नई संसद के बहिष्कार की राजनीति

पंजाबी में एक कहावत है ‘डिगी खोते तों ग़ुस्सा घुमार ते’। अर्थात कोई औरत गधे पर से गिर पड़ी तो वह सारा ग़ुस्सा कुम्हार पर निकालने लगी। इन राजवंशों के सिंहासन भारत के लोगों के नकारने से हिल रहे हैं और ये ग़ुस्सा नरेन्द्र मोदी पर निकाल रहे हैं। इस बार यह ग़ुस्सा भारतीय संसद के उद्घाटन के बहिष्कार के रूप में निकला है…

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 28 मई 2023 को भारत की संसद के नए भवन का उद्घाटन किया। फिलहाल जिस भवन से संसद का काम लिया जा रहा था, वह ब्रिटिश सरकार द्वारा उस समय बनाया गया था, जिन दिनों उनका सूर्य कभी अस्त नहीं होता था। यह भवन 1927 में बन कर तैयार हुआ था और लार्ड इरविन, जो उस समय ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त भारत का वायसराय था, ने 18 जनवरी को इसका उद्घाटन किया था। इस भवन का नाम कौंसिल हाउस था और यहां इम्पीरियल लैजिस्लेटिव कौंसिल की बैठकें हुआ करती थीं। लेकिन ब्रिटिश सरकार का यूनियन जैक यहां बीस साल तक ही लहरा सका। 1947 में अंग्रेजों को यहां से जाना पड़ा। स्वतंत्र भारत की लोकसभा और राज्यसभा के लिए भी किसी उपयुक्त भवन की आवश्यकता थी। उस समय यही निर्णय हुआ कि इस कार्य के लिए फिलहाल इसी भवन का उपयोग किया जाए।

जाहिर है भवन का नाम बदलना भी जरूरी था, इसलिए कौंसिल भवन को संसद भवन या पार्लियामेंट हाउस कहा जाने लगा। लेकिन कहना न होगा कि भवन मूल रूप से ब्रिटिश भवन निर्माण निपुणता का ही प्रतीक रहा। अनेक बार मांग भी होती रही कि यह पुरानी बिल्डिंग नए भारत की संसद के लिए छोटी भी पड़ती जा रही है, इसलिए नई भारतीय संसद का निर्माण किया जाए जो केवल नाम की भारतीय न हो, बल्कि भारतीय वास्तु व इतिहास की निरन्तरता का भी प्रदर्शन करती हो। कौंसिल हाउस की बिल्डिंग न केवल भारतीय संसद की आवश्यकताओं की जरूरतों से कोसों दूर थी बल्कि यह भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती थी। किसी ने हंसी में कहा भी था कि लगता था इस कौंसिल हाउस में अंग्रेजों की आत्मा घूमती रहती है। जहां तक भारतीय स्थापत्य कला का प्रश्न था, लुटियन, जिसने इस भवन का डिजाइन तैयार किया था, उसने अपना पत्नी को लिखा था, ‘मुझे नहीं लगता कि भारत में कोई भारतीय स्थापत्य कला नाम की कोई चीज भी है या फिर भारत में वास्तुकला की कोई महान परम्परा भी है।’ इसलिए यह जरूरी था कि भारत अपनी महान वास्तुकला की परम्परा के अनुरूप अपने ‘लोकतन्त्र मन्दिर’ का निर्माण करे। लेकिन अनेक कारणों से पुरानी सरकारें इस राष्ट्रीय महत्व के काम को टालती रहीं।

उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इनका स्वयं ही भारत की महान वास्तुकला परम्परा में विश्वास नहीं था। अन्तत: नरेन्द्र मोदी की सरकार के जिम्मे ही यह राष्ट्रीय दायित्व निभाने का अवसर आया। लुटियन का कौंसिल हाउस छह साल में बना था जबकि भारत के लोकतन्त्र का यह नया मन्दिर अढाई साल के रिकार्ड समय में बनकर तैयार हुआ। जिस दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लौहपुरुष वीर सावरकर की जयंती थी, उस दिन पूरे विधि-विधान से इस मंदिर में लोकमंगल की साधना के प्रतीक सेंगोल राजदंड की प्राण प्रतिष्ठा की गई। इस राजदंड की कथा भी विचित्र है। जब अंग्रेजों का यहां से जाने का समय आ गया तो उनके समक्ष प्रश्न उपस्थित हुआ कि भारतीय शासन व्यवस्था जिस पर उन्होंने दो सौ साल से बलपूर्वक कब्जा जमा रखा था, वह अब भारतीयों को कैसे सौंपा जाए? गजट नोटिफिकेशन के माध्यम से तो यह कार्य होना ही था। लेकिन इसके लिए क्या कोई पुरातन भारतीय परम्परा भी है? कहा जाता है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू के लिए यह एक ऐसा प्रश्न था जिसमें उनका विश्वास ही नहीं था। लेकिन इसे टाला भी नहीं जा सकता था। नेहरू ने आचार्य राजागोपालाचारी को यह उलझन सुलझाने के लिए कहा। राजागोपालाचारी ने महान चोल शासकों की परम्परा का अध्ययन करने के बाद बताया कि भारत में ऐसे समय नए शासक को राजदंड दिया जाता था जिसे तमिल भाषा में सेंगोल कहा जाता है। यह राजदंड यह सुनिश्चित करता है कि शासक अपने राज धर्म के मार्ग पर चलेगा।

