हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: Apr 29th, 2023 8:03 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-3

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु
1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
सातवें दशक में सुंदर लोहिया का नाम अच्छे कहानीकारों में लिया जाता है। सुंदर लोहिया ने कहानी लिखना छठे दशक में प्रारंभ कर दिया था। उनकी एक कहानी ‘अधूरी चि_ी’ हिमप्रस्थ में और एक डायरी शैली में लिखी कहानी ‘दरारें’ जबलपुर से प्रकाशित वसुधा (1958) मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। सातवें दशक में कहानीकार लोहिया की व्यापक फलक पर पहचान कायम हुई। उनकी तीन कहानियों ‘उल्टे पंखों वाली जिंदगी’ पंजाबी में, ‘साया’ मराठी में और ‘स्वयंहारा’ का गुजराती में अनुवाद हो चुका है। ‘रोशनी आरा’ और ‘स्वयंहारा’ इस दौर की प्रमुख रचनाएं हैं। लोहिया के पास कहानी कला भी है और प्रस्तुतीकरण के लिए सुगठित भाषा शैली भी। बीहड़, खून का रिश्ता, कोलतार आदि उनकी अनेक कहानियों में इसे देखा जा सकता है। सातवें दशक के इन कहानीकारों में सक्षम संभावनाएं निहित थीं। विभिन्न पत्रिकाओं के माध्यम से कहानी साहित्य को समृद्ध करने वाले बहुत से कहानीकारों के कहानी संग्रह आठवें दशक में आए। कुछ कहानीकारों ने कहानी की पुस्तकों के संपादन किए। इस दशक में हिमाचल के कहानीकारों का कहानी विधा की ओर विशेष लगाव हुआ। उन्होंने हिमाचल प्रदेश के कहानी साहित्य को समृद्ध करने में विशेष योगदान दिया।

आठवें दशक में हिमाचल की हिंदी कहानी नई संभावनाओं को लेकर विकसित होती हुई दिखाई देती है। इस अवधि में बहुत से संपादित कहानी की पुस्तकें भी प्रकाश में आईं, स्वतंत्र कहानी संग्रह अपेक्षाकृत कम ही आए। आठवें दशक के प्रारंभ में सन 1972 में किशोरीलाल वैद्य द्वारा संपादित कहानी संकलन ‘एक कथा परिवेश’ में अ_ारह कहानीकारों की अ_ारह कहानियां हैं। प्रस्तुत संकलन में रतन एस. हिमेश की सिलसिले, सुंदर लोहिया की खून का रिश्ता, खेमराज गुप्त की थुम्बू की राख, सुशील कुमार फुल्ल की अनुपस्थित, संतोषी की एक गीत अधूरा सा, अमिताभ की अनिर्णय, मस्तराम कपूर की अवरोध, नीलमणि उपाध्याय की बाहर भीतर, नरेंद्र राज गुप्त की तलाश, यशवीर धर्माणी की बनती मिटती लहरें, रामकृष्ण कौशल की धुंध, किशोरीलाल वैद्य की नवमी की दहलीज, कैलाश भारद्वाज की हाशिए का आदमी, विजय सहगल की दहलीज, जिय़ा सिद्दक़ी की बोस, सत्य प्रकाश पांडे की परिणति, श्रीनिवास श्रीकांत की मरे हुए एकांत, लै. कर्नल विष्णु शर्मा की फूटी लालटेन कहानियां संकलित हैं। इस संकलन में हिमाचली भूभाग के परिवेश को साकार करने की कोशिश है जो एक लंबे अरसे से यहां के परिवेश का साक्षात्कार करते रहे हैं।
पर्वतीय लोगों के जीवन की नियति प्रस्तुत संकलन की कहानियों में व्यंजित की गई है। हिंदी के प्रख्यात आलोचक डा. बच्चन सिंह ने प्रस्तुत संकलन के संबंध में कहा था ‘अपना परिवेश’ में कम से कम कुछ कहानियों में पहाड़ के अकेलेपन को सर्जनात्मक बनाया गया है किंतु कुछ कहानियों में ‘अपना परिवेश’ को गलत अर्थ में लिया गया है। प्रस्तुत संकलन के प्रकाशन पर समीक्षा करते हुए आलोचक डा. विनय ने लिखा था, ‘पिछले दशक में समकालीन कहानी में एक खास किस्म की चुनौती का स्वर उभरा था और उस स्वर के कारण टूटते संबंधों का एक नया भूगोल तैयार हुआ, किंतु ‘एक कथा परिवेश’ में जिय़ा की बोस, श्रीनिवास की मरे हुए एकांत, नरेंद्र राज गुप्त की अनिर्णय कहानियां ऐसी हैं जो रचना के स्तर पर आधुनिक बोध से काफी हद तक जुड़ी हुई हैं, लेकिन उनमें भी यह बोध प्राथमिक स्थिति में है और रचनाकार के बारे में दूर तक आश्वस्त नहीं करती।’ डा. बच्चन सिंह आधुनिकता के चक्कर में न पडऩे की चेतावनी देते हुए कहते हैं, ‘यहां के साहित्यकार के सामने दूसरा खतरा और है, यदि वे मैदानी चकाचौंध, आधुनिकता के चक्कर में पड़े तो उनका अपना परिवेश अपनी मु_ियों से खिसक जाएगा। पहाड़ों का बोध मैदानों से अलग होता है।

