‘दोस्ती’ में चौकसी

By: Jun 3rd, 2023 12:05 am

भारत और नेपाल के संबंध ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रहे हैं, लिहाजा रोटी और बेटी के रिश्ते स्वाभाविक हैं। नेपाल प्राचीन ‘अखंड भारत’ का ही एक हिस्सा था, लेकिन अब नेपाली राजनीतिज्ञ और आम नागरिक भी इस ‘ऐतिहासिकता’ से चिढ़ते हैं। अब मानचित्र के आधार पर भी रिश्तों के विश्लेषण किए जा रहे हैं। बल्कि भारत के ही कुछ हिस्सों पर नेपाल आजकल दावा जताने लगा है। यह एक नई किस्म का विवाद पैदा किया जा रहा है। नेपाल का अस्तित्व, भारत के बिना, आधा-अधूरा और डांवाडोल है, यह सोच और अनुभव करने के बाद नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ भारत आए हैं। बीती दिसंबर में एक बार फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रचंड ने अपना पहला विदेशी प्रवास भारत में किया है। प्रचंड का यह दौरा द्विपक्षीय संबंधों और संवाद की तुलना में कहीं ज्यादा अहम है, क्योंकि 2008 में पहली बार नेपाली प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रचंड की प्राथमिकता चीन की ओर थी। शायद कम्युनिस्ट होने के कारण भी उनकी सोच चीन-केंद्रित थी, लेकिन तब से लेकर आज तक भारत-नेपाल-चीन के समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं। भारत और चीन के संबंधों में कड़वाहट है। तनाव है। 2020 में लद्दाख की गलवान घाटी के संघर्ष के बाद टकराव और ज्यादा बढ़ा है। दोनों पक्षों के हजारों सैनिक लंबे अंतराल से एक-दूसरे के सामने तैनात हैं।

चीन घुसपैठ और अतिक्रमण से बाज नहीं आ रहा है। नेपाल लगातार महसूस करता रहा है कि वह दो महाकाय और शक्तिशाली पड़ोसियों के बीच फंस गया है। एक और समीकरण नई मुश्किलें और पेचीदगियां पैदा कर रहा है। नेपाल अमरीका और चीन के बीच नए ‘रणनीतिक युद्धक्षेत्र’ के तौर पर उभर रहा है। अमरीका ने नेपाल को 50 करोड़ डॉलर का अनुदान दिया है, लेकिन नेपाल ने ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ आदि के तहत चीन के साथ जिन परियोजनाओं के समझौतों पर हस्ताक्षर कर रखे हैं, अब उन्हें यथाशीघ्र पूरा करने का दबाव चीन बढ़ा रहा है। नेपाल इसे नजरअंदाज नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि दिल्ली और बीजिंग से अच्छे और निर्बाध संबंध बरकरार रखना काठमांडू की मजबूरी है। प्रधानमंत्री प्रचंड इन तमाम परिस्थितियों के मद्देनजर भारत आए हैं। इस प्रवास के दौरान दोनों देशों ने सात महत्त्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं। बेशक नेपाल भारत का सहोदर-सा है, लिहाजा 1950 से भारत-नेपाल मैत्री एवं शांति संधि दोनों पक्षों के संबंधों का आधार है, लेकिन कुछ फैसलों और रणनीति के मद्देनजर भारत चौकस है। प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में पदभार संभालने के तीन माह बाद ही नेपाल का दौरा किया था। उस प्रथम विदेशी प्रवास के दौरान भारत ने सद्भावना के जो संबंध कायम किए थे, 2015 में नेपाल की नाकेबंदी ने उन्हें पूरी तरह पलट दिया था, लिहाजा भारत इस बार कुछ ज्यादा ही चौकसी बरत रहा है। नेपाल की प्रबल इच्छा थी कि भारत उससे ज्यादा बिजली का आयात करे, लिहाजा तय किया गया है कि भारत नेपाल से 10,000 मेगावाट बिजली का आयात करेगा। भारत-नेपाल के बीच नए रेल लिंक बनेंगे। भारतीय रेल संस्थानों में नेपाली रेलकर्मियों को प्रशिक्षण भी दिया जाएगा। मोतिहारी पाइप लाइन के प्रभाव को देखते हुए इसे चितवन तक बढ़ाने का फैसला किया गया है। सिलीगुड़ी से पूर्वी नेपाल तक एक और पाइप लाइन बिछाई जाएगी। नेपाल की गैस और पेट्रोल संबंधी जरूरतें भारत ही पूरी करता रहा है। दोनों देशों के बीच बसें चलती रहती हैं, लेकिन ‘दोस्ती’ में चौकसी इसलिए बरतनी पड़ रही है, क्योंकि नेपाल के घुटने चीन की तरफ भी बहुत तेजी से मुड़ते हैं।


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