आध्यात्मिक जीवन श्रीराम शर्मा

By: Jun 3rd, 2023 12:20 am

हर व्यक्ति अपनी स्वतंत्र ईकाई है। उसे अपनी समस्याएं सुलझाने और प्रगति की व्यवस्था बनाने का ताना बाना स्वयं ही बुनना पड़ता है। कठिनाइयां आती और चली जाती है। सफलता मिलती और प्रसन्नता की झलक झांकी कर देने के उपरांत स्मृतियां छोड़ जाती है।

दिन और रात की तरह यह चक्र चलता ही रहता है। कोई जीवन ऐसा नहीं बना जिसमें ज्वार भाटे न आते हो। निष्क्रियता की तरह निश्चिंतता भी मरण का चिन्ह है। जीवन एक संग्राम है जिसमें एक एक कदम पर गुत्थियों को सुलझाते हुए चलना पड़ता है। पहाड़ों की चोटियों पर जम जाने के उपरांत दूसरे के लिए जगह बनाने की सोचते है।

नीचे कितनी गहरी खाई रह गई, इसे देखने से डर लग सकता है, ऊपर कितना चढऩा बाकी है यह जानने के लिए चोटी की ऊंचाई आंकना हैरानी उत्पन्न करेगा। इस यात्रा के लिए अटूट धैर्य और साहस की आवश्यकता है, इससे भी अधिक इस बात की कि हर हालत में संतुलन बना रहे। संतुलन डगमगा जाना आधी सफलता हाथ से गंवा देना और वजन को दूना बढ़ा लेना है।

हर समझदार आदमी को यह बात गांठ बांध रखनी चाहिए कि जन्म के समय वह अकेला आया था। मरने के समय भी चिता पर अकेले ही सोना है। अपना खाया ही अंग लगता है। अपने पढऩे से ही शिक्षित बना जाता है। यह काम किसी और से नहीं कराए जा सकते।

अपने बदले में किसी और को सोने के लिए नौकर रखा जाए तो नींद की आवश्यकता पूरी नहीं हो सकती। रास्ता अपने पैरों से ही चल कर पार करना पड़ता है। रोग की व्यथा स्वयं ही सहनी पड़ती है। पड़ोसी और संबंधी सहायता करने के जो काम है।
उन्हें कर सकते हंै पर चढ़ी हुई बीमारी को सहन करने के लिए अपने ऊपर नहीं ले सकते। इसलिए स्वावलंबी बनने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। स्वावलंबन से ही स्वाभिमान की रक्षा होती है।

नौकरों और सहायकों की बहुलता काम सरल तो बना सकती है पर उन पर सब कुछ छोडक़र निश्चित हो जाना भूल है। इंजन बुझा दिया जाए और डिब्बों को दौड़ते हुए आगे स्टेशन पर जा पहुंचने का हुकम देना समझदारी नहीं है। ये प्रत्यक्ष काम तो हाथ-पैर ही करते हंै, पर वास्तविकता यह है कि उनके पीछे जुड़ी रहने वाली मन की शक्ति ही अधिकांश जुगाड़ बिठाती है। इसलिए छोटा बड़ा जो भी काम करना हो उसमें मन का सही स्थिति में संलग्न होना आवश्यक है। मन डगमगाया तो समझना चाहिए कि नाव का संतुलन बिगड़ा। बुद्धिमान वे है जो अपने मन को सही स्थिति में रखे रहते है।

सडक़ पर मोटर के पहिए दौड़ते है और सवारियां सीटों पर बैठती है, इंजन ही यात्रा पूरी करता है। तेल पानी चुक जाए या गड़बड़ा जाए तो अच्छी तरह रंग रोगन की हुई गाड़ी भी मंजिल पार न कर सकेगी। जीवन कर्मभूमि है। इसमें खिलाड़ी का मन लेकर ही उतरा जाता है।

खिलाडिय़ों के सामने पग-पग पर हार जीत भी उछलती कूदती रहती है। लगता है कि हार या जीत। दोनों ही परिस्थितियों में वे समान मन से जुटे रहते है। हार जाने पर जीतने वाले से लडऩे पर उतारू नहीं होते वरन् हाथ मिलाते और बधाई देते है। हारने वालों का तिरस्कार करना बेहूदों का काम है।


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