पानी की गुणवत्ता और संरक्षण का मसला

By: Mar 21st, 2023 12:05 am

पारंपरिक पानी के स्त्रोत हिमाचल में पानी की मांग और पूर्ति के संतुलन में महत्त्वपूर्ण रोल अदा करते थे जो नल की संस्कृति ने खत्म कर दिए हैं। गरीब और कमजोर वर्ग के लोग इससे ज्यादा प्रभावित हैं…

जल को प्राय: जीवन का टॉनिक कहा गया है। इसमें ऐसे अवयव होते हैं जो मानव के लिए बहुत जरूरी होते हैं। मनुष्य के लिए जल के उपलब्ध स्रोतों में से 2.5 प्रतिशत मीठा पानी ही इस भूमि पर है जिसमें से 1 प्रतिशत ही मानव जाति के लिए उपलब्ध है। अधिकतम मात्रा ग्लेशियरों तथा बर्फ की चोटियों में जमा है। झीलें, नदियां और स्प्रिंग ही धरातलीय जल संसाधन हैं जिनसे मानव के उपयोग के लिए मीठा पानी मिलता है। इनमें से झीलें चाहे वो प्राकृतिक हों या मनुष्य द्वारा निर्मित हैं, मुख्य पानी के साधन हैं। मानवता का सामाजिक और आर्थिक विकास पानी पर बहुत अधिक निर्भर करता है। पीने का पानी मानव कल्याण के लिए आवश्यक है। साथ-साथ निर्वाह का एक बुनियादी साधन है। इसके बिना पोषण, वायु और मानव जाति का कल्याण करना असंभव होता है। मीठा पानी ग्रह के कुल पानी का छोटा सा अंश ही मानव उपयोग के लिए उपयुक्त है। यह आपूर्ति अपेक्षाकृत स्थिर रही है, लेकिन बढ़ती मानव आबादी ने मांग बढ़ा दी है और प्रतिस्पर्धा पैदा कर दी है। पानी की कमी एक वास्तविक समस्या है। अगर पानी का बुद्धिमता से उपयोग नहीं किया गया तो भविष्य में इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। धरती पर बहुत से पानी के स्त्रोत हैं परंतु वो सभी पीने के योग्य नहीं हैं।

उपलब्ध पानी की गुणवत्ता प्रकृति तथा भिन्न-भिन्न मानव जनित कारकों जैसे निर्माण, कूड़ा निपटान, डंपिंग, कृषि तथा अन्य गतिविधियों से प्रभावित होती है। समय की जरूरत है कि पानी की गुणवत्ता को सुधारा जाए और पानी के स्त्रोतों के प्रदूषण के कारकों को पहचान करके उनको दूर करने के तरीकों को अपना करके मानव जाति के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए शुद्ध जल उपलब्ध कराया जाए। जो जल के स्रोत प्रदूषण के कारण उपयोग में नहीं हैं, उनको प्रदूषण रहित करके पानी की उपलब्धता तथा गुणवत्ता दोनों को बढ़ाया जा सकता है। जो पानी जमीन में रिस कर आता है, उसमें कई घुलनशील व अघुलनशील पदार्थ होते हैं जो पानी की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं तथा पानी को पीने के अयोग्य कर देते हैं। इससे पानी की आपूर्ति तथा मांग में असंतुलन पैदा हो जाता है। इस जल को नई तकनीकों से छानकर तथा पानी की प्रयोगशालाएं जांच करने के बाद जनता को पानी की आपूर्ति करनी चाहिए।

