विद्वता के पर्याय थे डा. गणपति चंद्र गुप्त
साहित्येतिहास के अतिरिक्त उन्होंने हिंदी भाषा तथा साहित्य का विश्वकोश भी तैयार किया जो एटलांटिक पब्लिशर्ज से दो खंडों में प्रकाशित हुआ। इसमें हिंदी के अनेक लेखकों की प्रविष्टियां हैं। प्रेमाख्यानों से संबंधित लगभग दो सौ प्रविष्टियां मेरी भी हैं। डा. गुप्त का देहावसान 21 मई 1996 को बीकानेर में हुआ…
स्वतंत्रता के बाद भारत में हिंदी के प्रति अद्भुत उत्साह था। विश्वविद्यालयों में भी इस उत्साह की झलक स्पष्ट दिखाई देती थी। नई पुस्तकों के निर्माण और शोध में गंभीर विषयों का चयन इस बात का प्रमाण था। पंजाब यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग में दिग्गज लोग उपस्थित थे। डा. इंद्रनाथ मदान, डा. धर्मपाल मैनी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा. मैथिली प्रसाद भारद्वाज, डा. गणपति चंद्र गुप्त, डा. सरनदास भनोत जैसे मनीषी विद्वान हिंदी के प्रचार-प्रसार को नए आयाम दे रहे थे। डा. मदान लाहौर से आए थे। उनकी पीएचडी का शोध प्रबंध मुंशी प्रेमचंद के कथा साहित्य पर था, जो अंग्रेजी में लिखा गया था। डा. गुप्त साहित्य में श्रेष्ठता की तलाश में राजस्थान के जिले सीकर से पहले जालंधर और फिर चंडीगढ़ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी में आए। यह वह समय था सन् साठ-बासठ का, जब प्रोफेसरों में गजब की होड़ लगी हुई थी, एक-दूसरे से बेहतर काम करने और आगे निकल जाने की। डा. गणपति चंद्र गुप्त का जन्म 16 जुलाई, 1928 को राजस्थान के सीकर में हुआ, परंतु एक बार वह पंजाब आ गए तो फिर पंजाब, हरियाणा और हिमाचल के ही होकर रह गए। आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान मेें भी कुछ समय निदेशक के पद पर रहे। वह निश्चित रूप से एक मेधावी छात्र थे। एमए हिंदी में प्रथम श्रेणी प्रथम स्थान और फिर पीएचडी करने के बाद पंजाब यूनिवर्सिटी से डी. लिट करने वाले पहले विद्वान थे।
उन्हें डी. लिट की उपाधि ‘साहित्य विज्ञान’ पर मिली, जिसमें उन्होंने फिजिक्स का काइनेटिक एनर्जी सिद्धांत लगाकर साहित्य विज्ञान की व्याख्या की और साहित्य विज्ञान के लिए लिटरोलोजी शब्द सुझाया। हिमाचल के जिन चार लोगों को उनके निर्देशन में पीएचडी करने का सौभाग्य मिला, उन चार में मैं भी शामिल था और अन्य तीन थे डा. कमला माहेश्वरी, डा. शमी शर्मा और नादौन से डा. ब्रह्मदत्त शर्मा। डा. गणपति चंद्र गुप्त मध्यकालीन संत साहित्य के प्रकांड पंडित थे। उनका शोध ‘बिहारी सत्सई और श्रृंगार परंपरा’ प्रेम के नए अर्थों को संदर्भित करने का अनूठा प्रयास था। डा. नगेंद्र ने जो ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ संपादित किया, उसमें प्रेमाख्यान परंपरा पर विशेष अध्याय डा. गुप्त ने ही लिखा है। मुझे भी उन्होंने ‘जायसी पूर्व रचित हिंदी प्रेमाख्यानों के आधार पर हिंदी प्रेमाख्यान परंपरा के उद्गम स्रोत, स्वरूप एवं प्रवृत्तियों का विवेचन’ विषय पीएचडी शोध के लिए दिया और मुझे भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त विश्व की बारह अन्य भाषाओं के प्रेमाख्यानों का इतिहास और मूल ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। उस समय तो बुरा लगता है कि गुरु जी ने अर्क ही निकाल लिया, परंतु बाद में अच्छा लगता है क्योंकि श्रम सदा सार्थक होता है। एक उनका तरीका था कि संबद्ध विषय के विद्वानों को पत्र लिखवाते थे ताकि नई बातें, नए सूत्र हाथ लगें। फिर वे दूरदराज के पुस्तकालयों में भी सामग्री एकत्रित करने के लिए भेजते थे। अपने