बजट केवल खुशामद नहीं

By: Mar 17th, 2023 12:05 am

हंगामा तो होगा क्योंकि हम कह रहे, शुक्र है कि गुम बहस में कह रहे। बहाना कुछ भी हो हिमाचल कम से कम यह सोचने पर मजबूर तो हुआ कि सरकार को भी वित्तीय अनुशासन में रहकर फैसलों की तहजीब बनानी होगी। क्या चुनावी मोड में सरकारें इतनी उदार हो सकती हैं कि हर फैसला मोहर बनकर तसदीक कर दे कि फलां सरकार ने हिमाचल का नक्शा बदल दिया। बेशक खारिज हुए 920 संस्थान एक बहुत बड़ा आंकड़ा है, लेकिन टहनियां रोप कर फूल नहीं उगते। विकास का बीजारोपण आर्थिक हिसाब और वित्तीय रखरखाव पर निर्भर करता है। वर्तमान सरकार जिस आर्थिक पिच पर खड़ी है, वहां प्रश्र उठाने की मौलिकता पहली बार यह बता रही है कि बाउंडरी के भीतर रह कर भी गेंदबाजी से कुछ रिकार्ड अर्जित किए जा सकते हैं। हम इसे पक्ष या विपक्ष समझें, तो भाजपा का आक्रोश सरकार की निरंतरता से सवाल कर रहा है।

इसके साथ स्वाभिमान और अतीत में एक सरकार की राजनीतिक मिलकीयत में मापी गई जमीन का फैसला पलटने जैसा विवाद पैदा किया जा सकता है, लेकिन नैतिकता की दृष्टि से ऐन चुनाव के वक्त घोषणाओं की लोरियां अव्यावहारिक तथा संदेहास्पद क्यों न मानी जाएं। सवाल तो उन परिपाटियों से भी है जो पिछले कई चुनावों से सरकार में होने को इसी तरह निपटाते हुए बंदरबांट कर रही हैं। यही वजह है कि स्कूल है, तो बच्चे नहीं। बच्चे हैं, तो मास्टर नहीं। अस्पताल है, तो डाक्टर नहीं। डाक्टर है, तो मरीज को इलाज के लिए अन्यत्र धकेला जा रहा है। लगातार तीन दिन से विपक्ष अपनी राजनीतिक आरजू में डिनोटिफाई संस्थानों का पक्षधर बनकर सरकार को घेर रहा है। ऐसे में जनता के सामने पहली बार यह प्रश्र उठा है कि क्या कभी प्रदेश के फैसले आर्थिक औकात देखकर भी होंगे या हमें नुमाइशी स्कूल चाहिएं, शिक्षा नहीं। बात बजट से भी आगे उन ख्वाहिशों की हो चली है जो राजनीतिक प्रभाव से सारे अर्थतंत्र का कचूमर निकाल रही हैं। हिमाचल में कमोबेश हर सरकार ने जरूरत से कहीं ज्यादा और औचित्य से बाहर निकलकर नए कार्यालय व संस्थान खोल दिए, लेकिन किसी ने बाद में झांकने की कोशिश नहीं की कि इनका सदुपयोग कैसे होगा या इनके कारण कार्यसंस्कृति कितनी सुधरी है।

सवाल यह भी है कि मात्रात्मक प्रसार ने सरकारी दक्षता से गुणवत्ता छीन ली। कभी ऐसा ऑडिट नहीं हुआ कि इतने बड़े ढांचे के बावजूद प्रदेश नाकामयाब क्यों हो रहा है। हर मैरिट खिसक कर क्यों निजी क्षेत्र के नाम हो रही है या बेहतर इलाज की रिपोर्ट क्यों सरकारी मेडिकल कालेज तक खारिज होकर किसी निजी अस्पताल के नाम क्यों हो रही। अरबों खर्च करने के बावजूद पूरे प्रदेश की सरकारी इमारतों की दीवारें क्यों कांप रहीं। सरकारी वास्तुकला कब पारंगत होकर यह बता पाएगी कि हमने भी भविष्य के स्तंभ खड़े किए हैं। जलशक्ति विभाग ही अपनी पेयजल आपूर्ति का मुआयना कर ले, तो पता चल जाएगा कितनी परियोजनाएं बिना फिल्टरेशन के ही पानी पिला रही हैं। हिमाचल की आर्थिकी को किसान के खेत या बागबान के बागीचे पर देखते, तो सबसे बड़ी बहस सिंचाई परियोजनाओं, आवारा पशुओं, बंदरों, माल ढुलाई कोरिडोर या रोप-वे पर होती। प्रदेश को बेरोजगार बना रहे शिक्षा संस्थानों की कमजोरियों पर बहस करते या उन विकल्पों पर विचार करते जो बीबीएन जैसे औद्योगिक केंद्र को सुदृढ़ करने में सहायक होते। क्या विधानसभा से बहिर्गमन कभी यह पूछने का दुस्साहस करेगा कि वर्षों बाद भी हिमाचल में एक अदद आईटी पार्क क्यों नहीं बना, क्यों चौदह साल बाद भी केंद्रीय विश्वविद्यालय उधार के भवनों में झूल रहा है। आश्चर्य यह कि हिमाचल की बहस भी प्रदेश पर निगाह डालती है, तो कई क्षेत्रवाद बाहर निकल आते हैं और यह भी कि हर बजट की आंख में सरकारी कर्मचारी-अधिकारियों की पगार और अधिकार जैसे हुजूम में अपनों की पहचान होती है। ऐसे में भले ही मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू पार्टी की गारंटियों से बंधे हैं, लेकिन बजट केवल खुशामद नहीं हो सकता।

यह पहला अवसर है और जिस तरह सुक्खू सरकार ने अपने आईने में व्यवस्था परिवर्तन का नारा चस्पां किया है, आज का बजट एक नई तासीर पेश कर सकता है। सरकार अगर आर्थिक दिशा के रास्ते बदल पाई, वित्तीय व्यवस्था की हकीकत में कुछ जोड़ पाई या कठिन फैसलों की ईमानदारी में नैतिकता जोड़ पाई, तो एक नई इबारत में जनता को भी कुछ कारगर संदेश मिलेंगे। आज तक बहस के बजाय राजनीतिक प्राथिमकताओं को साध्य बना कर जनता के सरोकारों को अफीम चटा कर रखा गया। क्या अपने बजट के सरोकारों के साथ सुखविंदर सुक्खू जनता के समर्थन को जुटा पाएंगे, यह लिखावट नहीं आर्थिक दीवारों पर लिखी गई हिमाचल की स्थिति तथा आत्मविश्लेषण की तहरीर को आत्मसात करने की अनिवार्यता भी रहेगी। सदन की बहस, राज्य की वास्तविक स्थिति और परिवर्तन की इच्छाशक्ति के प्रदर्शन के लिए आज का बजट, अपना योगदान सार्थक कर सकता है।


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