कश्मीरी देसी मुसलमानों की घेराबंदी

पहले चरण को सफलतापूर्वक निपटा लेने के बाद एटीएम ने देसी मुसलमान को नियंत्रित करने के लिए अपने ही मूल के विदेशी आतंकियों की सहायता ली, लेकिन दूसरे चरण में बहुत से देसी मुसलमानों को अपने साथ जोड़ लिया। जिन देसी मुसलमानों ने इसका विरोध किया, उनकी भी हत्या कर दी गई…

मतांतरित होने के बावजूद मतान्तरित कश्मीरी अपनी विरासत को नहीं भूल रहे थे। वे भी भीतरी मन से अपनी पुरखों की परम्पराओं और आस्थाओं को नहीं छोड़ रहे थे। भूलने की बात तो दूर, वे बहुत सीमा तक अभी भी उसी से जुड़े हुए थे। उनमें से कश्मीरियत नहीं जा रही थी। वे इधर उधर घूम फिर कर फिर अपने जड़ों के आसपास सिमट जाते थे। नए हालात के अनुसार उन्होंने नए प्रतीक गढ़ लिए थे। नई शब्दावली का सृजन किया था। त्रिक दर्शन की व्याख्या के लिए नए मुहावरों की तलाश कर ली थी। कश्मीरी व्यक्ति मुसलमान तो बन गया था लेकिन उसका मानस कश्मीरी ही रहा। वह रहस्यवादी चेतना को अभिव्यक्त करने के लिए नए संकेतों का प्रयोग करने लगा था। अरबी-मध्य एशियाई कबीलों ने उनको भौतिक रूप से तो पराजित कर दिया था, लेकिन वे उनके मन की थाह पाने में कामयाब नहीं हो रहे थे। दर्शन शास्त्र में कश्मीरी उन्हीं के प्रतीकों से उनको उत्तर दे रहे थे। वे अभी भी कश्यप को अपना पूर्वज मान रहे थे। कश्मीरी मूल्यों को वे त्याग नहीं रहे थे। यानी मानसिक रूप से वे अपने आपको एटीएम की संस्कृति और तथाकथित ज्ञान से बेहतर मान रहे थे।

वे शारदा पुत्र तो थे ही। ज्ञान की देवी शारदा का तो निवास स्थान ही कश्मीर को माना ही जाता था। वे सरस्वती यानी ज्ञान के उपासक थे। वे तर्क करते थे। प्रश्न पूछते थे। सैयदों के पास कश्मीरियों के इन प्रश्नों का कोई जवाब नहीं था। वे उस अरब भूमि से व मध्य एशिया से आए थे जहां प्रश्न पूछने की मनाही थी, आंखें बन्द करके केवल पीछे चलने का अधिकार था। कश्मीर में वे अपने इसी अधिकार की रक्षा शासक की तलवार से कर रहे थे। लेकिन कश्मीर, जिसके ज्ञान के पीछे मध्य एशिया चलता था, वे आंखें बन्द करके उन्हीं सैयदों व मध्य एशिया के तुर्कों के पीछे कैसे चल सकता था? उन्होंने ईश्वर का नाम अल्लाह को तो मान लिया था लेकिन वे शिव की उपासिका लल्ला को कैसे छोड़ सकते थे। कश्मीर की एक और परम्परा है। किसी भी गुणी और साधक का वे सम्मान करते हैं। वह साधु साधक या पीर किसी भी पूजा पद्धति को मानने वाला क्यों न हो। वे धरती को मां मानते हैं। मध्य एशिया या अरब से आए सैयदों से चाहे उनके लाख भेद रहे हों लेकिन जब ऐसे किसी साधक पीर की मृत्यु होती थी तो कश्मीर के लोग उसका सम्मान करते हुए और उसके प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए स्मारक बना देते थे।

वैसे भी कश्मीर में माना जाता है कि मरने के बाद आदमी के सारे सांसारिक मतभेद समाप्त हो जाते हैं। एटीएम इस प्रकार के स्मारकों को अपनी भाषा में दरगाह कहता है और वह दरगाह में जाना और वहां जाकर मृतक साधक की स्मृति में कश्मीरी मुसलमानों द्वारा सिजदा करने को इस्लाम की तौहीन मानता है। सैयदों को लगता था कश्मीर में कश्मीरी इस्लाम को समझने की बजाय उसका कश्मीरीकरण करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन सबसे हैरानी की बात यह थी कि इन दरगाहों एवं कब्रों पर भी संगठनात्मक रूप से कब्जा सैयदों का ही रहा। इन दरगाहों के पुजारी भी सैयद, मुफ़्ती, मुल्ला और पीरजादेह ही थे। ऐसा कैसे सम्भव हुआ? इसे समझने के लिए कश्मीरी देसी मुसलमानों की ऋषि परम्परा को गहराई से समझना होगा। शुरुआती दौर में जब सूफी सैयदों ने स्थानीय शासकों के साथ मिल कर कश्मीर का इस्लामीकरण शुरू किया था तो कश्मीरियों ने उसका मुकाबला करने के लिए अपनी ऋषि परम्परा शुरू कर दी थी। शाहमीरी वंश के बुतशिकन के राज्यकाल तक सैयदों व कश्मीरियों में सांस्कृतिक वर्चस्व का संघर्ष भी तेज़ हो गया था। इसको ललेश्वेरी व नुन्द ऋषि के प्रकरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है। जोनराज की राजतरंगिनी में इस बात का जिक़्र है कि नुन्द ऋषि को सुल्तान अली शाह के राज्यकाल में बन्दी बनाया गया था। (2) लल्लेश्वरी (1320-1392) और नुन्द ऋषि (1377-1438) और इरान से आए बाप-बेटा सैयद अली हमदानी (1341-1385) व सैयद महमूद हमदानी (1372-1450) समकालीन थे। लल्लेश्वरी का अन्तकाल और बुतशिकन (1389.-1413) का राज्यकाल एक साथ शुरू होते हैं। नुन्द ऋषि का कार्यकाल बुतशिकन और बडशाह (1420-1470) दोनों के राज्यकाल के भीतर सिमटा हुआ है।

