर शिवसेना और भाजपा में कई बार तकरार हुई है। इसी तरह टीपू सुल्तान की देशभक्ती को लेकर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। कांग्रेस जहां टीपू सुल्तान को अंग्रेजों से लोहा लेने वाला वीर बताती रही है, वहीं भाजपा हिंदुओं का विरोधी करार देती रही है। कर्नाटक में टीपू सुल्तान को लेकर कई बार विवाद हो चुका है। आश्चर्य की बात यह है कि राजनीतिक दल जहां अन्य स्वतंत्रता सेनानियों पर दावेदारी को लेकर विवादों में घिरे रहते हैं, वहीं भगत सिंह की शहादत को मुद्दा बनाने से कतराते रहे हैं। दरअसल राजनीतिक दलों के नेताओं को अंग्रेजी शासन व्यवस्था के खिलाफ ब्रिटिश संसद में बम फोड़ कर अपनी आजादी की मांग करने वाले भगत सिंह की पैरोकारी से घबराहट होती है। राजनीतिक दल भगत सिंह को आदर्श के तौर पर स्थापित नहीं करना चाहते। राजनीतिक दलों को भगत सिंह की शहादत फायदे का सौदा नजर नहीं आती। उनको डर है कि कहीं देश के युवा अंग्रेजों की तरह मौजूदा व्यवस्था के विरोध में भगत सिंह की तरह बगावत पर नहीं उतर आएं। यही वजह है कि राजनीतिक दल भगत सिंह की जयंती और पुण्यतिथि पर महज औपचारिकता पूरी करते हैं। राजनीतिक दल भगत सिंह की मूर्तियों का विस्तार करने से कतराते रहे हैं, जबकि भगत सिंह को लेकर युवाओं में जबरदस्त आकर्षण रहा है।

योगेंद्र योगी

स्वतंत्र लेखक


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