हारे तो हम-1

By: Jul 15th, 2024 12:05 am

कितनी मिट्टी खोदी होगी, कितने अवसर दफन हुए होंगे, जब जनादेश के गणित में उपचुनावों की मंडी में हम, आप और हमारा संताप हाजिरी लगा रहा था। इस बार हिमाचल के उपचुनाव एक कड़वी दास्तान, महंगी सहूलियत और लोकतांत्रिक विडंबना माने जा सकते हैं। राजनीतिक जरूरतें कितनी बढ़ गईं कि एक साथ नौ विधानसभा क्षेत्रों में फिर से मतदाताओं की कतारें लग गईं। सवाल अनेक, दोष एक कि हमें मतदाता और बेशकीमती मत के बावजूद हार, हताशा और हतप्रभ होने के लिए राजनीतिक चरित्र हमेशा पहले से और भौंडा, अप्रीतिकर और असंगत हो गया। ये उपचुनाव कितने जमा व कितने के भ्रम में कहता, सुनाता और लोरियों के मौसम में हमारी चेतना सुलाता रहा। हम जागे नहीं, सोए-सोए वोट देते रहे, क्योंकि देश में चौथे ऐसे प्रदेश के बाशिंदे हैं जहां प्रतिव्यक्ति राज्य की उधारी बढ़ रही है। आखिर हिमाचल में उपचुनावों में 6 जमा तीन का फार्मूला था क्या और परिणामों में छह बनाम तीन हुआ क्यों। क्या सत्ता सशक्त हुई या राजनीतिक गुरूर बढ़ा। क्या विपक्ष ताकतवर हुआ या सियासी मुकाम मिट्टी में मिल गया। जो भी हो, होशियार सिंह, केएल ठाकुर, रवि ठाकुर, देवेंद्र भुट्टो, चैतन्य शर्मा और राजेंद्र राणा भले-चंगे विधायक होते, मगर शेखियों ने हिमाकत ऐसी की कि जमी जमाई दौलत व इज्जत लुट गई। कहना न होगा कि हिमाचल को उपचुनाव की न जिरह, न तर्क पसंद आए, वरना कल के नायक आज खलनायक न होते।

हिमाचल में कुछ सरमायेदारों ने राजनीति का वशीकरण किया, लेकिन इन उपचुनावों में सुजानपुर से राजेंद्र राणा और देहरा से होशियार सिंह का हारना उस दौलत और शोहरत का हारना भी है, जिसे इन दोनों ने अर्जित किया। अब परिणामों के पटाक्षेप में साढ़े तीन साल की सत्ता को ठीकठाक बहुमत और विपक्ष को सुनाने का पूर्ण हक मिल गया, जबकि तीन सीटें बढ़ाकर भी भाजपा के महल में कई चिराग गुल हैं। उपचुनावों में सारा वीर रस मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू ले गए, क्योंकि उनकी सरकार और उनका परिवार लाभान्वित है। कांग्रेस जितनी व जिस सूरत में उन्हें चाहिए थी, मिल गई। राज्यसभा चुनाव में खंजर चुभोने वाले अधिकांश चेहरे निपटाए जा चुके हैं, लेकिन सियासत के कई अर्थ उन्हें स्वीकार करने होंगे। हमीरपुर से आशीष शर्मा और इंद्रदत्त लखनपाल जीत कर विधानसभा में लौट रहे हैं। तीन ऐसे विधायक लौट रहे हैं जो कल तक कांग्रेस की बोली और कांग्रेस की हां में हां मिलाते थे। शोर अब इतना न बढ़ जाए कि जनता की नींद हराम होने लगे। रोष इतना न बढ़ जाए कि हिमाचल लोकसभा बनाम विधानसभा में बंट जाए। आर्थिक चुनौतियों के बीच पिछले चुनावों के बाद लोकसभा से उपचुनावों तक कांग्रेस के वादे बढ़ गए हैं।

हर चुनाव शेखचिल्ली होता है। पिछले ने गारंटियों की माला पहनाई थी, तो उपचुनावों ने आरती उतारी है। यहां रिश्तों की दुहाई, मायके की कमाई और दलबदलुओं की लड़ाई थी, इसलिए जनता ने इंतखाब किया या बदला लिया, लेकिन अब विकास के गहनों का मुकाबला विकास के घुंघरुओं से है। घुंघरू कहीं भी, कभी भी बज सकते हैं और बजते आए हैं, लेकिन विकास के मंचन में अब सरकार की बारी है। बहरहाल हिमाचल ने एक बार फिर साबित कर दिया कि निर्दलीय पर उम्मीदें नहीं और यह भी कि तीसरी शक्ति के उदय से यहां राजनीतिक समाधान नहीं। देखना यह है कि उपचुनावों ने जो भी मुखौटे पहने, वे यथार्थ में आगे कैसे उतरते हैं और यह भी कि जो महीने आचार संहिता के बंधक बन कर उजड़ गए, वे लौटते हैं या नहीं। उपचुनावों के बाद सत्ता और विपक्ष के बीच आदतें बदलती हैं या बदलाव की जरूरतों में सियासत कितनी बदलती है, यह देखना होगा। – क्रमश:


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