भारत में पानी की प्रयोगशालाएं नाममात्र की हैं। जल जनित रोग, पानी में खेतों से रसायन, उद्योगों से खतरनाक रसायन, प्लास्टिक, कचरे के निपटान को जल स्त्रोतों में करने से उत्पन्न होते हैं जिसके बारे में हम हर दिन अखबारों में पढ़ते हैं कि पीलिया रोग के कारण शहर व गांव प्रभावित हैं तथा अन्य जल जनित रोगों से बहुत से शहर और गांव आमतौर पर प्रभावित होते रहते हैं। इससे विश्व स्तर पर हर वर्ष 1863 मिलियन दिन बच्चों के स्कूल की अनुपस्थिति के, जल जनित रोगों के कारण होते हैं तथा 1.5 बिलियन लोग जल जनित रोगों से ग्रसित होते हैं। प्राकृतिक झीलों का प्राकृतिक प्रवाह जिससे वे खुद साफ हो जाती हैं, मनुष्य की गतिविधियों से प्रभावित या अवरुद्ध हुआ है तथा बहुत से भारी धातु तथा पोषक तत्व जमा हो जाते हैं। जल विभाग को इनका प्रयोगशालाओं में सही मूल्यांकन तथा उपचार करके ही पानी को जनता के उपयोग के लिए वितरित करना चाहिए। भारत में पानी के विभिन्न स्त्रोतों के प्रबंधन के लिए बहुत से विभाग हैं जैसे पर्यावरण और वन मंत्रालय, जल शक्ति विभाग, जल संसाधन विभाग, केंद्रीय व राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और सरकार द्वारा बनाई गई नीतियां और नियम जिनके अनुसार जल प्रबंधन किया जाता है तथा प्रदूषण का नियंत्रण किया जाता है। परंतु पानी में प्रदूषण की मात्रा दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है जो जनता की सेहत के साथ खिलवाड़ है। हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में जल के संरक्षण एवं गुणवत्ता की स्थिति के बारे में लिखें तो यह संतोषजनक नहीं है। हिमाचल में विशाल जल स्त्रोत ग्लेशियरों के रूप में उपलब्ध हैं, परंतु भूजल के स्त्रोत सीमित मात्रा में हैं। हिमाचल में पानी का उपभोग मनुष्य और सिंचाई के लिए है। पानी की उपलब्धता हिमाचल में 800 ग्लेशियरों से होती है। हिमाचल में भूजल स्त्रोत हैं, नदियां, झीलें, आर्द्रभूमि क्षेत्र आदि। कागंड़ा, ऊना, बिलासपुर, मंडी, सोलन और सिरमौर आदि के घाटी क्षेत्र भूजल पर निर्भर हैं जिसका दोहन खुले कुओं, ट्यूबवेल, इनफिल्ट्रेशन गैलरी द्वारा किया जाता है।

पारंपरिक पानी के स्त्रोत हिमाचल में पानी की मांग और पूर्ति के संतुलन में महत्वपूर्ण रोल अदा करते थे जो नल की संस्कृति ने खत्म कर दिए हैं। गरीब और कमजोर वर्ग के लोग इससे ज्यादा प्रभावित हैं। इन पारंपरिक स्रोतों में झरने, कूहलें, बावड़ी, तालाब व खाती आदि हैं। यह पारंपरिक स्रोत पानी की मांग को शहर और गांव में पूरा करने में सहायता करते थे। इन पारंपरिक प्राकृतिक जल स्त्रोतों की संख्या 10512 गांवों के क्षेत्र में है। इन पारंपरिक स्रोतों का प्रयोग लोग भिन्न-भिन्न उपयोग में करते थे। आने वाले समय में पानी की मांग बढ़ती जाएगी और पानी की मात्रा घटती जाएगी। ऐसे में नलका संस्कृति के चलते उपजी लापरवाही से बचना होगा और इन पारंपरिक स्त्रोतों को संभालना होगा। इनकी तरफ संबंधित विभागों का ध्यान बहुत ही कम है तथा ये खत्म होने की कगार पर हंै। इसके लिए सरकार को एक अलग से ही विभाग सृजित करना होगा ताकि वह पानी के संरक्षण में सर्वे एवं अन्वेषण करे और जो तालाब और झीलें गाद और मिट्टी से भर गई हैं, उनको पुनर्भरण करे ताकि सतही जल का स्तर ऊपर उठे तथा सूखे हुए स्त्रोत दोबारा से भरना शुरू हों। इससे भूमिगत जल तालिका को रिचार्ज करने में मदद मिलेगी। इसके लिए केंद्र सरकार की अमृत सरोवर योजना काफी सहायक है। जल के सरंक्षण के लिए हर वर्ष 22 मार्च को पूरे विश्व में विश्व जल दिवस मनाया जाता है। इस दिन सभी जीवित चीजों के लिए पानी के महत्व पर जागरूकता बढ़ाने और दुनिया भर में लोगों से अपील की जाती है कि पानी को बर्बाद न करें तथा स्वच्छ पेयजल के महत्व और आपूर्ति को स्थाई रूप से प्रबंधित करने का प्रण लिया जाता है। पानी के महत्व के बारे में तात्कालिकता की भावना पैदा करने के लिए 1993 में विश्व जल दिवस उत्सव की स्थापना की गई थी। विश्व जल दिवस 2023 का थीम है त्वरित परिवर्तन। हमें यह समझ लेना चाहिए कि प्राकृतिक जल स्रोतों का संरक्षण जरूरी है।

सत्यपाल वशिष्ठ

स्वतंत्र लेखक


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