अभी तो हिमाचल पूरी तरह से अन्वेषित नहीं हो पाया, भौगोलिक दृष्टि से भी नहीं। इसका इतिहास, कला, संस्कृति तो बहुत कुछ अछूती है, अन्वेषित नहीं हो पाया है। इसके फूलों, जीव जंतुओं, घाटियों, निवासियों को नाम देना शेष है। पहाड़ों का रूप, रंग, स्वर, वस्तुओं का स्पर्श, जीवन की धडक़न ताज़ा है, उन्हें शब्दबद्ध करना है। अपना परिवेश के साथ हिमाचल के साहित्यकार इस दिशा में पहल कर रहे हैं। इस प्रकार ‘एक कथा परिवेश’ हिमाचल की हिंदी कहानी के इतिहास के प्रारंभिक प्रयासों में महत्वपूर्ण कदम कहा जा सकता है।’ वस्तुत: ‘एक कथा परिवेश’ में संग्रहीत कहानीकारों की कहानियां अपने परिवेश से गहन रूप में संपृक्त हैं। ये कहानियां इस प्रदेश के कहानीकारों की रचना क्षमता, जीवन दृष्टि की विविधता को रेखांकित करती हैं। इस संकलन में संग्रहीत कहानीकारों ने परवर्ती दशकों में अपनी पहचान को और समृद्ध किया।
‘कथा परिवेश’ में सम्मिलित रचनाकार पहले से ही सृजनरत थे। कैलाश भारद्वाज की बहुत सी कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थीं। सन् 1953 में उनकी मौलिक कहानी धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी। सन् 1956 में साप्ताहिक हिंदुस्तान द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में उनकी ‘आंधी’ शीर्षक कहानी अखिल भारतीय स्तर पर पुरस्कृत हुई थी। इसी भांति खेमराज गुप्त सागर भी सन् 1945 से हिंदी कहानी परिदृश्य में अवतरित हो गए थे। सुशील कुमार फुल्ल की पहली कहानी ‘परित्यक्ता’ शीर्षक से सन् 1959 में हिंदी दैनिक में और सारिका के नवंबर 1968 के अंक में उनकी ‘बढ़ता हुआ पानी’ प्रकाशित होकर चर्चित हुई थी। सुंदर लोहिया की कहानी ‘दरारें’ वसुधा में सन् 1958 में प्रकाशित हुई थी।

