बदतर आर्थिकी सुधारने को बड़े कदमों की जरूरत
जनता की मानसिकता सरकार को कुछ देने की नहीं, बल्कि सरकार से किसी न किसी जरिए से कुछ हासिल करने की बन चुकी है। जनता की इस मानसिकता को एकदम से बदलना कदापि संभव नहीं है और जब तक इस मानसिकता में बदलाव नहीं होता, तब तक इस आर्थिक संकट से मुक्ति संभव नहीं है। इस समय हिमाचल प्रदेश का सकल घरेलू उत्पाद और ऋण का अनुपात 40 प्रतिशत के लगभग है। यह अनुपात प्रदेश की अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है…
हिमाचल प्रदेश की आर्थिक बदहाली की तस्वीर आज किसी से छुपी नहीं है। आज ये पहाड़ी प्रदेश अपने इतिहास के सबसे मुश्किल आर्थिक दौर से गुजर रहा है और वर्तमान सरकार कुछ नए प्रयोगों के दम पर इस स्थिति से निपटने की कोशिश में लगी हुई है। सरकार के इन प्रयासों से प्रदेश की आर्थिकी को कितना बल मिलता है, ये आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि हालात जिस कद्र बिगड़ चुके हैं उनको सुधारने के लिए छोटे-मोटे नहीं, बल्कि कुछ बड़े और कड़े प्रयास करने की आवश्यकता है। लेकिन इन बड़े प्रयासों के लिए जिस तरह की राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत होती है, उसका प्रयोग शायद कोई भी राजनीतिक दल नहीं करना चाहेगा, क्योंकि उनको पांच साल के बाद फिर से जनता के दरबार में जाना होता है और कड़े निर्णय जनता के गले आसानी से नहीं उतरते। लोकतंत्र की ये खूबसूरती है कि जनता अपनी भलाई के लिए ही सरकारों को चुनती है और सरकार अपनी नीतियों से जनता को पेश आ रही समस्याओं को दूर करने का प्रयास करती है। इन नीतियों से जब समस्या हल नहीं होती, तो इस नीति का पुनरावलोकन करने की बजाय एक नया तरीका ढूंढ लिया जाता है और वो है फ्रीबीज।
अर्थात मुफ्त में जनता को वस्तु या सेवा उपलब्ध करवाना। इस कारण से जनता की मानसिकता सरकार को कुछ देने की नहीं, बल्कि सरकार से किसी न किसी जरिए से कुछ हासिल करने की बन चुकी है। जनता की इस मानसिकता को एकदम से बदलना कदापि संभव नहीं है और जब तक इस मानसिकता में बदलाव नहीं होता, तब तक इस आर्थिक संकट से मुक्ति संभव नहीं है। इस समय हिमाचल प्रदेश का सकल घरेलू उत्पाद और ऋण का अनुपात 40 प्रतिशत के लगभग है। ये अनुपात प्रदेश की अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है। यहां पर इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि ये इतनी बड़ी आर्थिक समस्या कोई रातों रात पैदा नहीं हुई, बल्कि ये एक लंबे समय तक हुए आर्थिक कुप्रबंधन का परिणाम है। फ्रीबीज और लोकलुभावन निर्णयों को आधार बनाकर की गई वोट की राजनीति ही इसका मुख्य कारण रहा है। पिछले लगभग डेढ़ दशक से ये मुद्दा प्रदेश में एक बड़ी चर्चा का विषय रहा है, लेकिन कभी भी इस आर्थिक बदहाली से निपटने के लिए कोई पुख्ता पहल नहीं की गई। इस दौरान जितने भी चुनाव प्रदेश में हुए, उनमें हर विपक्षी पार्टी ने सताधारी दल पर आक्रमण करने के लिए इस मुद्दे को एक चुनावी हथियार की तरह प्रयोग किया। ये समस्या इसलिए और ज्यादा गंभीर बन गई, क्योंकि ये मुद्दा केवल और केवल एक चुनावी मुद्दा ही बन कर रह गया और कभी भी सरकारों के एजेंडे का हिस्सा नहीं बन सका। आज से पहले प्रदेश की आर्थिक बदहाली के आंकड़े जब जनता के सामने आते थे, इन आंकड़ों के प्रति जनता का ज्यादा सरोकार नहीं होता था, क्योंकि उनको लगता था कि इन आंकड़ों की अहमियत केवल कागजों और सरकारी फाइलों तक ही है।
