दिव्य हिमाचल डिजिटल डेस्क
चंबा... यह नाम जब भी आपके जहन में आता होगा… दिल खुशनुमा हो जाता होगा, क्योंकि चंबा न केवल शानदार प्राकृतिक दृश्यों, विशाल घास के मैदानों और विशाल नदियों का घर है, बल्कि यह संस्कृति जटिल कला और शिल्प का खजाना भी है। चंबा की गलियों में सुनाई देने वाली ठक-ठक की आवाज और यहां के लोगों के हाथों का हुनर-यकीनन आपको दिवाना बना सकता है। आज इस खास कार्यक्रम में हम बात करेंगे चंबा की धातु हस्तशिल्प कला की। उस शिल्प कला की, जिसके जरिए आज भी चंबा के हजारों परिवार अपना घर चला रहे हैं और न केवल देश ब्लकि विदेश में भी चंबा के नाम को रोशन कर रहे हैं। सदियों से यहां के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी इस समृद्ध विरासत को संभाले हुए हैं।
चंबा धातु शिल्प में पीतल से धार्मिक प्रतीकों, घरेलू वस्तुओं और सजावटी वस्तुओं को सावधानीपूर्वक तैयार किया जाता है। यहां का चंबा थाल तो देश विदेशों में ख्याति पा चुका है। माना जाता है कि यह परंपरा 10वीं शताब्दी में चंबा के राजा साहिल वर्मन के शासनकाल में शुरू हुई थी। इसमें कश्मीरी शिल्प का प्रभाव है। यहां की यह कला कितनी समृद्ध है, इसका अंदाज आप इस बात से लगा सकते हैं कि खुद पीएम भी इसकी तारीफ कर चुके हैं। खेल मंत्री रहते हुए अनुराग ठाकुर ने ओलंपिक विजेताओं को उपहार में चंबा थाल दिए थे, जिससे इस शिल्प कला को बढ़ावा देने में मदद मिली थी। चंबा थाल की मांग बाहरी लोगों में भी काफी बढ़ गई है। जानकारों के अनुसार एक मूर्ति और थाल बनाने में चार से छह महीने तक का समय लग जाता है, क्योंकि ये सारा काम हाथों से किया जाता है। शायद पूरे भारत में केवल चंबा ही ऐसी जगह है जहां धातु की मूर्तियां और थाल हाथ से इतनी बारिकी से बनाई जाती हैं। इन्हें देख कर ऐसे लगता है मानों ये अभी बोल उठेंगी।
ब्रांड ऐसा कि दिल लट्टू हो जाए
चंबा थाल तो विश्वव्यापी ब्रांड बन चुका है। आज किसी भी सरकारी व गैर सरकारी समारोह में धातु शिल्प के इन उत्पादों की डिमांड काफी बढ़ गई है, जो कि इस काम से जुटे लोगों के लिए संजीवनी साबित हो रही है। इसके अलावा पारंपरिक रणसिंगे व नगाड़ों की डिमांड भी बढ़ी है। साथ ही धातु शिल्प के काम से जुड़े स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार का एक बड़ा जरिया बन गया है। मणिमहेश यात्रा और मिंजर मेले के दौरान देश विदेश से आने वाले लोग चंबा धातु शिल्प की मूर्तियां व चंबा थाल को साथ ले जाना नहीं भूलते है।
ऐसे तैयार होता है मास्टरपीस
धातु शिल्पकला की अपनी पारिवारिक विरासत को आगे बढ़ाने वाले अंकित वर्मा ने बताया कि उनका परिवार पिछले 500 साल से इस शिल्प कला से जुड़ा है। वह इस काम को करने वाली दसवीं पीढ़ी है। अंकित ने बताया कि कैसे इन मूर्तियों को तैयार किया जाता है। पहले एक वैक्स यानि की मोम का मॉडल तैयार किया जाता है, उस पर कई बार मिट्टी की परत चढ़ाकर साँचा बनाया जाता है और फिर कई दिनों की मेंहनत के बाद तैयार होता है एक मास्टरपीस है। बरसों से धातु का काम कर रहे गौरव ने बताया कि कैसे ये कला आज कई युवाओं को रोजगार उपलब्ध करा रही हैं, आज के दौर में किस तरह से कारीगर इस कला को जीवित रखने में कामयाब हुए हैं और किन उत्पादों की डिमांड आज बाजार में ज्यादा बढ़ी है।
बेहतर मार्केट प्लेस की जरूरत
चंबा की यह वह विरासत हैं, जो चंबा को एक अलग पहचान दिलाती है। हालांकि कारीगरों का यह मानना जरूर है कि भले ही विलुप्त होती इस कला को आज संरक्षण मिल गया हो, मगर आज भी एक बेहतर मार्केट प्लेस नहीं मिला है। अगर मार्केट प्लेस भी अच्छा मिल जाए, तो आने वाले समय में यहां के कारीगरों को हौसला भी बढ़ेगा और जो लोग इस कला को आज छोड़ चुके हैं, वे दोबारा अपने पारंपरिक काम में लौट कर आ सकते हैं।