हिमप्रस्थ के अक्टूबर 1960 के अंक में ‘अधूरा चित्र’ शीर्षक से किशोरी लाल वैद्य की कहानी प्रकाश में आई थी। इसी भांति इस संपादित संग्रह के ज़्यादातर कहानीकार कथा परिवेश में संग्रहीत होने से पूर्व विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे थे। बाद के दशकों में इनमें से बहुत से रचनाकारों के स्वतंत्र कहानी संग्रह प्रकाश में आए और कुछ कहानीकार कहानी सृजन से हट कर उपन्यास, कविता आदि विधाओं की ओर उन्मुख हुए। कथा परिवेश के बाद सन् 1973 में गंगाराम राजी का स्वतंत्र कहानी संग्रह ‘युगों पुराना संगीत’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस संग्रह के प्रकाशन से पूर्व उनकी कहानियां हिमप्रस्थ, मुक्ता, वीर प्रताप, पंजाब केसरी आदि पत्र-पत्रिकाओं में छप रही थी। इस संग्रह में उनकी अंतिम क्षण, नीली साड़ी, भोग, विरह संवेदना, रहस्य, कजली, वह क्यों लौट आया, युगों पुराना संगीत आदि बारह कहानियां संग्रहीत हैं। कहानीकार ने इस संग्रह के आमुख के अंतर्गत स्पष्ट किया है, ‘जीवन में कई घटनाएं, कई मनुष्य इस प्रकार छा जाते हैं कि मनुष्य उन्हें भूल नहीं पाता, मनुष्य को मंजिल तक पहुंचाने की प्रेरणा देते हैं, सहारा देते हैं और मनुष्य क्या से क्या कर जाता है।’ प्रस्तुत संग्रह की संवेदना भूमि प्रेम की आदर्श परिकल्पना, प्रेमी ह्रदय की निश्छल अभिव्यंजना, कर्म निष्ठा आदि से संबद्ध है। लेखक ने विविध कथा सूत्रों के माध्यम से इनकी सहज, सरल शैली में अभिव्यक्ति की है।

गंगाराम राजी के बाद डा. सुशील कुमार फुल्ल हिमाचल के हिंदी कहानी साहित्य में ‘सहज कहानी’ के प्रवर्तक के रूप में सामने आते हैं। हिंदी के प्रख्यात कथाकार प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय ने हंस और नई कहानियां के संपादक रहते हुए अपने संपादकीय लेखन में सहज कहानी पर अनेक लेख लिखे। सन् 1968 में अमृतराय ने इन पत्रिकाओं का स्वामित्व ले लिया और अपने संपादन में इलाहाबाद से प्रकाशित करने लगे। इस पत्रिका में सहज कहानी शीर्षक से संपादकीय लेखों में उन्होंने कहानी के कथ्य, शिल्प और अभिव्यक्ति की सहजता की बात प्रस्तावित की जो कहीं न कहीं नई कहानी और अकहानी के समय खो गई थी। कहानी की विकास यात्रा में उनके संपादकीय लेखों का ऐतिहासिक महत्व है। ‘नई कहानियां’ के संपादकीय में धारावाहिक रूप में छपे लेख बाद में पुस्तक के रूप में ‘आधुनिक भाव बोध की संज्ञा’ शीर्षक से प्रकाशित हैं। अपने संपादकीय लेखों में उन्होंने यह स्पष्ट किया कि ‘हमने सहज कहानी के नाम से एक आंदोलन शुरू करने के ख्याल से यह चर्चा नहीं छेड़ी है। हमें तो बस अच्छी प्राणवान, सरस, सशक्त कहानी से मतलब है। लिखने वाले अच्छी से अच्छी कहानियां लिखें और पढऩे वालों को अच्छी से अच्छी कहानियां पढऩे को मिलें। हम कहानी को नई कहानी, सचेतन कहानी और अकहानी आदि के चौखट्टों से न उस तरह से किसी चौखट्टों में रख कर देखना चाहते हैं। हमारे लिए कहानी की एक ही कसौटी है कि वह कुछ कहती है।’ अमृतराय द्वारा प्रस्तावित कहानी में सहजता का प्रश्न आज भी प्रासंगिक है। हिंदी कहानी को नई कहानी, सचेतन कहानी, समानांतर कहानी, सक्रिय कहानी आदि विभिन्न कहानी आंदोलनों के कारण नए नए नामों से विभूषित किया गया है। डा. सुशील कुमार फुल्ल ने कहानी आंदोलनों की सार्थकता-निरर्थकता को देखते हुए सहज कहानी का प्रतिपादन अन्य कहानी आंदोलनों की तरह किया। ‘सहज कहानियां’ की भूमिका में उन्होंने स्पष्ट किया : कहानी मूलत: कहानी होनी चाहिए जो पाठकों को कथ्य एवं शिल्प दोनों ही दृष्टि से समान रूप से आकर्षित करे। आज की कहानी अपनी सहजता के कारण ही अधिक मार्मिक, अधिक प्रभावान्विति पूर्ण एवं वैविध्य संपन्न है। सहज कहानियां किसी वर्ग विशेष की कहानियां नहीं हैं, वे जीवन की समग्रता की कहानियां हैं। अपने इस लक्ष्य की सिद्धि के लिए उन्होंने ‘सहज कहानियां’ शीर्षक से हिमाचल प्रदेश के कुछ कहानीकारों की कहानियों का सन् 1976 में संपादन किया। इस संग्रह में कांगड़ा लोक साहित्य परिषद के सत्रह सदस्यों की कहानियां संकलित हैं।