लेकिन अब उन आंकड़ों ने अपना असर धरातल पर दिखाना शुरू कर दिया है और प्रदेश की इस आर्थिक बदहाली को प्रदेश का एक आम नागरिक भी महसूस करने लगा है। बात चाहे डिपुओं में मिलने वाले राशन में होने बाली कटौती की हो या फिर सरकारी कार्यालयों को बंद या स्थानांतरित करने की या फिर बिजली की फ्री यूनिट में कटौती की या फिर घरेलू पानी के बिल की शुरुआत करने की, ये सारे कदम प्रदेश की वित्तीय दुर्दशा का ही परिणाम हैं। इस तरह की सभी लोकलुभावन सौगातें जब जनता को दी जाती हैं, तो ये राजनीतिक दलों के प्रति सकारात्मक मनोभाव बनाने में सफल हों या ना हों, लेकिन जब इन सौगातों पर रोक लगाई जाती है, तो ये निर्णय सरकारों के प्रति एक नकारात्मक मनोभाव जरूर तैयार करते हैं। प्रदेश की कमजोर आर्थिकी यूं तो अब एक सदाबहार विषय बन चुका है, लेकिन पिछले दिनों यह विषय उस समय एकाएक चर्चा में आ गया जब हिमाचल प्रदेश के सचिवालय के कर्मचारियों द्वारा अपने महंगाई भत्ते और छठे वेतन आयोग की बकाया राशि मांग को लेकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में अपनी मांगों के साथ- साथ कर्मचारी नेताओं द्वारा, सरकार द्वारा किए जा रहे कुछ खर्चों और नेताओं और अधिकारियों द्वारा लिए जा रहे भत्तों पर भी अंगुली उठाई गई। इस वजह से अब इन कर्मचारियों और सरकार के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो गई है। इसी कड़ी में मुख्यमंत्री द्वारा अपने मंत्रियों और मुख्य संसदीय सचिवों के दो महीने के वेतन को भी विलंबित कर दिया गया है। यह सही है कि कर्मचारियों को अपनी मांगें सरकार के सामने रखने का पूरा अधिकार होता है और ये मांगें काफी हद तक जायज भी हैं।
सचिवालय कर्मचारियों द्वारा किए गए इस प्रदर्शन के बाद पूरे प्रदेश का कर्मचारी भी इन मांगों के प्रति गंभीर भी हुआ है, लेकिन प्रदेश की कमजोर वित्तीय स्थिति में सुधार के लिए सभी पक्षों को सकारात्मकता के साथ आगे बढऩे की जरूरत है। टकराव से इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता है। हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2022 में कांग्रेस की सरकार बनाने में प्रदेश के कर्मचारियों का योगदान काफी अहम रहा है। उनके इस योगदान को देखते हुए ही सरकार द्वारा अपने चुनावी वायदे के अनुसार प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन की बहाली की गई। निश्चित तौर पर ये एक बड़ा कदम सरकार द्वारा कर्मचारियों के हित में उठाया गया था। प्रदेश के कर्मचारियों सहित सभी वर्गों के विकास से ही एक सशक्त और आत्मनिर्भर हिमाचल का निर्माण संभव है और इसके लिए सभी को मिलकर और सद्भाव से कार्य करने की आवश्यकता है।
राकेश शर्मा
स्वतंत्र लेखक
Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also, Download our Android App or iOS App