नुन्द ऋषि का नाम सहजानन्द भी था (3), लेकिन ललेश्वेरी का कार्यकाल शाहमीरी वंश के पहले छह शासकों के राज्यकाल तक फैला हुआ है। सैयद मोहम्मद हमदानी कश्मीर में 1393 में आए थे और बारह साल कश्मीर में रहे। कुछ लोग कहते हैं कि बाईस साल रहे। यदि बारह साल रहे तो उनके कश्मीर से जाने की तारीख़ 1405 है और यदि बाईस साल रहे तो जाने की तारीख़ 1415 है। ऋषि परम्परा की शुरुआत शिव की उपासिका लल्लेश्वरी (1320-1392) ने की थी। आज भी कश्मीर का देसी मुसलमान गाता है – ऊपर अल्लाह नीचे लल्ला (4), उस कालखंड में एटीएम के लिए ऋषि परम्परा से लोहा लेना लाभकारी नहीं था। मोहिबुल हसन ठीक कहते हैं कि ऋषि परम्परा कश्मीर में ज्यादा प्रभावी थी। लेकिन उसका चलते रहना ही कश्मीरियों के इस्लामीकरण में बाधक था। कुछ सैयदों ने ऋषियों की ही भाषा बोलनी शुरू कर दी और धीरे धीरे इस परम्परा के डेरों पर भी नियंत्रण कर लिया। उस परम्परा का नामकरण तो ऋषि ही रहने दिया, लेकिन यथार्थ में वे सैयदों के डेरे ही बन गए। इस प्रकार कश्मीर घाटी की तीनों संस्थाओं प्रथम मस्जिदों, द्वितीय दरगाहों और तीसरे ऋषि आश्रमों या डेरों पर एटीएम का ही कब्जा हो गया। दरगाहें और ऋषियों के डेरे बाद में एकरूप हो गए। इन तीनों संस्थाओं और उसके तन्त्र के नियंत्रण में से कश्मीरी मुसलमान और गुज्जर सिरे से ग़ायब थे। यह देसी मुस्लिम समाज पर दोहरा शिकंजा था। सैयद दोनों दिशाओं से कश्मीरी मुसलमान, गुज्जर और पहाड़ी राजपूत मुसलमानों को घेरे हुए थे।

वह मस्जिद में जाता है तब भी वहां सैयद ही बैठा है और वहां से भाग कर अपनी दरगाह में पहुंचता है, वहां भी कब्जा सैयद का ही है। इसलिए एटीएम ने योजना का दूसरा चरण शुरू किया। पहला चरण था, कश्मीरियत से इस्लामीकरण और दूसरा चरण था इस्लामीकरण से अरबीकरण। एटीएम इस कार्य को बहुत जल्दी करना चाहता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एटीएम ने कश्मीर में अलग अलग संगठन स्थापित किए। इनमें से चार का उल्लेख किया जा सकता है। इन चार संस्थाओं के समन्वित अध्ययन से कश्मीर घाटी में एटीएम की कार्यप्रणाली को बख़ूबी समझा जा सकता है। ये संस्थाएं हैं अंजुमन-ए-नुसरत-उल-इस्लाम, अंजुमन अहल-ए-हदीस/जमायत-ए-अहल-ए-हदीस, अंजुमन-ए-तबलीग-उल-इस्लाम और जमायत-ए- इस्लामी कश्मीर। देसी मुसलमान के मानस को बदलने व नियंत्रित करने का 1900 से शुरू हुआ यह अभियान शताब्दी के अंतिम दशकों में हिंसक हो गया। उस हिंसक आन्दोलन में शुरू में तो घाटी का कश्मीरी हिन्दू और सिख निशाने पर था। एटीएम को लगता था जब तक घाटी में कश्मीरी हिन्दू रहेगा तब तक देसी मुसलमान अपनी पुरानी जड़ों से टूट नहीं सकेगा। पहले चरण को सफलतापूर्वक निपटा लेने के बाद एटीएम ने देसी मुसलमान को नियंत्रित करने के लिए अपने ही मूल के विदेशी आतंकियों की सहायता ली, लेकिन दूसरे चरण में बहुत से देसी मुसलमानों को अपने साथ जोड़ लिया। जिन देसी मुसलमानों ने इसका विरोध किया, उनकी भी हत्या कर दी गई। इस पूरे घटनाक्रम को समझने बूझने के लिए उपरोक्त तंजीमों का अध्ययन जरूरी है। ध्यान रहे ये सभी तंजीमें सैयदों ने ही स्थापित की हैं।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल: kuldeepagnihotri@gmail.com


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