सरकारी कर्ज की राजनीति व अर्थशास्त्र

कई मामलों में पुराने कर्ज चुका कर नए ऋण कम ब्याज पर लिए जा सके थे। ऐसे में सरकार पर ऋण का बोझ कम हो गया था। कहा जा सकता है कि सरकारी कर्ज के बोझ को कम करने हेतु ब्याज दरों में कमी जरूरी है…

पिछले कुछ दिनों से मीडिया और सोशल मीडिया में एक चर्चा चल रही है कि सरकार पर कर्ज पहले की तुलना में काफी ज्यादा बढ़ गया है। कांग्रेस का कहना है कि जब 2014 में उन्होंने सत्ता छोड़ी थी उस समय देश पर 56.7 लाख करोड़ रुपए का कर्ज था, जो 2022-23 में बढक़र 152.6 लाख करोड़ तक पहुंच गया है, यानी यह कर्ज लगभग 96 लाख करोड़ रुपए बढ़ गया है। देखने में यह आंकड़ा बड़ा दिखाई देता है।

कर्ज-जीडीपी अनुपात : दुनिया भर में सरकारी कर्ज के बारे में देखने का नजरिया अलग किस्म का है। सरकारी कर्ज को उसके आकार के अनुसार नहीं, बल्कि जीडीपी के प्रतिशत के रूप में देखा जाता है। उसके हिसाब से देखा जाए तो वर्ष 2013-14 में चालू कीमतों पर 112 लाख करोड़ रुपए की जीडीपी के संदर्भ में सरकार का कुल 56.7 लाख करोड़ रुपए का कुल कर्ज और देनदारियां जीडीपी का 50.5 प्रतिशत थी। उसके बाद वर्ष 2018-19 तक आते-आते सरकार का कुल कर्ज और देनदारियां 90.8 लाख करोड़ तक पहुंच गई, जो चालू कीमतों पर जीडीपी का 189 लाख करोड़ रुपए की जीडीपी का मात्र 48 प्रतिशत ही था, यानी जीडीपी के प्रतिशत के रूप में सरकारी का कर्ज और देनदारियां पहले से 2.5 प्रतिशत बिन्दु घट गई थीं। 2019-20 के वर्ष में कोरोना का प्रकोप शुरू हो चुका था, जिसके कारण उत्पादन और कर राजस्व दोनों प्रभावित होने शुरू हो चुके थे। ऐसे में सरकारी कर्ज में मात्र 12 लाख करोड़ रुपए की वृद्धि के बावजूद जीडीपी के प्रतिशत के रूप में सरकारी कर्ज 3 प्रतिशत बिन्दु ज्यादा होकर 51 प्रतिशत तक पहुंच गया था। वर्ष 2020-21 पूरे तौर पर कोरोना प्रभावित था, जिसमें मौद्रिक जीडीपी भी 2 लाख करोड़ रुपए घट गई थी, लेकिन कोरोना से गरीबों एवं अन्य प्रभावित वर्गों को राहत देने और अन्यान्य प्रकार के खर्च बढऩे के कारण सरकारी कर्ज और देनदारियां 18 लाख करोड़ रुपए बढ़ गई थी। इसके कारण सरकारी कर्ज और देनदारियां जीडीपी के प्रतिशत के रूप में 61 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। वर्ष 2023-24 के बजट अनुमानों के अनुसार सरकारी ऋण कुल जीडीपी का मात्र 56 प्रतिशत तक घट जाएगा। कर्ज निजी हो अथवा सार्वजनिक, इसके साथ उसके ब्याज और मूलधन की देनदारी जुड़ी होती है। जहां तक सरकारों का सवाल है, सरकारें लगातार ऋण लेती हैं और यह ऋण उत्तरोत्तर तौर पर बढ़ता ही जाता है। गौरतलब है कि 1950-51 में सरकार का कुल कर्ज और अन्य देनदारियां मात्र 2865.4 करोड़ रुपए ही थी, जो 2022-23 के संशोधित अनुमानों के अनुसार 152.6 लाख करोड़ रुपए पहुंच गई। वर्ष 2023-24 के बजट में ब्याज और मूल वापसी हेतु लगभग 10.8 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया है, जो सरकार के कुल खर्च का 24 प्रतिशत है। वर्ष 2022-23 के संशोधित अनुमानों के अनुसार यह 9.4 लाख करोड़ रुपए था, जो कुल बजट का 22.4 प्रतिशत ही था। समझा जा सकता है कि साल दर साल बढ़ती ब्याज और मूल की अदायगी सरकार के चालू राजस्व से पूरी नहीं हो पाती और इसलिए ब्याज और कर्ज की अदायगी के लिए भी और अधिक ऋण लेना पड़ता है। लेकिन यहां यह भी देखना होगा कि क्या अकेले भारत सरकार ही ऋण लेती है? यह भी देखना होगा कि सार्वजनिक ऋण के संदर्भ में दुनिया के दूसरे मुल्कों की तुलना में हमारी क्या स्थिति है।