इस संकलन में सुधीर महाजन की एक कदम आगे, गौतम शर्मा व्यथित की मुरली, शम्मी शर्मा की छैलो, प्रेम भारद्वाज की निवृत्त, कर्म चंद श्रमिक की बेनूर चेहरे, सोम शर्मा की पहाड़ी झरना, शिव उपाध्याय की धुंधले खाके, राजगोपाल शर्मा की वह मुस्कान, अशोक सरीन की सिसकियां, कुलभूषण कायस्थ की प्यासी आंखें,. रेशम मधुप की रोक न सकी, सुशील कुमार फुल्ल की मां, शेष अवस्थी की अज्ञात शत्रु, ठाकुर शर्मा मजलूम पालमपुरी की अजगर स्वतंत्र हो गया, ओम प्रेमी की अधजली लाश, रमेश शर्मा अरुण की यादों के चिराग और मनोहर सागर पालमपुरी की लोक परलोक कहानियां संकलित हैं। डा. जगमोहन चोपड़ा ने इन कहानियों की समीक्षा करते हुए लिखा है, ‘सहज कहानियां संग्रह की सत्रह कहानियां आम आदमी की तकलीफ की कहानियां हैं। अर्थव्यवस्था और पारस्परिक संबंधों के तनाव की अभिव्यक्ति यहां भी अपने ढंग से दी गई है। फिर भी लगा कि कहानीकार इसमें आदर्शवाद, हृदय परिवर्तन और बीस सूत्रीय कार्यक्रम की यूटोपिया से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं। कुछ लेखकों ने तो कहानियों के बीच आकर खुलेआम उपदेश तक देने में कोई परहेज नहीं किया। फिर भी कुछ जीवन के बिल्कुल पास की कहानियां हैं, आम आदमी को छूती हुई आदमी से आदमी तक की खोज का प्रयत्न इन कहानियों के आम आदमी के माध्यम से हुआ है।’                                                                                          -(शेष भाग अगले अंक में)

प्रेम की ज्योति जला कर जिंदू के इंतजार में देबकू
उपन्यास : देबकू : एक प्रेम कथा
लेखक : मुरारी शर्मा
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन प्रा. लि., गाजियाबाद
कीमत : 350 रुपए