आप सब कुछ पक जाता था। आज रिसर्च का ढंग ही बदल गया है। मूल पुस्तकें भी नहीं खरीदते शोधार्थी और कट-पेस्ट से ही काम चला लेते हैं। अपवाद अब भी होंगे। डा. ब्रह्मदत्त ने कबीर पर, डा. शमी शर्मा ने तुलसीदास और सूर साहित्य पर शोध किया था। सन् 1965 में डा. गुप्त का ‘हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ प्रकाशित हुआ। क्लिष्ट होने के कारण खूब चर्चा हुई और अनेक यूनिवर्सिटियों ने इसे पाठ्यक्रम में संस्तुत किया। इनके साहित्यिक निबंध भी बहुत लोकप्रिय हुए। हिंदी साहित्य एवं साहित्यकार ग्रंथ भी अपनी मौलिकता के कारण कीर्तिमान स्थापित करने में सफल हुआ। डा. गुप्त को गुस्सा भी बहुत आता था। लेकिन फिर कुछ समय बाद सहज हो जाते थे।
मन के बड़े निर्मल और छात्रों के लिए बड़े स्नेही। अपनी अवधारणाओं में एकदम अटल। और हर बात को तर्क और युक्तियों से काट देते। उन्होंने डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह तर्क कभी स्वीकार नहीं किया कि हिंदी के प्रेमाख्यान फारसी मसनवियों से प्रभावित या प्रेरित थे। मेरे निष्कर्ष भी विश्व प्रेमाख्यान परंपरा के आधार पर ऐसे ही थे। और मेरे परीक्षक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ही थे। उन्हीं के मतों का मैंने खंडन किया था, परंतु वाइवा में उन्होंने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा- ‘आपने खूब श्रम किया है और विश्व भर के प्रेमाख्यानों को छान मारा है। यही अनुसंधान का लक्ष्य होना चाहिए।’ यह उनकी महानता थी। मेरे दूसरे एग्जामिनर विश्व भारती विश्वविद्यालय के डा. रामपूजन तिवारी थे। दोनों बड़े लोग थे, इसीलिए थिसिस मूल्यांकन में तीन वर्ष लग गए। आजकल दो मास में पीएचडी का रिजल्ट आ जाता है। कितना बदल गया है समय। डा. गुप्त सौभाग्यशाली थे कि शांता कुमार सन् 1978 में हिमाचल के मुख्यमंत्री थे जिन्होंने हिंदी को बढ़ावा देते हुए डा. गुप्त को हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया। बाद में डा. गुप्त कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के भी कुलपति रहे, परंतु बड़े चतुर-चालाक न होने के कारण उन्हें कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के कुलपति का पद भी समय से पूर्व ही छोडऩा पड़ा। डा. गुप्त पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ में भी रहे, फिर रिजनल सेंटर शिमला में और बाद में पंजाब यूनिवर्सिटी के ही रिजनल सेंटर रोहतक में हिंदी के प्रोफैसर रहे।
वह केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा के निदेशक भी रहे और राजस्थान अनुसंधान संस्थान के निदेशक भी रहे। साहित्येतिहास के अतिरिक्त उन्होंने हिंदी भाषा तथा साहित्य का विश्वकोश भी तैयार किया जो एटलांटिक पब्लिशर्ज से दो खंडों में प्रकाशित हुआ। इसमें हिंदी के अनेक लेखकों की प्रविष्टियां हैं। प्रेमाख्यानों से संबंधित लगभग दो सौ प्रविष्टियां मेरी भी हैं। अभी डा. गुप्त की और भी बहुत सी योजनाएं थीं। डा. गुप्त का देहावसान 21 मई 1996 को बीकानेर में हुआ, जहां वह अपने ससुराल के शहर में वापस चले गए थे। उनकी पांच मेधावी संतानें थीं। सबसे बड़े बेटे प्रोफैसर रमेश गुप्त का देहावसान कोरोना में हो गया। अन्य परिवारजन अपने-अपने क्षेत्र में सफलतापूर्वक कार्यरत हैं। विलक्षण प्रतिभा के धनी डा. गणपति चंद्र गुप्त प्रेरणा पुंज थे, हिंदी साहित्य के पुरोधा थे। गुरु जी को उनकी जयंती पर शत्-शत् नमन।
डा. सुशील कुमार ‘फुल्ल’
साहित्यकार
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