वराह जयंती : दैत्यों का वध करने को लिया अवतार
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वराह जयंती भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाई जाती है। हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस तिथि को भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया था, और हिरण्याक्ष नामक दैत्य का वध किया। भगवान विष्णु के इस अवतार में श्रीहरि पापियों का अंत करके धर्म की रक्षा करते हैं। वराह जयंती भगवान के इसी अवतरण को प्रकट करती है। इस जयंती के अवसर पर भक्त लोग भगवान का भजन-कीर्तन व उपवास एवं व्रत इत्यादि का पालन करते हैं..
विष्णु-हिरण्याक्ष युद्ध
वरुण देव की बात सुनकर उस दैत्य ने देवर्षि नारद के पास जाकर नारायण का पता पूछा। देवर्षि नारद ने उसे बताया कि नारायण इस समय वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिए गए हैं। इस पर हिरण्याक्ष रसातल में पहुंच गया। वहां उसने भगवान वाराह को अपनी दाढ़ पर रख कर पृथ्वी को लाते हुए देखा। उस महाबली दैत्य ने वाराह भगवान से कहा, ‘अरे जंगली पशु! तू जल में कहां से आ गया है? मूर्ख पशु! तू इस पृथ्वी को कहां लिए जा रहा है? इसे तो ब्रह्मा जी ने हमें दे दिया है। रे अधम! तू मेरे रहते इस पृथ्वी को रसातल से नहीं ले जा सकता। तू दैत्य और दानवों का शत्रु है, इसलिए आज मैं तेरा वध कर डालूंगा।’ हिरण्याक्ष के इन वचनों को सुन कर वाराह भगवान को बहुत क्रोध आया, किंतु पृथ्वी को वहां छोड़ कर युद्ध करना उन्होंने उचित नहीं समझा और उनके कटु वचनों को सहन करते हुए वे गजराज के समान शीघ्र ही जल के बाहर आ गए।
उनका पीछा करते हुए हिरण्याक्ष भी बाहर आया और कहने लगा, ‘रे कायर! तुझे भागने में लज्जा नहीं आती? आकर मुझसे युद्ध कर।’ पृथ्वी को जल पर उचित स्थान पर रखकर और अपना उचित आधार प्रदान कर भगवान वाराह दैत्य की ओर मुड़े और कहा, ‘अरे ग्राम सिंह (कुत्ते)! हम तो जंगली पशु हैं और तुम जैसे ग्राम सिंहों को ही ढूंढते रहते हैं।
अब तेरी मृत्यु सिर पर नाच रही है।’ उनके इन व्यंग वचनों को सुनकर हिरण्याक्ष उन पर झपट पड़ा। भगवान वाराह और हिरण्याक्ष के मध्य भयंकर युद्ध हुआ और अंत में हिरण्याक्ष का भगवान वाराह के हाथों वध हो गया। भगवान वाराह के विजय प्राप्त करते ही ब्रह्मा जी सहित समस्त देवतागण आकाश से पुष्प वर्षा कर उनकी स्तुति करने लगे।
भागवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने मनु और सतरूपा का निर्माण किया और सृष्टि करने की आज्ञा दी। इसके लिए भूमि की आवश्यकता होती है, जिसे हिरण्याक्ष नामक दैत्य लेकर सागर के भीतर भू-देवी को अपना तकिया बना कर सोया था तथा देवताओं के डर से विष्ठा का घेरा बना रखा था। मनु सतरूपा को जल ही जल दिखा, जिसके बारे में ब्रह्मा को बताया। तब ब्रह्मा ने सोचा कि सभी देव तो विष्ठा के पास तक नहीं जाते, एक शूकर ही है जो विष्ठा के समीप जा सकता है। भगवान विष्णु का ध्यान किया और अपनी नासिका से वाराह नारायण को जन्म दिया, पृथ्वी को ऊपर लाने की आज्ञा दी। वाराह भगवान समुद्र में उतरे और हिरण्याक्ष का संहार कर भू-देवी को मुक्त किया।
कथा : जब दिति के गर्भ से हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने जुड़वां पुत्रों के रूप में जन्म लिया तो पृथ्वी कांप उठी। आकाश में नक्षत्र और दूसरे लोक इधर से उधर दौडऩे लगे, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानो प्रलय आ गई हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े हो जाते हैं और अपने अत्याचारों से धरती को कंपाने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों बलवान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे।
तप तथा वरदान : हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए कठिन तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, ‘तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो?’ हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया, ‘प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न कोई मार सके।’ ब्रह्माजी तथास्तु कहकर अपने लोक में चले गए। ब्रह्मा से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं विष्णु भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा।
इंद्रलोक पर अधिकार : हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में गदा लेकर इंद्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की खबर मिली, तो वे भयभीत होकर इंद्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इंद्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इंद्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा, ‘वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध पिपासा को शांत कीजिए।’ हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिया। वे बड़े शांत भाव से बोले, ‘तुम महान योद्धा और शूरवीर हो। तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोडक़र कोई भी ऐसा नहीं है जो तुमसे युद्ध कर सके। अत: उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।’
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