एक लोकगीत से निकल कर उपन्यास की पृष्ठभूमि में इतिहास, संस्कृति, मानवीय उत्कंठा, दर्द और दर्पण के सामने कहानी सामाजिक संवेदना को झांक ले, तो ‘देबकू’ के चरित्र में लेखक मुरारी शर्मा का साहित्यिक सलूक याद किया जाएगा। ‘देबकू – एक प्रेम कथा’ अपने प्रवेश से उपन्यास की दुनिया को अतीत से वर्तमान तक खंगालता है, तो लेखक मुरारी शर्मा वक्त की ऐच्छिक जरूरतों से हटकर कई ऐसे प्रश्न खड़े कर देते हैं, जो लोकगीत से कहीं आगे समाज को फिर से लिखने की कला को जन्म देना है। उपन्यास में कई कैनवास उभरते हैं जहां ‘देबकू’ अपने जीवन के तीन खंडों में विभाजित होकर कभी सपनों की गोद में, कभी जवानी के प्रेम में तो कभी जीवन की स्थिरता के लिए, तीन अलग-अलग पुरुषों के चरित्र में अपना ठोर पाना चाहती है।

इस तरह उसके जीवन में आए भारती, जिंदू और अंत में ठेकेदार गाहिया नरोत्तम केवल संबंधों का प्रश्रय नहीं, बल्कि सामाजिक चरित्र के तीन अंग बनकर दर्ज हो जाते हैं। ‘देबकू’ मानव जीवन में सौंदर्य की प्रतीक, प्रेम की संगिनी और जीवन की साथी के रूप में औरत को निरूपित करती है तथा यह उपन्यास की शक्ति भी है कि इसके भीतर कई कालखंड घूम जाते हैं। परिदृश्य की जरूरतों को समझते हुए उपन्यास एक साथ कई संबोधन कर रहा है। भौगोलिक विषमताओं, पर्वतीय रियासतों के उत्थान-पतन, जागीरदारों की क्रूरता और रियासतों के दुष्चक्रों में पिसता सामाजिक आवरण, सिसकते आर्थिक विषय, जीवन के द्वंद्व और जमीन-जायदाद नियंत्रण के तरीकों पर कहानी अपनी वजह खुद बनाती है।

लेखक बारीकी से नगरोटा के अभिशप्त अध्यायों में गौरव के अतीत को उस आग में खोजता है, जहां ब्राह्मणों के सामूहिक आत्मसंहार की चीखें लोकगीतों में मौजूद हैं। उपन्यास के भीतर मंडी का ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक मुआयना होता है, तो प्रेम के शृंगार में लोकगीत भी कहीं ब्यास नदी की तरह आज भी मंडी के मर्म को स्पर्श कर रहा है, ‘अखियां ता तेरी ओ देबकू आंबे री फाडिय़ां/हो दंद मोतिया रे दाणे…।’ देबकू अपने भीतर के एहसास में भले ही भारती को कच्ची उम्र में ही भागकर पति बना लेती है या जीवन के ठहराव को मंजिल बना लेने के लिए अंत में ठेकेदार गाहिया नरोत्तम की छठी पत्नी बन जाती है, लेकिन उसके प्रेम की ज्योति जिंदू का आज भी इस लोकगीत में इंतजार कर रही है, ‘हाथा लैंदी लोटकू देबकू काच्छा पांदी घड़ोलू/हो चल मुइए नौणा पर जाणा…/अग्गे-अग्गे हांडदी देबकू पीछे मुड़ी देखदी/हो जिंदू प्यारा न•ारी नी आंवदा/जिंद मेरिए हो जिंदू प्यारा न•ारी नी आंवदा…।’
उपन्यास के भीतर प्रश्न उकेरते मुरारी शर्मा, औरत के वजूद की शक्तियों को चोटिल नहीं होने देते। वह मेले में भागती, पति को खोकर प्रेम की पींगे बढ़ाती या अंत में जीवन की शरण में पुरुष का साथ पाती देबकू के यथार्थ में सामाजिक कसौटियों के विरुद्ध उस साहस का समर्थन करते हैं जिसे जीकर देबकू लोकगीत बन गई। देबकू अपने समय से पहले औरत की अभिव्यक्ति, स्वभाव और संवेदना में भले ही एक युग जी गई, लेकिन समाज अगर स्वतंत्र या ईमानदार होता तो वह अपने हाथ में प्रेम की हथकड़ी पहनकर सडक़ पर रोड़ी कूटने की सजा नहीं पाती।