यह राजदंड भारत की हजारों हजारों साल की कत्र्तव्य यानी धर्म साधना का प्रतीक था, जो शासक की जबावदेही निश्चित करता था। सेंगोल पूरे विधि-विधान से पंडित नेहरू को दिया गया, लेकिन वह संसद भवन में न जाकर नेहरू जी के घर के एक्सकेवेशंस में डाल दिया गया। शायद इसका कारण था कि नेहरू भारत की प्राचीनता और उसकी प्राचीन परम्पराओं से बहुत चिढ़ते थे। वे भारत को प्राचीन राष्ट्र स्वीकार ही नहीं करते थे, बल्कि इसे ‘नेशन इन मेकिंग’ कहा करते थे। यही कारण था कि ‘कत्र्तव्य पथ’ का स्मरण करवाते रहने वाला सेंगोल उनके घर के किसी कोने में गोल्डन वाकिंग स्टिक बन कर पड़ा रहा और वहीं से प्रयागराज के अजायबघर में इसी पहचान के साथ पहुंच गया। नई भारतीय संसद में वह पुन: स्थापित किया गया। सेंगोल इस बात का भी प्रतीक है कि भारतीय शासन व्यवस्था भारतीय संविधान के अनुरूप चलती है। सेंगोल भारत की प्राचीन लोकतांत्रिक आस्था को नवीन संविधान की लोकतांत्रिक आस्था को निरन्तरता में स्थापित करती है। नरेन्द्र मोदी इसीलिए भारत को लोकतंत्र की जननी कहते हैं। नया संसद भवन अपने स्वरूप में भी सम्पूर्ण रूप से भारतीय है। यहां उसके प्राचीन इतिहास, संगीत, परम्परा, साहित्य, भूगोल, समाज शास्त्र का दिग्दर्शन होता है। यह नवीन और प्राचीन का एकात्म स्वरूप है। उसकी निरन्तरता का द्योतक है। यह उपनिवेश की चीत्कार कर रही दुष्ट आत्माओं से मुक्ति का राष्ट्रीय पर्व है। उस मानसिक दासता से बौद्धिक स्तर पर मुक्ति का महान अनुष्ठान है। लेकिन इसे क्या कहा जाए कि सत्ता प्राप्ति की लालसा में लार टपकाते अनेक दलों ने इस राष्ट्रीय अनुष्ठान का बहिष्कार ही नहीं किया बल्कि इसकी निन्दा भी की। इसकी व्याख्या कैसे की जा सकती है? इसके लिए भी भारतीय इतिहास में ही गहरे पैठना होगा। अपनी सन्तान के लिए सत्ता का सिंहासन किसी भी तरह सुरक्षित कर देने की लालसा में महाभारत के धृतराष्ट्र अन्धे हो गए थे। उस कारण से ही भारतीय इतिहास का एक अध्याय लिखा गया। कहा जा सकता है कि धृतराष्ट्र तो जन्मान्ध थे। यह ठीक है, लेकिन येन केन प्रकारेण अपनी सन्तानों के लिए सत्ता सिंहासन सुरक्षित रखने की लालसा में उनकी अन्तर-ज्योति भी बुझ गई थी।

क्या इसे महज संयोग कहा जाए कि जिन दलों ने भारतीय संसद के इस राष्ट्रीय पर्व का बहिष्कार किया, वे सभी पारिवारिक दल ही थे। सोनिया गान्धी को अपने प्रौढ़ हो रहे पुत्र राहुल गान्धी को किसी तरह प्राचीन भारत के सत्ता सिंहासन पर बिठाना है, लालू यादव को अपने तेजस्वी की चिन्ता खाए जा रही है, मुलायम सिंह यादव तो नहीं रहे लेकिन पूरा परिवार किसी तरह अपने अखिलेश के लिए कुर्सी सुरक्षित करवा लेना चाहता है। ममता बनर्जी को अपने भतीजे की चिन्ता खाए जा रही है। डीएमके के करुणानिधि के बेटे ने पिता के देहान्त के बाद सही सलामत कुर्सी संभाल ली थी लेकिन अब गान्धी परिवार की तरह वह स्टालिन से छोटे स्टालिन तक सुरक्षित हो जाए, यही कामना है। लेकिन इन सभी के दुर्भाग्य से नरेन्द्र मोदी जो कर रहे हैं, उससे लगता है सत्ता सचमुच जनता के हाथों में जा रही है और पिछले पचहत्तर साल से लोकतंत्र की कोख से निकले राजवंश डगमगा रहे हैं। भविष्य में लोकतंत्र के आंगन में राजवंशों के यह झाड़ झंखाड़ उग न सकें, इसकी व्यवस्था की जा रही है। जाहिर है इससे ये राजवंश कुपित होते। पंजाबी में एक कहावत है ‘डिगी खोते तों ग़ुस्सा घुमार ते’। अर्थात कोई औरत गधे पर से गिर पड़ी तो वह सारा ग़ुस्सा कुम्हार पर निकालने लगी। इन राजवंशों के सिंहासन भारत के लोगों के नकारने से हिल रहे हैं और ये ग़ुस्सा नरेन्द्र मोदी पर निकाल रहे हैं। इस बार यह ग़ुस्सा भारतीय संसद के उद्घाटन के बहिष्कार के रूप में निकला है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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