अन्य देशों की स्थिति : गौरतलब है कि हर मुल्क की जीडीपी अलग-अलग है। अमरीका की जीडीपी भारत की जीडीपी से कई गुणा ज्यादा है और कई मुल्कों की जीडीपी भारत की जीडीपी से कई गुणा कम है। इसलिए हमें हर देश के सरकारी ऋण एवं अन्य देनदारियों को वहां की जीडीपी के अनुपात में देखना पड़ेगा। इस संदर्भ में यदि दुनिया की 5 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को देखा जाए तो आईएमएफ के अनुसार वर्ष 2021 में अमरीका में सरकारी ऋण जीडीपी का 122 प्रतिशत है, जापान का 221.3 प्रतिशत और भारत में मात्र 54.3 प्रतिशत था। हालांकि आईएमएफ के पास चीन का आंकड़ा नहीं है, अन्य वैश्विक अनुमानों के अनुसार यह 79.2 प्रतिशत था। केवल जर्मनी का कज़ऱ् जीडीपी अनुपात भारत से थोड़ा कम यानी 46.3 प्रतिशत था। कोरोना काल में भारत ही नहीं दुनिया के सभी देशों में जीडीपी के प्रतिशत के रूप में सरकारी कर्ज में वृद्धि हुई थी। इसका कारण यह था कि एक ओर कोरोना के दौरान न केवल जीडीपी सिकुड़ गई थी, बल्कि सरकारी राजस्व भारी रूप से घट गया था और समाज के कमजोर वर्गों को सहायता और राहत देने के लिए सरकारों का खर्च भी बढ़ गया था। अमरीका में वर्ष 2019 में सरकारी ऋण, जो जीडीपी के प्रतिशत के रूप में मात्र 93.1 प्रतिशत था, अब बढक़र 122 प्रतिशत तक पहुंच गया। यही स्थिति कमोबेश अन्य देशों की भी रही। समझा जा सकता है कि सरकारों की समाज के प्रति जिम्मेदारी के निर्वहन में जब कराधान आदि से काम नहीं चल पाता है, तो ऐसे में सरकारों को कर्ज लेना ही पड़ता है। लेकिन उस मामले में सरकारी कर्ज के जीडीपी के अनुपात में देखा जाए तो भारत सरकार का कुल कर्ज एवं देनदारियां दुनिया के अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में खासी कम हैं। यही नहीं अधिकांश छोटी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भी भारत का उधार-जीडीपी अनुपात काफी कम है। हालांकि भारत में राजकोषीय संतुलन के कारण सरकारी कर्ज व अन्य देनदारियों का जीडीपी के अनुपात में 50 प्रतिशत तक बना रहा, लेकिन पूर्व में भी और हाल ही में भी यह अनुपात बढ़ा है, जो स्थिति सामान्य होने पर फिर कम हो सकता है।

सरकारी बजट पर कम कैसे हो बोझ : यह तो सही है कि जनकल्याण ही नहीं पूंजी निर्माण के लिए भी सरकारों को ऋण लेना पड़ता है और टैक्स जीडीपी अनुपात बढ़ाने की कठिनाइयों के चलते, समय की जरूरतों के साथ-साथ सरकारी कज़ऱ् बढ़ता भी जाता है। ऐसे में आर्थिक विश्लेषकों और नीति-निर्माताओं की चिंता यह होती है कि सरकारी बजट पर इसका प्रभाव कैसे कम किया जाए। ब्याज की अदायगी, सरकारी बजट पर प्रभाव डालती है। इस वर्ष भी ब्याज और मूल की अदायगी पर हमारे कुल सरकारी खर्च का 24 प्रतिशत इस्तेमाल हो रहा है। ऐसे में इस बोझ को कैसे कम किया जा सकता है। सरकारी ऋण के ब्याज और मूल अदायगी के बोझ को कम करने का एक ही मार्ग है, ब्याज दरों में कमी। यह सर्वविदित ही है कि भारत में ब्याज दरें, अमरीका और यूरोपीय देशों की तुलना में खासी अधिक रही हैं। भारत में सरकारी बांडों पर सरकार को लगभग 7 प्रतिशत ब्याज चुकाना पड़ता है। गौरतलब है कि मोटे तौर पर यह ब्याज दर रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित ‘बैंक दर’ पर निर्भर करती है। सामान्य तौर पर ‘बैंक दर’ ऊंचा रहने का प्रमुख कारण महंगाई की ऊंची दर होती है। महंगाई की ऊंची दर के कारण ‘बैंक दर’ को ऊंचा रखने की मजबूरी इसलिए होती है कि बचत कर्ताओं को दी जाने वाली ब्याज में महंगाई की भी भरपाई करनी पड़ती है। आज चूंकि महंगाई की दर लगभग 6 प्रतिशत के आसपास है, बैंक दर 6.5 प्रतिशत बनी हुई है। इसलिए सरकार ये बांड ऊंची ब्याज दर पर ही जारी कर सकती है। लेकिन यदि महंगाई दर कम हो जाए तो सरकार नए ऋण कम ब्याज पर ले सकती है, जिससे सरकारी ऋण का बोझ कम हो सकता है। पूर्व में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान जब महंगाई दर 3 प्रतिशत के आसपास पहुंच गई थी, सरकार ने न केवल कम ब्याज पर बांड बेचे, बल्कि इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण के लिए भी काफी कम ब्याज पर कर्ज लिया गया। कई मामलों में पुराने कर्ज चुका कर नए ऋण कम ब्याज पर लिए जा सके थे। ऐसे में सरकार पर ऋण का बोझ कम हो गया था। कहा जा सकता है कि सरकारी कर्ज के बोझ को कम करने हेतु ब्याज दरों में कमी और उसके लिए महंगाई पर अंकुश जरूरी होगा।

डा. अश्वनी महाजन

कालेज प्रोफेसर


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