कचरे के डब्बे

By: Mar 21st, 2023 12:05 am

एक सहज सवाल है दुनिया में कचरे के कितने डब्बे? इस सवाल का सीधा सा जवाब है, जितने सिर उतने डब्बे। हो सकता है आपको यह उत्तर अटपटा लगे। लेकिन हक़ीक़त यही है कि जितने आदमी, उतने डब्बे। अगर यक़ीन न हो तो आप थोड़ी देर पहले आप शर्मा जी के साथ हुई अपनी उस बहस को ले लें, जिसमें आप बिना कुछ सोचे-समझे बहुत कुछ बोल गए थे। जो कचरा आपके भीतर था, उसे शर्मा जी के सिर पर बिखेरने के बाद आप हलके होकर आगे बढ़ लिए। न…न… मेरे यह बताने पर कृपया ग़ुस्से में और कचरा न बिखेरें। पर देखा! आपने मौक़ा मिलते ही यहाँ भी कचरा बिखेरना शुरू कर दिया। दरअसल हम अपने भीतर कचरे के इतने पहाड़ इक_ा कर लेते हैं कि जहां भी अनुकूल या प्रतिकूल हवा चलती है, कचरा उडऩे लगता है। प्रसन्न हों तो कचरा उड़ाते हैं, परेशान हों तो कचरा फैंकते हैं, दु:खी हों तो कचरा करते हैं और दार्शनिक हों तो कचरा बिखेरते हैं। बस, भावानुसार कचरे की मात्रा और कचरा करने का अन्दाज़ बदल जाता है।

लेकिन भीतर का कचरा है कि कम होता ही नहीं। आदमी उम्र भर कचरा जमा करता और बिखेरता चला जाता है। वैसे तो सनातन दर्शन कहता है कि यह कचरा ही चौरासी का मूल है। पर पता होने के बावजूद आदमी कचरा होने और करने से बाज़ नहीं आता। कचरे की कई कि़स्में होती हैं, जो आदमी की फितरत के हिसाब से जमा होती और फैलती रहती हैं। किसी के भीतर स्टेटस का कचरा होता है तो किसी के भीतर धन का। किसी के भीतर चमड़े की ख़ूबसूरती का कचरा भरा होता है तो किसी के भीतर अपनी विद्वता का। शायद ही कोई डिब्बा खाली मिले। वर्ना, सभी डिब्बों के लेवल भले अलग हों, पर कचरे के ढेर कुबेर के खज़़ाने की तरह कभी खत्म नहीं होते। किसी के एक हाथ मारते ही आदमी टनों कचरा उगल देता है। हैरानगी तो तब होती है, जब किसी के हाथ मारने के बाद भी कोई कचरा नहीं उंडेलता। पर यह कोई गॉरन्टी नहीं कि जो कचरा यहां नहीं बिखरा, वह कहीं और न बिखरे। हो सकता है कि मजबूरी में डब्बे का ढक्कन खोलने का मौक़ा न मिला हो। पर अवसर मिलते ही आदमी एक जगह का कूड़ा दूसरी और बिखेरने में वक्त नहीं गँवाता। उदाहरण के लिए बॉस के सामने सही बात पर भी डाँट खाने वाला आदमी मौक़ा मिलते ही अपने से जूनियर या घर पहुँचते ही बीवी-बच्चों के सामने कचरे का डिब्बा बन जाता है।

कई डब्बों पर पद का इतना असर होता है कि अगर वे किसी समिति की बैठक की अध्यक्षता कर रहे हों तो उनका पहला सवाल होता है कि बैठक में भाग लेने वाले उसके समकक्ष हैं या नहीं। उदाहरण के लिए अगर कोई डब्बा भारत सरकार का सचिव हो तो उसका पहला सवाल होगा कि समिति की संरचना का आधार क्या है? अपनी हैसियत बताने के लिए यह कचरे का डब्बा बैठक का कचरा कर सकता है। इसी तरह राजनीति में फैले डब्बों को किसी भी स्थल पर कचरा फैलाने का पूरा हक़ है। फिर चाहे वह संसद हो या सडक़। जो डब्बे विपक्ष में रहते हुए भरपूर कूड़ा बिखेरते हैं, सत्ता में आते ही मर्यादाओं की दुहाई देने लगते हैं। पर मज़ा तो तब आता है, जब ये सत्ताई डब्बे किसी जन सभा में भरपूर कचरा बिखेरते हैं और उनके कचरे को आत्मसात करते हुए लोग भरपूर तालियाँ बजाते हैं। ये राजनीतिक कचरे के डब्बे तालियों का आनन्द लेते हुए पूरे गर्व के साथ ऐतिहासिक तथ्यों और सामान्य ज्ञान का कचरा करते हैं। इतिहास में झाँकने पर एलेक्जेंडर, तैमूर, मोहम्मद ग़ौरी, महमूद गज़ऩवी, औरंगज़ेब, हिटलर और स्टालिन से लेकर वर्तमान में पुतिन, शी जिऩपिंग और किम जोंग उन तक कचरे के इतने डब्बे सामने आते हैं कि उनके सामने वक्त का झाड़ू भी छोटा पड़ जाता है। पर हो सकता है कि यूक्रेन में फैल रहा कचरा जल्द ही पूरी दुनिया को कचरे का डब्बा बना दे।


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