लेखक उपन्यास को शोधपरक बनाते हुए इतिहास की कई कडिय़ों और उनके भीतर के घटनाक्रम को चुनते-बुनते कई शब्दार्थ जोड़ते हैं, ‘जब मन का मौसम उजाड़ और पतझड़ का हो, तो वसंत की बहार भी उजाड़ लगती है, अब तो जैसे इस किस्से को तितलियों के पंख लग गए थे, अगर दोनों आपस में शादी कर लेते हैं तो किसी के पेट में क्यों आग लगती है, अब खालड़ू का मुंह तो सुतड़ी से बांधा जा सकता है, पर लोगों के मुंह कैसे बंद करें।’

उपन्यास कहीं इतिहास का सागर, कहीं लोक कथा की गागर, कहीं प्रेम के सागर में डूबा हुआ, कहीं औरत के प्रसंगों में व्यथित करता है, तो कहीं अपनी चिंताएं बटोर लेता है। उपन्यास परिस्थितियों में संयोग जोड़ता, संस्कृति का कलश भरता हुआ बांठड़ा बन जाता है, ‘अब तक देबकू ने बहुत कुछ सहा था। उसे जिंदू का प्रेम मिला, तो भारती की दुत्कार और गांव वालों का पहले अपनत्व और फिर उन्हीं की ओर से उपेक्षा और नफरत भी देबकू के हिस्से आई। इस घुटन के बाद शहर में गाहिया नरोत्तम का साथ पाकर भी देबकू अपने लिए, केवल अपने लिए गाहिया की छठी पत्नी बनकर भी वह रिश्ता न पा सकी, जो एक ब्याहता पत्नी का होता है।’                                       -निर्मल असो

पुस्तक समीक्षा : संस्कार लोक गीतों का सुंदर गुलदस्ता
मंडी में जन्मी लेखिका धर्मी देवी बड़पग्गा संस्कार लोक गीतों का सुंदर गुलदस्ता लेकर आई हैं। उनकी पुस्तक ‘हिमाचल प्रदेश के मंडयाली संस्कार लोक गीत’ नाम से प्रकाशित हुई है। गजेंद्रा प्रिंटिंग प्रेस मंडी से प्रकाशित इस पुस्तक की कीमत मात्र दो सौ रुपए (सजिल्द) है। लेखक मुरारी शर्मा इस किताब पर टिप्पणी करते हुए लोक गीतों को मानव जीवन के उल्लास, उमंगों और करुणा की अभिव्यक्ति कहते हैं। इसी तरह डा. विजय विशाल कहते हैं कि लोक गीत श्रम और सौंदर्य से उपजते हैं।

इस पुस्तक में मंडयाली संस्कार गीत (बधावा गीत), गणपति (नवग्रह) पूजन (सांद), दूल्हे/दुल्हन को तेल डालने के समय गाए जाने वाले गीत, बोटणा (हल्दी) लगाणा, नहौण का गीत, भींरडी के समय का गीत और दूल्हे के सिंगार का गीत संग्रहित किए गए हैं। इसके अलावा भयागड़ा गीत, बेटी द्वारा मायके और ससुराल के वर्णन पर लोक गीत, भयागड़ा/लोक गीत, बधई/भ्यई गीत, लाहणियां, घींघे का गीत/लाहणियां, दूल्हे के लाड़ी के घर पहुंचने पर बारातियों पर लाहणियों की बौछार और बेटी का विदाई गीत भी संकलित किए गए हैं। यह पुस्तक संग्रहणीय है। लोक संस्कृति में रुचि रखने वाले लोगों के अलावा आम लोगों के लिए भी यह किताब अमूल्य है। -फीचर डेस्क


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